Tuesday, February 24, 2015

शाम का चेहरा

शाम का चेहरा उतरा हुआ सा है
आँखों की रोशन लवें बुझी हैं
रात के कब्ज़े में संतरी लम्हें चले आएं
उदास हवाएं दरख्तों से नीचे नहीं उतरी
नींद के जुगनू बागो में टहलने नहीं आये
खामोश हैं सदायें सारी
सुन्न है आलम सारा
कोई आहट नहीं ..सरसराहट नहीं...
 
मैंने उम्मीद के तिनके जलाएं हैं गीली माचिस से
मगर दूर तक बस्ती पर जुल्मतों का ही साया हैं
आज फिर आस्मां को घटाओं ने घेर रक्खा है
आज फिर मुझसे मिलने न चाँद आया है !!
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©परी ऍम. 'श्लोक'

Tuesday, February 10, 2015

"तन्हाई"

 
बजी न घंटियाँ सेलफोन की ज़वाल तक
रात भी न कोई राब्ता रहा तुमसे
कल इतवार भी सन्नाटें दायें-बायें चिपके रहे
आँखों के परदे से दिल की झील टपकती रही
पैदल सवाल ज़ेहन के गुर्फे में मचलते रहे 
तुमपर फ़ना होने की आरजुओं ने जबसे करवट ली
अज़ब सी अज़ाब की हिरासत में आ गए हैं
सुकून के पहलुओं से बेचैनियों की गर्दिश में आ गए हैं
मेरे आईने मेरी पहचान में नाकाम रहते हैं
और हम तेरी तलाश में सुब्ह-ओ-शाम रहते हैं
महज़ वीरानियाँ भटकती हैं पूरी बस्ती में
कही नहीं नज़र आता है साया तक तेरा
मेरा हमसाया होने का दम भरने वाले ज़रा बता
गमज़दा-गमज़दा ये रानाई क्यों हैं ?
अगर तुम साथ हो तो फिर ये तन्हाई क्यों हैं ? 
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© परी ऍम. 'श्लोक'
मायने :-
ज़वाल = दोपहर बाद
राब्ता = संपर्क
गुर्फे = अपार्टमेंट