Thursday, May 29, 2014

ग़ज़ल ने ग़ज़ल कहा

सुनो ! कल ग़ज़ल ने इक ग़ज़ल कहा मुझसे
लव्ज़ों के कई मायने बदल-बदल कहा मुझसे

कहने लगी 'श्लोक' ये तेरा मुकाम नही हैं
दामन को खींच कर आगे चल कहा मुझसे

होती हैं खतायें तो जीवन के रहगुजर में
इससे सीख इंसान बन जाता है संदल कहा मुझसे

कितनी उम्मीद बांधे है ज़मीन जो ये प्यासी है
बन जा कभी सागर कभी बादल कहा मुझसे

क्या हुआ जो नहीं ढला इक सपना हकीकत में
इन सपने के चेहरों को बदल कहा मुझसे..

सुनो ! कल ग़ज़ल ने इक ग़ज़ल कहा मुझसे.....


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! खार बेहतर है !!

रात का खौफ है कसक-मसक करती हूँ
मौत अपनी है मैं तो जिंदगी से डरती हूँ

रेत का घर साहिल पे बनाया है जबसे
क्या कहूँ समंदर की हर लहर से तबसे डरती हूँ

अपने खातिर खुदा से कुछ माँगा ही नही
अपनों के लिए नजाने कितनी दुवाएं करती हूँ

जबसे तन्हाईओं को बात करने का हुनर आया
ज़माना छोड़ कर इन्ही से गुफतगू करती हूँ

अच्छे नहीं लगते गुलशन के लच्छे मुझे 'श्लोक'
खार बेहतर है मैं इनकी जुस्तजू करती हूँ

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! दो पल बैठ के हालात.... !!

दो पल बैठ के हालात चलो बाँट लिया जाए
कुछ वक़्त एक दूजे के साथ काट लिया जाए

क्या मालूम जिंदगी कब अलविदा कह जाए
जो यादगार रहे चंद ऐसी मुलाकात किया जाए

कुछ तुम कहना कुछ हम कहेंगे तो बात बनेगी
चलो कहीं न कहीं से कोई शुरुआत किया जाए

हम इन पत्थरो के सीने से दरियां निकाल दें
इक- दूजे को गर मोहोब्बत से आवाज़ दिया जाए

ऐसा नहीं कि किसी का सारा गम चुराया जा सकता है
पर शायद वो मुस्कुरा दे गर उनका साथ दिया जाए


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! धुन में !!

ये कौन सी धुन में चल रही हूँ
गिर रही हूँ कभी संभल रही हूँ

मुझे खुद ही समझ नही आया
आखिर किस आग में जल रही हूँ

छूटी न हाथ से उंगलियां कल की
फिर भी कहती हूँ आगे बढ़ रही हूँ

अपनी आँखों में कभी झाँका ही नहीं
पर यहाँ सबका मिज़ाज़ पढ़ रही हूँ

मैं वही और है मेरा वज़ूद वही
फिर चेहरा से क्यों बदल रही हूँ

मुझे इतनी समझ कहाँ से आई ?
शायद! कुछ तजुर्बों से गुज़र रही हूँ

बर्फ का चट्टान मुझे कहने वालो
दरअसल अंदर से मैं उबल रही हूँ

तमन्ना तो मेरी कुछ भी नहीं 'श्लोक'
फिर किसकी तलाश कर रही हूँ !!!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, May 28, 2014

!! इक खलिश है...... !!


ऐसा नहीं मेरी जात को कोई महफ़िल नहीं मिला
बस किसी से सोच न मिली तो किसी से दिल नहीं मिला


आये गए जिंदगी कि राह में कई रहगुज़र लेकिन
किसी का साथ माँगते हम...कोई यूँ काबिल नहीं मिला


इस बाजार में चमकती चीज़ो के खरीदार कई मिले
मगर सादगी पे मरने वाला कोई जाहिल नहीं मिला


हम जिसके आगे झुक जाते बिना किसी तकल्लुफ
मगर बात ये हैं कि ऐसा कोई संगदिल नहीं मिला


बात निकलेगी तो दूर तक अफवाह सी फ़ैल जायेगी
'श्लोक' के चाहत कि लहर को कभी साहिल नहीं मिला


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

"अनाथालय"


कैसा घर था वो ? 
बहुत बड़ा था
कई हज़ार बच्चो का आशियाना था
छोटे से बड़े उम्र के बच्चे
जहाँ खोजते फिर रहे थे
अपने हक़ का दुलार  
वहाँ प्यार तो देखा मैंने
मगर उनका नहीं
जिनकी ज़रूरत उनके बचपन को थी
कौन थे इतने प्यारे बच्चे
और वो नन्हा मात्र छेः महीने का
ममता भला कैसे न फूटे भीतर
उसके कोमलता को देख कर
मैंने उठाया उसे गोद में
बहुत देर तक उससे खेलती रही
आलिंगन करती रही
स्नेह फुट पड़ा था मुझमे
मगर फिर भी नहीं दे पायी मैं
उसे वो माँ का प्यार
जो उसकी किलकारियाँ मांग रही थी
उसे वो परवरिश जो उसका अधिकार था
मालूम नहीं मुझे
कौन थे वो लोग जिनको
खुदा ने इतना सुन्दर तौफा दिया था
चाहती थी कि न्यौछावर कर दूँ
मेरे अंदर सिमटी हुई ममता इन बच्चो पे
मगर मेरे पास केवल प्यार था
और उसके साथ था बहुत सारा अभाव
आह !
कैसा बचपन देखा मैंने ये आज
जो अनाथालय कि चारदीवारी से
जूझता हुआ कटता है

क्या कहूँ ?
इसके बाद मेरा मौन होना ही स्वाभाविक है !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

((नन्हे प्यारे बच्चो को मेरे ढेर सारे प्यार से समर्पित ये लेख.... .... Love you baccho))
उन सभी स्टाफ का मैं बहुत सम्मान करती हूँ जो इन बच्चो कि देख रेख में अपना जीवन बिता रही है !!)

"राहें-मंज़िले"


ये राहें कहती है
मत चलो..
है बहुत से हेर-फेर दिशाओ में
भटक जाओगे वरना
कंकड़-पत्थर मेरे शरीर पर
तुम्हे रह-रह के चुभते रहेंगे
पड़ेंगे फफोले तुम्हारे गुदगुदे पाँव में
और तुम्हारे आँसुओ का बोझ
मुझे अनाहक में उठाना पड़ेगा
सुनो ! बहुत मुश्किल है सफर
तय मत करो....
ये रहे कहती है
मत चलो..
मगर मंज़िले मुझे इशारा कर रही है
आवाज़ देती है...बुलाती है
बार बार ये कहकर कि
वो मेरा मुकाम है
मेरी तकलीफो को
अपनी इक फूंक से उड़ा देती है
फिर क्या ?
मैं दौड़ पड़ती हूँ
मंज़िलों को अपने गिरफ्त में
लेने कि चाहत में
उस पल मैं कुछ नहीं सुनती
न सज़ा न वज़ह
सुनती हूँ तो बस
उस मुकाम कि आवाज़
जो मुझे कभी सोने नहीं देता
और जलती हुई उम्मीद
जो अपनी आँच से
मेरी कोशिश को मुझमे जलाये रखती है
न मुझे बुझने देती है
और न ही मुझे रुकने देती है !! 



रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'

!! तौफे में सौगाते !!

मुझे तौफे में मिलती है बड़ी बेमोल सौगाते
जिसने रंज है पाला..दिल में भी है..वही आते !

शिकवे न होते पैदा शायद वो भी समझ जाते
उस पत्थर के कानो में अगर जस्बात कह पाते !

आज फिर किनारो पे खुद दरिया चला आया
मगर हम ठहरे चकोर..बारिश के बूँद के हैं प्यासे !

जाने क्या सोच कर वो मुँह फेर हँसता रहा मुझपर ?
हालातो से होती बेरुखी अगर हम उसपल न मुस्कुराते !

अपनी आदत नहीं है पुरानी चीज़े बदल देने की
वरना तुम को तो हम कब का वीरानो में छोड़ आते !

हर वक़्त अकेले में बस यही सोच पलती है
हम दौड़े चले आते तुम अगर आवाज़ लगाते !

ज़माने के रंगो में 'श्लोक' जो तुम भी रंग जाते
जिस टीस में रोते हो फिर तुम्हारे करीब तक न आते !!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

 

Tuesday, May 27, 2014

"उस रात जो उजाले थे"


उस रात............
खबर अंधेरो को भी क्या थी?
कि उनका चेहरा सफ़ेद होने वाला है
प्यार की बर्फ़बारी की तहो में
वो दब के रह जाएगा...
बन जायेगी उस रात कि एक नवीन परिभाषा
बेशक अँधेरे छटपटा रहे होंगे
क्यूंकि रात अपनी चरम सीमा पे था
मगर उस रात
वो रात की बात कहाँ रह गयी थी
अचानक तुम आ गए थे
नहीं वो कोई चांदनी रात नही थी
जैसे की आज है !

लेकिन फिर भी वो रात बहुत उजली थी
कहीं दूर-दूर तक कोई आवाज़ नही थी
बस हलचल थी दिलो में दोनों तरफ
तमाम सितारे लिपटे हुए थे तुम्हारे आँचल से
कैसे भूल सकता हूँ मैं ?
इर्द-गिर्द से गुजरती हुई हवाओ कि शरारत
तुम्हारी सिल्की जुल्फों कि
जाल में उलझाती ही चली जा रही थी मुझे
वादियाँ ये फ़ज़ाएँ कोई प्रेम गीत गा रही थी
गिटार कि तरह बज रही थी धड़कने
तुम्हारे हाथ को थामे हुए
मैं जिंदगी के सबसे हसीन दौर को जी रहा था
कि अचानक सूरज कि रोशनी में मुझे तरेर दिया
मैं सहमा उठ खड़ा हुआ
नींद टूट चुकी थी और तुम भी नहीं थी
उस पल मुझे शिकायत हुई थी
सवेरो से बेहिसाब.....

मगर मैं क्या करता?
तुम्हे कहाँ खोजता ?
अब मैं तुम्हे पाने के लिए
करवटों कि पीड़ा को जीता हुआ
हर रात के सीने पे बेताबियाँ लिखता हूँ

मगर वो रात नही लौटती....
जिस रात ने अपने मायने ही पलट के
रख दिए हैं आज...... मेरे लिए

काश!

कि तुम फिर आजाओ एक बार
इस बार मैं हर भय को मसल के फेक दूंगा
और तुम्हारे साथ चल पडूंगा
वहां जहाँ तुम मुझे ले जाना चाहोगे
बिना किसी सवाल और जवाब के !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

!!ये दशाएं!!

ये दिशाए...ये दशाएं.. मेरे हक़ में नहीं
नहीं तुझको भुला पाना मेरे बस में नहीं !

चीख उठता है हर लम्हा बीते उस दौर का
इससे बच पाने कि ताकत मुझमे सच में नहीं !

खुद को कितना भी सम्भालूँ और काबू में रखूं
मगर ये दिल जो पागल है मेरे कहे कस में नहीं !

ये मेरे नसीबो का सितम है और कुछ नहीं 'श्लोक'
वरना तू ही क्यूँ आखिर मेरे किस्मत में नहीं !!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! दिल में हो तुम और तुमसे कई गिला !!

कितना है शोर-ओ-गुल हसीं ये काफिला भी है
दिल में हो तुम ही और तुमसे कई गिला भी है

हो कितने दूर फिर भी कितने पास रहते हो
शायद ! इसी में 'श्लोक' आशिकी का मज़ा भी है

है लव्ज़ भी नहीं मगर कहने को तमाम बातें है
मेरी खामोशियो ने तेरे धड़कनो को छुआ भी है

लाख दावा करो की तुम मेरे नहीं हो सकते
हर सज़दे में मुझे पा लेने की फिर दुआ भी है

बेताबियो ने हलचल मचा रखी है तुझमे भी
दोनों और उठा बेक़राररियो का धुँआ भी है  

मैं सामने आती हूँ तो तू खुद को भूल जाता है
दीवानगी इस कदर तो तुझमे अब रवा भी है

वो जो ज़रूरी है मोहोब्बत के लिए दो लोगो में
तुझमे-मुझमे चल रहा वही सिलासिला भी है

किस जिंदगी की बात किया करते हो मुझसे
बता! मेरे बिना क्या तू इक लम्हा जिया भी है

होता अगर मुमकिन तेरे बगैर ही जी लेते 
मगर साँसों का तागा जाने क्यों? तुझसे ही जुड़ा भी है


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, May 26, 2014

"घन बरसेगा"

अब घन बरसेगा
सारी प्यास धरा की बुझा देगा....
अब के सावन
हरिया चुनर लाकर उढ़ा देगा...

कलियाँ खिली-खिली महक उठेंगी
चिड़िया-चिरंगुल चहक उठेंगी
पेंड-पात सब जाग उठेंगे
मोर बागो में नाच उठेंगे


जब घन छाएंगे
काले रंगो संग आयेगे
बिजलियाँ चमकाएंगे

हर किसान के मन में आस उठेगी
पात-पेंड़ो से आवाज़ उठेगी
हवाओ से झंकार उठेगी
हर मन से पुकार उठेगी

अबके जब घन बरसेगा
सारी प्यास धरा की बुझा देगा !!!


