Monday, December 30, 2013

!!कहावतो के तौर पर!!


सुना है!
प्यार से ऊपर कुछ भी नहीं
वोही सर्वश्रेष्ठ है सबसे विशाल
पुरे कायनात पर कवच पहनाये हुए है
तोला-मोला नहीं जाता,
काटा छाटा नहीं जाता,
बटवारे कि चीज़ नहीं
भ्रम तो नहीं पाल रहे
मुझमे,तुममे और सबमे....

क्यूंकि मेरा ज्ञान विपरीत बोलता है
व्यंग कसता है जिन बातो का
कोई मूल नहीं उनपर..
ये तजुर्बा भी तुमबिन
कहाँ मुमकिन था

शुक्रिया ना!
मुझे इतना बताने का
माफ़ी कि चोटी से नीचे है
इस पर्वत कि ऊंचाई..
 
लेकिन फिर वही बात
आखिर इसे सर्वश्रेष्ठ कहा ही क्यूँ?
कितनी भ्रामक बाते करते हैं लोग
सच गायब कर देते है
अपनी बातो को ऊपर करने के लिए

अपनी घटना निहित कर देते हैं
कहावतो के तौर पर..

 


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

सच

सच तो फिर
सच ही होता है न ?
तुमने क्यूँ बोला कड़वा है ?
तुम तो खुद को सच्चा बोलते हो
फिर कदम पीछे क्यूँ हटा रहे हो
सच का सामना करो
तुम कमज़ोर पड़ गए न?
मजबूतियाँ यहीं चाहिए थी सबसे ज्यादा
यही तो इम्तिहान था
कि तुम कितने सच्चे साथी हो...  
हम जुड़े हैं एक-दूसरे से
ये तो एक सच्चा सा सच है
फिर इसे क्यूँ झुठला रहे हो?
मुझे इतिहास बनाओगे या किस्सा?
अच्छा सुनो !
कुछ भी बनाओ..
ये तुम्हारा फैसला है
लेकिन फैसला तुम अकेले क्यूँ ले रहे हो ?
मेरा हक़ कहाँ गया?
रहने दो जाने कैसे तुम झूठ भी
सच कि तरह बोलते हो कि
यकीन आ जाता है....

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

~~अखबार कि आम खबर ~~

कुछ नया नहीं
अखबार के पन्नो में
आज फिर छपी है
वोही आम खबर
सियासत कि ताश-पोशी,
कहीं कथित इल्जामो कि ट्वीट
क्रूरता कि सारी हदे पार करता
मानव का सड़ा हुआ गंधाता रूप
पाकिस्तान का आदतन घुसपैठ
धोखे से फिर मेरे देश का जवान शहीद
नक्सलवादी बम विस्फोट,
आतंगवादी धमकी, 
हथियारो कि तो कहीं मानव तस्करी
अप्राकृतिक हिंसा,
रेप तो कहीं फिर हुआ गैंगरेप,
वही बेवफाई के किससे,
ब्लैकमैलिंग,
इंटरनेट पर नए सैक्स साईट का आरम्भ,
सोशल नेटवर्किंग साईट ने ली
फिर किसी कि जान..
बस यही सब होता है
अखबार के उन बारह पन्नो में...
हाँ! मगर
कभी-कभी भूले से मिल जाता है
हफ्ते में एकाद दिन कविताओ का
कहानियो का, चुटकुलो का पृष्ठ..
जो ह्रदय कि नमी को खींच कर 
जगा जाती है सूखे होठो पर
कुछ क्षणो कि मुस्कान !!   


