फिर ये शाम ढलने को आई है
तन्हाई फिर पलने को आई हैं
इन पन्नो की तकदीर अजीब है
मेरे अश्को से गलने को आई हैं
ये अँधेरा तो साय-साय करता है
बात बनी हुई बिगड़ने को आई है
मैं खुद ही लड़खड़ा की गिरी हूँ
और जिंदगी है की
मेरे पहलु में संवरने को आई है!!
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
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