रचनाकार: परी ऍम श्लोक

!!कुछ भी नहीं!!

की मुश्किल जिंदगी होती है
मौत जैसा आसान तो कुछ भी नहीं...

मुश्किल होती है मोहोब्बत दोस्तों
नफरत से ज्यादा आसान कुछ भी नहीं....

किसी का हो जाना ही तो बड़ी बात है
पा लेने जैसा आसान तो कुछ भी नहीं....

किसी को अपनाना मुश्किल है बहुत
ठुकराने से ज्यादा आसान तो कुछ भी नहीं....


Written By : Pari M. "Shlok"

!! गम.........!!

छटाक भर आंसुओ में डूबने का गम
कभी उस प्यारे सितारे के टूटने का गम...

खुद ही पानी में कागज़ की कश्तियाँ उतारना
फिर महसूस करना उसके डूबने का गम..

कभी पा लेना कुछ औकात से ज्यादा
कभी सब्र से भी ज्यादा खो देने का गम..

जला तो लूँ मैं आंधियो में भी दिया 'श्लोक'  
मगर फिर साथ अंधेरो का छूटने का गम...

जाकर उतर जाऊं मैं बलखाती लहरो पे
मगर फिर पत्थरो से टकराकर लौटने का गम...

कबूल कर लूँ जो गुलाब तेरे हाथो में हैं
मगर फिर वक़्त की लू में इसके सूखने का गम...

किसी पर यकीन कर लूँ कभी दिल कहता है मुझसे 
मगर फिर इस ऐतबार के टूटने का  का गम...

सोचती हूँ इसी मंज़िल पे आशियाँ बना लूँ
मगर फिर इक जैसे ही मंज़र में घुटने का गम...

लगती है मोहोब्बत तो मुझको भी अच्छी
मगर फिर हर इम्तिहान से जूझने का गम...


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक' 

टूटे तो फिर ??


नए रंगो से रंगे मेरे स्वप्न
संभाले रखूं या फिर निकाल लू बाहर
इन्हे हकीकत कि दिशाओ में ले चलूँ
कदम बढ़ाती हूँ
फिर पीछे आ जाती हूँ
क्यूंकि आसान नहीं इतना
इनके मुकम्मल होने कि ख्वाइश
ये वो सपने हैं
जो कीमती है मुझे
और अज़ीज़ भी है
डरती हूँ इन्हे खोने से भी
और
चाहती हूँ कि ये पूरा भी हो जाए
फिर पलट जाती हूँ अपनी ही कोशिशो से
रात भर बुनते हुए सपने
सुबह उठते ही लपेट कर
रख देती हूँ दिल के महफूज़ कोने में
या यूँ कहो
पीड़ा में विलाप नहीं करने का
साहस तनिक भी अब नहीं है मुझमे

फिर सोचने लगती हूँ ...
रहने दूँ इन्हे ऐसे ही
कल्पनाओ के आवरण में
बड़े नाज़ुक हैं कहीं टूटे तो फिर ??


रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"


Sunday, May 25, 2014

लहर या सुनामी "मोदी" कि आगमानी.....

आपके हाथ में लेलो देश कि कमान
बुन्दलियो तक लेकर चलो अब अपना हिन्दुस्तान....

मरे न कोई गरीब भूख और बिमारी से
बरकतों में नवाज़ दो यहाँ का हर इंसान....

महसूस करे हर बेटी महफूज़ खुद को
कानून में डालने होंगे कई नए प्रावधान....

भ्रष्टता दे न सके दस्तक किसी भी विभाग में
ईमानदारी बन जाए हर शक्स का ईमान....

कोई करे न घुसपैठ मुल्क के किसी भी सरहद से
दोस्ती का जला दो हर इक दिल में मशाल ....

खदेड़ दो हादसों को चौकन्नी यूँ लगवा दो
मिट जाए खून पीता बजकता ये आतंगवाद...

बेरोज़गारी से न कोई काबिल बेहाल हो
हर हाथ में देनी होगी तरक्की कि कमान....

हमने निभाया अपना फ़र्ज़ अब सिंहासन है आपका
डाल दो मुल्क कि आब-ओ-हवा में इक नई जान ....

जिन सेनानियों कि बदौलत ये आज़ादियाँ मिली
आज के दिन इक बार फिर से ....
शहीद, जवान, सैनिको को 'परी ऍम श्लोक' का कोटि-कोटि प्रणाम !!!


Written By : Pari M. "Shlok"

("नरेंदर मोदी" जी को स्नेह और पूरी उम्मीद के साथ समर्पित यह लेख.... )

दास्तान....!!

खामोश थी कोई कुछ भी उगलता चला गया
वो क्या झुकी? ये हुजूम तनता चला गया

अच्छा-बुरा क्या है? किसी को मालूम तक नहीं
उसकी खताओं के लिए सब देवता बनता चला गया

गरीबी देख कर अपने घर से रोटी को क्या निकली
ज़मीर उसका कई इल्जामो में सनता चला गया

जिसके लिए थी आबरू जिंदगी की अहम् डोर
चाहत की आरज़ू में सबकुछ छिनता चला गया

हर किसी की उंगली में तलवार जुबा पे रंज था
हर सवाल उसके सब्र को खनता चला गया

देखा था अक्सर उसके चहरे पे नूर गज़ब का 
उसने जख्म दिखाएँ मैं दर्द से गलता चला गया

कितने शिकवे कैद थे उसके लबो की लालिओ में
उसने जुबां खोली मैं सदमे में सब सुनता चला गया

पत्थर सा रह गया था कोमल जो उसका दिल था
उसके शबनम का हर कतरा सैलाब बनता चला

मैं सोच में पड़ गया कि क्या करूँ मेरे मौला
कहाँ फरिश्ता था मैं
उसकी पीठ थपथपा के मैं भी उठकर चलता चला गया

ये मेरी हार थी जीत थी या थी कोई कमज़ोरी
उसके करीब होकर भी उससे दूर मैं निकलता चला गया !!!   

 
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, May 24, 2014

!! मासूमियत से तजुर्बे तक....!!


मिलता नहीं मुझको कहीं पर मेरा वो अक्स
शायद! वक़्त की गलियो में कहीं खो गया होगा

मेरा तस्सवुर भटकता है जिसकी तलाश में आज भी
वो वज़ूद कोई खामोश अफ़साना हो गया होगा

हाँ! तड़पा बहुत होगा मुझे न पाकर अपने पास
फिर उम्र के छाँवों में जाकर सो गया होगा

चलता हुआ थका होगा...ठोकर भी लगी होगी
फिर हालातो की हवाओ के संग हो गया होगा

सपने टूटे होंगे वो जो...बेहद अज़ीज़ होंगे
कोई दिल में शूल हज़ारो चुभो गया होगा

बरसा होगा फूट कर तन्हाईयों में रात-दिन
तमन्नाओ की कश्तियों को कोई डुबो गया होगा

सोचती हूँ की.....
बहुत तजुर्बा कमा लिया होगा उसने आज तक
वो कमज़ोर तना कितना मज़बूत हो गया होगा !!