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 30/12/2013
 

Sunday, December 29, 2013

सहमी हुई औरत

सहमी हुई औरत
ठण्ड में भी पसीने से भीगी हुई
रात के अंधेरो में छिप रही थी
तारो कि ग़ुम रोशनी से 
लपेटती हुई साफे से शरीर
डरी हुई अवस्था में
कांपता सा देखा उसको
रो रही थी पर बिना आवाज़ के
मुँह को बांधे हुए हाथो से 
सन्नाटो से जैसे कोई दुश्मनी हो
चिपकी जा रही थी 
१२ इंच के लाइट पोल से
चुम्बक कि तरह..
पर इतना डर क्यूँ था उसे ?
और किससे ?
अचानक कदमो कि आहट सुनी 
आदमियो का इक गुट
जानवरो कि तरह भागता हुआ
भूखे भेड़िये फिर रहे हो जैसे
शब्द: कहाँ गयी?
ढूंढो माल अच्छा है..
सुन कर वो औरत
और असहज हो गयी
पर फिर भी टिकी रही
बिना हिले उसी जगह
ओह !
ये दशा..
नज़ाने कब सुरक्षित होगी औरत?
इस धरा पर...
हैवान पुरुषो आखिर कब छोड़ोगे तुम?
ये घृणित अपराध.......................................

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

!! लगा लो पहरे तुम फिर हम भी देखते हैं !!

लगा लो पहरे तुम फिर हम भी देखते हैं
ये महक इश्क़ कि कौन सी दिवार रोक पाती है

ये हम है या हमारी पाक़ शिद्दत तुमको पाने कि
हर राह खींच कर तुम्हारे शहर तक ले जाती है

नज़ाने क्यूँ तेरा सितम भी न मिटा पाया ये जूनून
दर्द अपने लबो से तुम्हारा नाम ग़ज़ल सा गुनगुनाती हैं

हमारे सब्र का ही तो इम्तिहान चल रहा है
हम चिराग जलाते हैं हवाए आंधियां बन जाती है....


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'




 

Saturday, December 28, 2013

तुम लिखते कैसे हो?

मुझे अक्सर तुम्हे पढ़ते हुए
यूँ ही ख्याल आया करता था..
नजाने कैसे तुम्हारे शब्द
तीर कि तरह उतर जाते हैं सीने में?
सपाट पंक्तियाँ तो नहीं होती
इतना घुमावदार प्रतिरूपण करते हो..
उबड़-खाबड़ इधर-उधर रखते चलते हो
अपनी कविताओ में लव्जों को..
फिर कैसे तुम्हारे लेख जगा देते हैं
गहरी नींद में सोयी भावनाओ को?
पात से बनी पिपरी जैसी लय निकालते हैं
बजा देते हैं समझ के मंदिर का घंटा
कुछ घडी मज़बूर कर देते हैं..
विषय को सोचने पर देर तलक,
आखिर कौन सी जादुई श्याही से
उंकेरते हो और किस दिशा से लाते हो
वो अनुभूति जो कोरे कागज से टकरा
कितनो कि ही आत्मा को बेध देती है...

तुम्हे देख के भान होता है
कि प्रेम के गंध से अछूते हो
फिर कैसे तुम्हारी संवेदना से भरी-पूरी
भाषा रोंगटे खड़ी कर देती है?
मैंने तुम्हारा बहुत पीछा किया है
तुम्हे दिन-रात पढ़ा है
और फिर तुम्हे दिया
अपने आदर्श का स्थान लेख कि दुनिया में... 

मुझे समझ आ गया कि आखिर
तुम लिखते कैसे हो छनछनाते ग़ज़ल?
बुनते कैसे हो गीतो कि माला?
और कविताओ को कैसे लपेट देते हो
कभी नीम से तो कभी शहद से?

(Dedicated to my Poetry ideal) 

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'


 

इक बात कहूं ??

सुनहरे सूत से बनी
अति सुंदर झूठी ख़ुशी कि
चादर ओढ़ ली है सांवली शक्ल पर
कल के आगमन से महरूम हो!

कोई अनुमान ही नहीं लगा पा रहा
इसकदर लीप-पोत के रख दी है
सब्र कि हर दीवार
नाशवान हलचलों के मध्य
छालों को छिपाये
साहीदार जंगली जिंदगी के रास्तो से
बिना झिझक गुजरती गयी !

