Wednesday, May 21, 2014

हर बार मेरा सब्र आजमाने को आया

हर बार मेरा सब्र आजमाने को आया
जख्म नासूर फिर से दुखाने को आया

हँसता हुआ चेहरा उसे अच्छा नहीं लगा
शबनम के कतरे पलकों पे सजाने को आया

मंज़िल गश्त खाकर रास्तो में भटक गयी
वो ढेर मेरे हसरतो की जलाने को आया

उसके बिना नहीं होता मुकम्मल मेरा वज़ूद
ये खामी मेरे ज़ात की जताने को आया

उसे आरज़ू भी मेरी वो मेरा हो भी नहीं सकता
यही पैगाम मुझे पढ़ कर सुनाने को आया

नजाने किस बात का गुरुर रखता है वो पागल
मुझे हार कर भी वो जीता है बताने को आया


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

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