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Friday, May 23, 2014

इस शहर में हसने के कई आसार मिलेंगे

इस शहर में हसने के कई आसार मिलेंगे
हम न मिलेंगे न हमारे दीदार मिलेंगे

खाली मिलेगा तुझको आँगन और घर तेरा
बेरंग तुझे हर दर-ओ-दीवार मिलेंगे

चाह कर भी तुम हमें आवाज़ न लगाना
वरना चेहरा ओढ़ कर कई अदाकार मिलेंगे

तलाशोगे कहाँ पर मेरी चाहत के चमन को तुम
जब भी मिलेंगे कांटे बेशुमार मिलेंगे

नहीं मिलेगी तो बस तेरी तबियत फिर किसी से
यूँ तो इस भीड़ के हाथो में कई हथियार मिलेंगे 

बैठोगे जब तनहा तुम गुमनाम अंधेरो में
ख्यालो में मेरी यादो के झंकार मिलेंगे

कहाँ से लाओगे तुम सकून मेरे आँचल सा
जब बेताबियो के साये हदो के पार मिलेंगे


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'



 

टूट के बिखरा वो सितारा तो क्या हुआ ?

टूट के बिखरा वो सितारा तो क्या हुआ ?
आज लबो पे नाम न आया हमारा तो क्या हुआ ?

टहलते हुए पहुंचोगे जिस दिन दिल-ए-शहर में
मांगोगे साथ हमारा जब पाओगे खुदको हारा हुआ

इस बात पे दम हमने भरना ही छोड़ दिया
किसी को हम अज़ीज़ नहीं...कोई नहीं हमारा तो क्या हुआ

तकलीफ को ये कहके धूल सा उड़ा दिया
मेरे जस्बातो में हैं आज भी हज़ार गुल खिला हुआ

इस राह में इक हम ही तो तनहा नहीं फिरते 
हमसे जैसे ही फिरते हैं कई बेसहारा तो क्या हुआ ?


ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक'

Thursday, May 22, 2014

"बेरोजगारी जैसे महामारी"

कमबख्त नौकरियों की मारा-मारी है
पर क्या करें ?
अधिकारियों को Reference कि जो बिमारी है...


Reference  मिला तो उल्लू भी घोड़ा
वरना पढ़ा लिखा भी अनाड़ी है .....

सबने तो कह दिया अब कहने कि मेरी बारी है
सुन सको तो सुन लो यारो
वरना Ignore का option जारी है.....

इसे मुँह मोड़ें कैसे ये फैली जैसे महामारी है
जिसने काबिल इंसान के जीवन में ला डाली लाचारी है ...

बेकाबिल बना फिरता है शाह आजकल
हुनर जिनमें है वो बन गया भिखारी है....

किसी ने कर लिया suiscide इस गम में
तो किसी ने डिग्री तक जला डाली है.....

इस देश के हर सेक्टर में भी उर्फ़ कितनी भ्रष्टाचारी है
जो जितने अच्छे ओंदे पे है उतना बड़ा अत्याचारी है ...

हर जगह पर no  vacancy boss
कितनी ज्यादा बेरोजगारी है
इसी बात पे फ़िल्मी डाइलोग
तेरे पास माँ है तो क्या हुआ ?
मेरे पास नौकरी है घर है और गाड़ी है.....

अपना तजुर्बा जो बोला वो बात तो सब कह डाली है
ये सच भी न कितना कड़वा और कितना ज्यादा भारी है !!



Written By : Pari M. 'Shlok'

Note : (ये पंक्तियाँ मैंने वर्ष २०१२ में लिखी थी कुछ addition के बाद आपके सामने प्रस्तुत कर रहीं हूँ )

@ कुछ पंक्तियाँ शुरूआती दौर की जब मैं परवीन मौर्या के नाम से लिखती थी @


एक सदमा है जो आ लगा है सीने में
एक कहानी है जो मुझसे बयां नही होती
तू वो दर्दी-हकीकत है जिसे छिपाया करती हूँ मुस्कुराहटों के तले
वो तेरी याद है जो मुझसे जुदा नहीं होती
मैंने सुना था इश्क़ इबादत है कोई सज़ा नही होती
भूल गयी थी की दिल के टूटने पे भी आवाज़ नही होती (1)


 आज भी तेरे नाम से उम्मीद जवां होती है
मेरी रातें तेरी यादो पे फ़ना होती हैं
तू दिल में हैं पर लकीरो में नहीं कहीं
क्या किस्मत इसकदर भी बेवफा होती है (2)

तुझे देखूं तेरा दीदार करूँ
तुझे सोचूं तुझे मैं प्यार करूँ
दिल की दीवारो पे लिखूं तेरा नाम
अपनी धड़कनो पे एक एहसान करूँ
खुशियाँ बटोर लाऊँ पूरी कायनात से
गम के परिंदो को चंद लम्हों का मेहमान करूँ (3)


मुझसे इज़्ज़ज़त मांगी थी खुशियो ने
मेरे आँगन में आशियाँ बनाने की
फिर हमने भी हामी भरके इक एहसान कर दिया (4)




(ग़ज़ल..)
सूरज से आँख मिलाने का दिल करता है
कभी चाँद पर चले जाने का दिल करता है
ज़मीं की रौनके देख कभी दिल इसका तलबगार होता है
कभी पंख लगा आसमां में उड़ जाने का दिल करता है
आँख से आंसू चल देते हैं सफर पे तो उल्फत
कभी बेपनाह खुशियो में झूम जाने का दिल करता है
सवेरो के साथ चलने का मंज़िल तक
कभी शाम बन रात में ढल जाने का दिल करता है
नफरत की आग में झुलस के राख हो जातें हैं
कभी प्यार की बारिश में भीग जाने का दिल करता है
कभी अंबानी सवालो के सवालो से सवाल करती हूँ
कभी जिंदगी की पहेलिओ को सुलझाने का दिल करता है
अब ये जान लो की हसरते आगे निकल गयी हैं
क्या थी, क्या हूँ सब भूल तेरे आग़ोश में सिमट जाने का दिल करता है (5)




आई हैं बहारे कि मुद्दतो हुई
अब मुरझाई जिंदगी के गुलिस्तां महकेंगे (6)


बोलो ! क्या हो अगर आ जाए यादो में खटास
मर जाए रंग रूप उड़ जाए मिठास ?  (7)


शीतल लहर परदेस क्या गयी
चाँद ने कोहरो का घूँघट कर लिया (Sardi ki ek chandani raat me) (8)



दिल की वीरानियों में भी साया जिसका मौजूद रक्खा
वो तुम हो जो मुझे मुकम्मल करने आये हो   (9)


अपराध तये करते हैं सज़ा के नुमाइंदे
मेरे मुल्क का कानून सबूतो कि बैसाखियों पे चलता है
जुर्म कि चिंगारियों को रोकने का बूता नहीं इनमे
आग बुझाने चलते हैं जब सारा शहर जलता है (10)


वही बातें वही लहज़ा वही चाहत वही अदा
तुम वही हो जिसे बरसो मैंने अपनी सोच से बनाया है (11)





ये धुप छाँव सी जिंदगी
उजड़े गाँव सी जिंदगी
लड़खड़ाते पाँव सी जिंदगी
बिन वजहों की जिंदगी
कल्पनाओ की जिंदगी
अब मुकम्मल होने लगी है
मेरी तमन्नाओ की जिंदगी (12)


ए हसरतो अब तुम लौट जाओ
जहाँ पूरी हो सको उस जहान में
बिन मंज़िल का अँधेरा रास्ता हूँ मैं
मेरे साथ चलोगी तो भटक जाओगी (13)


कुछ दिल को ज्यादा भाये तो बचा के रखना
अक्सर ऐसे अज़ीज़ो को ज़माने की नज़र लूट जाती है (14)


मेरे ज़स्बातो को छूकर सारे अरमान जगा देते हो
तुम जब भी मिलते हो जीने की वजह देते हो (15)


मुश्किलात ज़स्बातो ने कुछ इसकदर पैदा किया
हमने तुझे पाने की आरज़ू में दिल का सौदा किया !! (16)


परी ऍम 'श्लोक'
 

ख्वाबो के टुकड़ो में तुझको ढूढ़ता रहा

ख्वाबो के टुकड़ो में तुझको ढूढ़ता रहा
अक्स जो धुंधला था उसे चूमता रहा

जाने क्या मिलाया था तूने हवाओ में
महक तेरी समेट कर मैं झूमता रहा

चाह तो थी तेरी मगर राह मालूम न थी
शहर भर में तेरी तस्वीर लिए घूमता रहा


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, May 21, 2014

सफ़र ....... !!


हर बार मेरा सब्र आजमाने को आया

हर बार मेरा सब्र आजमाने को आया
जख्म नासूर फिर से दुखाने को आया

हँसता हुआ चेहरा उसे अच्छा नहीं लगा
शबनम के कतरे पलकों पे सजाने को आया

मंज़िल गश्त खाकर रास्तो में भटक गयी
वो ढेर मेरे हसरतो की जलाने को आया

उसके बिना नहीं होता मुकम्मल मेरा वज़ूद
ये खामी मेरे ज़ात की जताने को आया

उसे आरज़ू भी मेरी वो मेरा हो भी नहीं सकता
यही पैगाम मुझे पढ़ कर सुनाने को आया

नजाने किस बात का गुरुर रखता है वो पागल
मुझे हार कर भी वो जीता है बताने को आया


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, May 20, 2014

ग्वाचा हूँ मैं कहीं ख्वाबो के दरीचों में

ग्वाचा हूँ मैं कहीं ख्वाबो के दरीचों में
अपना पता रात के धुंदलके से पूछता हूँ

अज़ब चाह है मुझको बताएंगे तो हसोगे
मैं मौत के शहर में जिंदगी को ढूंढता हूँ

सबसे जीत कर भी दिल से हार जाता हूँ
अपने इसी खामी से मैं हर रोज जूझता हूँ

आ जाता है सुस्ताने मेरे ख़्यालो के छाँव में
वो याद जिसको वक़्त के गीले कपड़े से पोछता हूँ 

तुमसे कहूँगा तो तुम भी ताना कसोगे मुझपे
छिपा के कहीं पे रख लू अपना हाल सोचता हूँ



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, May 19, 2014

!!कहीं कोने में कभी!!

कोई कह न दे लव्ज़ों पे विराम रखूं
जस्बात कहूँ या इसको बेजुबान रखूं ?

परिंदा जो तड़प रहा है दिल के पिंजरे में
इसे आसमा दे दूँ या फिर लगाम रखूं ?

कभी सोचती हूँ कि तुझसे भी बगावत करलूं
फिर ख्याल आता है कि पास पूरा जहान रखूं

जब परेशां करती है मुझे हालत गैरो कि
तब सोचती हूँ किस कोने में ये इत्मीनान रखूं ?

वो मेरा ज़मीर है जो मुझे सोने नहीं देता
वरना कौन चाहता है तकलीफ तमाम रखूं ?

जो मेरा है मुझे लौटा दे जो तेरा है उसे लेजा
अपनी आदत नही सेत में कोई सामान रखूं

जो लिखा था तुझे सुनाने को वो कह रही हूँ 'श्लोक'
क्यूँ कागजो में समेट कर मैं कोई पैगाम रखूं

हमने जीना शान से सीखा है मरने का गम नही
फिर अपनी जिंदगी में तेरा नाम क्यूँ गुमनाम रखूं ?

ये आंसू हैं कि बोतल में समा कर भी ज्यादा है
मै-कशी में इससे कीमती कौन सा जाम रखूं ?


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

अब बस.....!!


इन्तेज़ा......!!


Monday, May 12, 2014

"थोड़ा संभल के... "


"चेहरे के पीछे का सच"

तुम क्या कह रहे थे मुझसे
उस बंद कमरे कि चारदीवारी में
मेरे कानो में आकर
वो जो तुम कहना चाहते थे
या वो जो मैं सुनना चाहती थी
तुम मेरे हालातो का जायज़ा ले
उसका लाभ उठाने कि कोशिश कर रहे थे
या वास्तविकता थी उसमे
जो तुम मेरे सामने प्रस्तुत कर रहे थे

ये नकाब के ऊपर का चेहरा है
या सच में तुम ऐसे ही हो
मुझमे ऐतबार करने का ताब नहीं
क्यूंकि समय ने मुझे
हैरतो में डाला है अक्सर

देखो ! मैं सावधान हूँ
मैंने देखें हैं आंधियो में सपनो के घर ढहते
बहुत बरसे हैं घन आँखों से
परन्तु अब नही
किसी भी भावना को हवा देने से पहले
मुझे तफ्तीश करने दो

तुम्हारे शब्द स्नेह से ओत-प्रोत हैं
या
किसी फायदे कि चेष्टा ने
तुम्हारे व्यवहार को
इतना नेक और अच्छा बना दिया है !!!

रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, May 11, 2014

"अब असंभव है"


तुम्हारे लबो से
टपकते प्रेम रस
मुझे किसी षड्यंत्र का
आभास करवाते हैं....

हाँ !
ये सही है कि
जागती हैं भावनाये मुझमे
लेकिन हमने इन भावनाओ को
आँखे सौप दी हैं

इनसे कुछ भी छिप पाना
अब मुमकिन नही है...

देखो हम नीम है
तीत हैं....
और शहद कितना भी डालो
मुझे मीठा कर पाना
सम्भवता अब असंभव है !!


रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, May 7, 2014

"दर्द........!!"

आज मुझे दर्द हुआ 
वो दर्द था
मगर दर्द से ज्यादा था
जो मैंने महसूस किया
वो सहने कि क्षमता के पार था
इस दर्द से आंसू निकले थे
अहसास हुआ था
रेंगता हुआ मेरे गालो पर नम सा कुछ
वो आंसू थे या नही भी
कैसे बताऊँ मैं ?
क्यूंकि सच में मैंने देखा नहीं
शायद हो सकता है !
वो दर्द से झुलस गए हों 
या फिर आहो में दफ्न हो गए हों
मैंने तुम्हे कहना चाहा
दर्द कि दास्तान
मगर तुमने फिर
दुखती नस पे हाथ फेरा 
अब ये दर्द जो ज्यादा था
हद से ज्यादा बढ़ गया
दर्द में मैं डूब रही थी
सहारा भी मुझे खुद को देना था
दर्द मुझे मारना चाहता था
लेकिन मुझमे कुछ आरज़ू थी जीने कि
मैंने दर्द कि साँसों में
ख़ुशी कि साँस भर दी
दर्द को जीना सिखाया
आज वो दर्द मुस्कुराता है
ख़ुशी में बदल गया है वो अब
और मैं अब टीस को छिपाए
गुनगुना रही हूँ गीत जिंदगी का !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Monday, May 5, 2014

"हद से ज्यादा खफा हूँ मैं...."


खफा हूँ मैं
उस खुदा से जिसने मुझे औरत बना कर
धरती के इस नरक में उठा कर फेंक दिया
खफा हूँ मैं
अपनी माँ से भी आज
कि उसने मुझे जनम देते ही मारा क्यूँ नही
और क्यूंकि इतने नाज़ से पाला मुझे
ये कीड़े लगे पुरुष समाज की सोच को
हर दिन झेलने के लिए
खफा हूँ
मैं उन लोगो से
जो तमाशा देखते हैं एक औरत के अपमान का
सिर्फ दार्शनिक बनकर
और मूक रह जाते हैं विरोध के नाम पर
खफा हूँ मैं
उन खाकी वर्दी पहने जिम्मेदार अफसरों से
जिसका दायित्व रिश्वत खाना है
लेकिन अपनी जिम्मेदारी को निभाना नहीं
खफा हूँ मैं
उन औरतो से भी
जिनके झुकने की वजह से
आज मुझे भी झुकना पड़ रहा है
और अगर मैं झुकी तो इसका हर्जाना
आगे सबको भरना पड़ेगा
खफा हूँ मैं
ऐसी मानसिकता से
जिनकी आँखों में औरत के नाम पे सिर्फ शरीर दौड़ता है
उससे बस पा लेने की चाहत दौड़ती हैं
खफा हूँ मैं
अपने आप से
कि मेरी बाजुओ में उतनी ताकत
और मन में वो उबाल क्यूँ नहीं जैसा पुरुष में होता है
क्यूँ नहीं है मन कठोर मेरा
क्यूँ बह जाती हूँ मैं भावनाओ में अक्सर
खफा हूँ मैं
उन गलियो से
जहाँ से गुजरते हुए मुझे
छेड़-छाड़..फब्तियों.अश्लीश हरकतों का
सामना करना पड़ता हैं
उन जुबान से जो अभद्र भाषा कसते हैं
आय दिन मेरे वज़ूद पे
खफा हूँ मैं
मर्दो की घिनौनी मंशा से
जो अपराध को जन्म देते हैं
जो औरत की नाकार सुनते ही
तेज़ाब डाल कर उसके जीवन को झुलसा देते हैं
खफा हूँ मैं
इस सच से
जो मेरे दिमाक के परदे को फाड़ देते हैं
कि औरत सिर्फ और सिर्फ इक साधन है..भोग का साधन
इसके अलावा उसका दूसरा अस्तित्व नहीं हैं
हाँ !  हाँ ! हाँ !
खफा हूँ मैं इस देश से....
यहाँ की कानून प्रणाली से...
यहाँ की आब-ओ-हवा से...अपने अस्तित्व से .....
आज बेपनाह...बेहद..हद से ज्यादा खफा हूँ मैं..... !!!!!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"कह लेने दो जस्बात मुझे"

हाँ! वो तुम ही हो
जिसकी जुस्तजू मैंने
बरसो बंद कमरे में पाली थी 
जिसके लिए बटोर के रक्खे थे
तमाम जस्बात अपने
यही सोच के आगे बढ़ी थी मैं
कदम-दर-कदम....
तुम्हारे साथ इम्तिहां कि
हर गली से गुजरी थी मैं
कि बस वो तुम ही हो...
 
तुम्हारे चहरे कि
चमक ने खींच लिया था मुझे
या फिर तुम्हारी कशिश से भरी
रेशमी बातो ने
उलझा लिया था मुझे
बहला कर बिठा लिया था
फिर यूँ खाइशो ने कहा कि
तुम्हे देखती रहूँ  
तुम्हे ही सुनती रहूँ मैं.. अक्सर

फ़क़त
"इसकदर तुम्हारा जादू मेरे नशेमन पे छा गया था
जिस तरफ नज़र फेरी बस तुम्हारा साया था"

जब तुम
मेरे दिल के चबूतरे पर आकर बैठे
तब बेसुध धड़कनो ने अचानक
हिलना-डुलना शुरू कर दिया था
तुम्हारी गर्म साँसों कि हवा ने
बरसो से सूखे
हसरतो के गुल खिला दिए थे
तुम्हारे सहारे ने मुझे उठा दिया
आसमान की बुलंदियों तक
तुमसे मिलकर मैंने जाना
वो इक बात
जो तुम्हे कह देने का मन है आज
सच.....
तुम्हारे बिना मैं महरूम रह जाती
अपने आप से...अपने ख्वाब से...
उस एहसास से....जिसे अगर तुम
मेरी जिंदगी में सिन्दूर की तरह
रंग न बिखेरते तो
ये तस्वीर...........शायद !
 कभी पूरी नहीं होती !!


रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'
 

Sunday, May 4, 2014

"तुम्हे लेना है तो ले जाओ"

नहीं..मुझे तुम्हारी सांत्वना नहीं चाहिए
इसलिए बेहतर होगा कि तुम
मुझे ये भेट न दो
अगर हो सकता है तो
मुझे अकेले बसर करने दो
आजीवन न मिटने वाली
सुन्दर यादो के साथ
जिसमे थोड़ा अपनापन है

हाँ !
परन्तु तुम्हारी वास्तविक उपस्थिति
अब नहीं चाहिए
मेरी रूह में जो पीड़ा का जहर तुमने भरा है
वो रह रह कर उठता है
लेकिन तुम्हे ये जाताना भी नहीं चाहती
क्यूंकि तुम्हारे पास
इसका कोई तोड़ नहीं
केवल समस्याएं हैं

सुनो !
तुम कभी ख्वाब में भी आकर
मेरे उस मोहोब्बत को छूने कि
कोशिश मत करना जो मैंने तुमसे कि 
वरना ख़ाक हो जाओगे..

कोशिश करुँगी मैं और इबादत भी
कि जल्दी वक़्त कि गर्द जमा दे
उन भावनाओ पे जो सीझ जाती हैं
अक्सर तुम्हारा ख्याल आने पर
तुम्हारे सामने आने पर,,तुम्हे सुनने पर
और फिर मुझे मेरी ही आत्म-गुमान का
हत्यारा बना कर रख देती हैं

और अगर
तुम्हे लेना है तो ले जाओ सर्वस्व
जो मुझे डंक मारती हैं
खासा तौर पर ये जिंदगी
जिसकी हर स्वाश मैंने
तुम्हारे वज़ूद के धागे में पिरो दिए हैं
बिना जाने...बिना सोचे...बिना समझे!! 


रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'  

"अपनी सीमा में रहो"

तुम्हारी हर बात
आत्मा को छल्ली करने वाली है
तुम्हारा अत्याचार
मेरी ख्वाइशों का क़त्ल करता है
और निशां छोड़ता जा रहा है
जहन में हीनता का , घृणा का
फिलहाल
मैं इसे सब्र के
गोदाम में रख रही हूँ
परन्तु
ये तो मुझे भी नहीं मालूम
कि जब ये गोदाम भरेगा
तो क्या होगा ??

तुम अपनी कटुता
हर दिन बढ़ाते ही जा रहे हो
हिंसा ढ़ाते ही जा रहे हो
परन्तु जब ये पीड़ा
असहनीय हो जायेगी
तब क्या होगा ?
ये मैं भी नहीं जानती..

हाँ! परन्तु तुम्हे
चेतावनी अवश्य देना चाहती हूँ
अपनी सीमा में रहो
मेरे सीने पर
अपनी ज्यातिति का महल
मत बनाते जाओ
मेरे ज़स्बातो कि
भुरभुराती रेत को खनते मत जाओ
इतना दाब मत बढ़ाओ
वरना यदि ये समंदर अपना फ़न उठाएगा
तो तू इस सुनामी से बच नहीं पायेगा

मुझे नहीं पता
कहना भी मुश्किल है
कि तब तुम्हारा क्या हश्र होगा?
इसलिए कहे देती हूँ पहले ही
अपनी हदें पार मत करो

अपनी सीमा में रहो !!!

रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'

(Note : घरेलु हिंसा कि खिलाफत करती हुई मेरी यह रचना )

Saturday, May 3, 2014

"अनपढ़ चित्रकार हूँ"

इस चित्र को
सही रूप देने से पहले
इसकी रचना के दौरान
कई बार गलत लकीरे
खींची है मैंने भी 
और फिर उन
टेडी-मेडी लकीरो को
कई बार मिटाकर
मैंने सीधा भी किया
तो कहीं अब जाकर
सही आकृति बना पाने में
सफल हो पायी हूँ
क्या करती ?
अनपढ़ चित्रकार जो थी
इस कला कि विद्या तो
मैंने ली ही नहीं...
फिर भी खैर मानो... 
क्यूंकि चित्रकार मैं थी
यदि कोई और होता
तो उसे मेरी तीखी आलोचना का
सामना करना पड़ता उसे
लेकिन अब
ऐतिहायत बरतनी है मुझे
क्यूंकि इसमें भरा हुआ रंग ही
इस आकृति को सुरूप बनाएगा 
इसमें रंगो का चुनाव
यदि गलत हुआ तो
फिर से इसपे दूसरा रंग
नहीं चढ़ाया जा सकता
मुझे बहुत सूझ-बुझ से
इन सुन्दर रंगो को
वाजिब जगह देनी है
ताकि अपने जीवन कि आकृति मैं
आकर्षित और सुन्दर बना सकूँ!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Friday, May 2, 2014

"मेरे अस्तित्व कि पीड़ा"


इस बात पर हलचल
मेरे मन के धरातल पर
अक्सर होती रहती है कि
क्यूँ भद्दी नज़र का भुकंप
मेरे जीवन कि खुशियो को
खंडर करता जा रहा है ?
क्यूँ ये हैवानियत
मेरे अस्मिता के लिए
श्राप बन गयी है ?
क्यूँ कई तह कपड़ो के बाद भी
जिस्म को पार कर जाता है
घृणित भावना का कुरूप आदमी ?
क्यूँ मेरे मान को
जिन्दा रखने कि कोशिश
डर बनके दीमक सा
मेरी आज़ादियो को
चाटता जा रहा है ?
जिसकी पीड़ा ने मेरी मुस्कान पर
उदासी का बादल छा दिया है....
क्यूँ फब्तियां गाली बनके
मेरे गुमान को खनता जा रहा है?
क्यूँ साथ-साथ चलते हुए भी
ये फासला बढ़ता जा रहा है ?
मेरे पैदा होने के गम में
माँ कि आँख में
अश्को का सैलाब देखा था मैंने
जो मेरे रूह पर
तेज़ाब कि तरह पड़ी थी
आज उन्हें ख्याल खाये जा है
कि मुझे खुटियाने के लिए
सस्ती ज़मीन कहाँ है
क्यूंकि आज बेटो के बाप
ज़मींदार बन गए हैं
सच ! मेरा हुनर मेरे लिए ही
सिकुड़ के रह जाता है
सब सहकर भी
किसी को व्यथा सुनाने पर
उनकी तालीम मिलती है
कि औरत को सहना पड़ता है
क्यूँ मेरे वज़ूद के पेड़ पर लगे
सपनो के फल को
हर रिश्ता ढीला मार के तोड़ता है ?
क्या असल में ये इक ऐसा गुनाह है
जिसकी सज़ा दिन-बा-दिन
बढ़ती ही चली जाती है ?
वो कोई इक दिन भी तो नहीं
जिस दिन मेरे अस्तित्व को
रौंदा जाया जा रहा हो
कहाँ अछूता है इससे आखिर
महिला दिवस का जश्न भी ?
क्या कहूँ इसे ?
पुरुष प्रधान सोच का आइना
या फिर ये सड़ती हुई
मानसिकता कि बदबू है
जिसमे मेरा दम हर वक़्त
चाहते हुए भी घुटता रहता है !!

 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

अगर तुम न होते तो........!!

कभी कभी मैं सोचती हूँ
अगर तुम न होते तो
कितनी महरूम होती मैं
जिंदगी के सजावटी आँचल तले
सादगी भरे सुन्दर रूप से
तुम बिन शायद मैं ऐसे होती
जैसे तमाम दौलत के बावजूद
जूझ रहा हो कोई इन्सां बिमारी से
जैसे सोना कोयले कि खान में पड़ा
अपने अस्तित्व के लिए बिलख रहा हो
जैसे ब्लैक-इन-वाइट दीवारे
सूरज कि रोशनी को तरस रही हों
लेकिन
अब अक्सर लगता है
सब कुछ बेपनाह खूबसूरत मुझे
न मुमकिन भी मुमकिन सा
हसीन होता जा रहा है हर मंज़र
बारिश कि बूंदे में मिठास
काले बादलो के बीच चमकती
वो बिजली जब भी गरजती है
मुझे तुम्हारे ओर करीब धकेल जाती है
हवाएं रागिनी गाती हुई लगती हैं
जब-जब मेरे पास से गुजरती हैं
तुम्हारे आने से पहले
सब कुछ सामान्य था
अब सब कुछ नवीन और सुन्दर है
कभी कभी तो ये भय भी सताता है
कहीं मैं कोई सपना तो नहीं बुन रही
आँख खोलूं तो ओझल हो जाए
फिर जब मैं एहसास करती हूँ
मेरी उंगलियो को तुम्हारी उंगलियो के बीच
तुम्हारी निगाहो की पुतलियो में अपना चेहरा
तुम्हारे शब्दों...विचारो में सिर्फ अपना तरुफ
तुम्हारे नाम के धागे में खुद को मोतियों सा गुथा
तब लगता है कि मैं इस ज़मी की नहीं
शायद जन्नत में आ बसी हूँ
जहाँ सिर्फ इक फ़रिश्ता है
और वो सिर्फ और सिर्फ मेरा है
तुम्हारे लिए इसकदर खास होना
मुझे अजब से गुमान में डाल देता है
जिस गुमान के परदे कि चमक
तुम्हारे रहते हुए
कभी कोई नहीं छीन सकता !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, May 1, 2014

!! मुझे नया अफ़साना लिखना है !!

आज डरती हूँ मैं इस चाँद से भी
रोशनी झाड़ कर अँधेरा बटोरती हूँ

जिसने मुझे न जीने दिया न मरने
आज मैं वो सारी कसमे तोड़ती हूँ

तू आये न या ना आये अब फर्क नहीं
तुझसे उलझी उम्मीद छोड़ती हूँ 

जा तुझको मुबारक ये तेरा सकून
मैं अपनी तरफ तन्हाईयाँ मोड़ती हूँ

लेकिन.....
ये मैं वादा नहीं करती तुमसे
कि तुम्हे भूल पाउंगी मैं कभी
यक़ीनन खिलौने याद के
तोड़ के फेंक दूंगी मैं कहीं

ये बच्चा जब दिल का रोयेगा
आंसुओ से इसे बहला दूंगी
मगर...
तेरी ओर लौटने की आरज़ू
अब पैदा न होगी मुझमे कभी

ऐसा नहीं की मुझे दर्द नहीं
मगर ये भी क्या बिगाड़ेगा
जिंदगी मुझे कब है प्यारी
जो अब ये टीस मुझको मारेगा

चलो...
अब ये पन्ना मैं पलटती हूँ
मुझे नया अफ़साना लिखना है
न हो रुबाइयों में जिक्र तेरा
मुझे हर हर्फ़ ऐसा चुनना है !!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

!! जिंदगी मेरे पहलु में !!


फिर ये शाम ढलने को आई है
तन्हाई फिर पलने को आई हैं

इन पन्नो की तकदीर अजीब है
मेरे अश्को से गलने को आई हैं

ये अँधेरा तो साय-साय करता है
बात बनी हुई बिगड़ने को आई है

मैं खुद ही लड़खड़ा की गिरी हूँ 
और जिंदगी है की
मेरे पहलु में संवरने को आई है!!



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

"तुम बिन..... मैं क्या ??"



तुम नहीं समझे पाये
आज तक मेरी कश्मकश
और शायद कभी समझ भी न पाओ
तुमपे सवार है तुम्हारे वसूलो का नशा
और मुझपर सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा

मगर तुम हो की

मेरे उज्जवल नेक प्यार का अस्तित्व
अतीत के काले कोयले से
जड़ते ही चले जा रहे हो
और मैं तुम्हारी खूबियों को सर्वपरी रख
भूलती जा रही हूँ हर ज्यातीति तुम्हारी
मुझे अंजाम की फ़िक्र तो नहीं है
फिर भी कभी-कभी
तुम्हारे रवैये से खेद होता है मुझे

मगर फिर सोचती हूँ .....

वो प्रेम ही क्या जो अँधा न हो
और तुरंत मूँद लेती हूँ अपने मन की आँखे

पता नहीं क्यों?
वक़्त पीछे के समय को धूमिल करता जाता है
लोग इस खचड़-पचड़ में आगे निकल जाते हैं
लेकिन इस तुम प्रगाढ़ विरह के कीचड़ में
अपना अस्तित्व कमल की तरह पसारे हुए हो

शायद ! सच तो यही है ..
जिससे मैं बार-बार इंकार करती हूँ

तुम करो या न करो फिर कहो या न कहो
मेरे जीवन में रहो या न रहो
मैं तब भी तुम्हे चाहती रहूंगी ऐसे ही
या फिर इससे कई गुना और ज्यादा

क्यूंकि मुझे मालूम है ..

मैं बेशक अहम की दीवार क्यों न उठा लूँ
हर बार मेरे मन की आवाज इसे ध्वस्त कर देती है
तब हाथ कुछ नहीं बचता
सिवाय इस करार के की ...

हाँ !
तुमबिन मैं वो दिया हूँ
जो जल कर उजाला भले ही देदे
लेकिन उसके आधार का अँधेरा
वो खुद जलकर भी कभी समाप्त नहीं कर पाएगी !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'