हौसला नहीं है तो बस
हकीकत से रुबरु होने का
उसे सुनाने का, उसे कहने का
क्यूंकि तब दर्द से जन्मे
अनबने सवालो का तेज़
कागज़ कि भाति मुझे जला देगा! 

वैसे इक बात कहूं ??
कभी-कभी असत्य ना...
सत्य से ज्यादा सकून देता है!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 28/12/13... 12:18 AM

Thursday, December 26, 2013

है भी और नहीं भी....


कशमकश

उफान है जो अपनी
सीमाओ से भटक गया है
सतह कि रेत इसमें घुल गयी
चट्टान भी बह चला
मिश्रित होता रहा कंकर-पाथर
जज्बात का इक परत नीला था
जैसे जहर मल के धोया हो किसी ने
खला तो बहुत सोचा सोख लूँ
पर औकात थी तिनके सी
आहिस्ता-आहिस्ता खलल
गुमेच देती है निचोड़ देती है
मैं काबिल बनती इक पल
अगले पल बेकाबू हो जाती
वो जोश में था या गुस्साया था
उछलता, गिरता, सम्भलता
सब घसीटता हुआ बढ़ता रहा
मैं भी आयी तिनके सी
पढ़ना चाहती थी उसे
वो बोला मैं सुन सकी....
खामोशियाँ सवाल बनाती गयी
और मैं डूबती चली गयी ..
 
कभी खतम होने वाले कशमकश में!!

 रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
27/12/2013… 2:32 AM

"निराली झोपड़ी"

इस नगर में
कोई कोना ऐसा है
जहाँ इक साधारण झोपड़ी है
जिसका चौखट छोटा है
पर उसका उठाव गगनचुंबी
जहाँ मौसम का मिज़ाज़
सबसे भिन्न है
दिन गुरीरी, रात जगमगाती
बारिश तो अनोखी होती है
इस झोपड़ी में
सबका प्रवेश वर्जित है
मन में कोई भी अतिरिक्त
वस्तु रख अंदर नहीं जाया जा सकता
इसकी विशेषता ही इसकी श्रेष्ठता है
इसमें जाने के बाद कुछ भी याद नहीं रहता
मस्तिष्क तो पूर्णता जंगा जाती है
और वज़ूद तृप्त हो जाता है
तबई के सागर में
संचार होता है भावना के
सूखे गहरे सरोवर में प्रणय संवेदना का
भरा होता है पूरा कमरा उस झोपड़ी का
अनेका-अनेक अनंदिता से
फ़िज़ा भी अंदर छन के जाती है...

बड़ा ही ताज्जुब में डालने वाला 
अलग सा फलसफा है इसका...
  
सुना है उस झोपड़ी का नाम 'इश्क़' है


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 26 Dec, 2013

Wednesday, December 25, 2013

"कल्पनाये... जब हकीकत में बदलने लगेंगी"

कल्पनाये...
जब हकीकत में बदलने लगेंगी
तब मैं लिखूंगी
इधर-उधर भटकते हुए
अतिरिक्त विवेक के रंगो को खोजते हुए
तराशते हुए  अनगिनत शब्दो से लदी   
अपनी सोच कि वो भाषा
जो सुंदर से ज्यादा आकर्षित होंगी
जो भंगी नहीं सर्वोपरि होगी
गंधाती हुई नहीं
बल्कि महक से भर देगी
समाज में बसर कर रहे
हर वर्गों के व्यक्ति का जीवन !

तब मैं कविता लिखूंगी
छंद, श्लोक, मुक्तक,
गीत, ग़ज़ल, शायरी
इनसब को मिश्रित करके
सौहार्द का विकसित रूप
अधरो पर प्रेम के
शब्द रख दूंगी प्रत्येक के
छीन लुंगी उनसे उनकी हिंसक प्रवृति
स्वार्थ के स्थान पर अपनत्व निहित करुँगी
जब स्वप्न अपने वज़ूद को
अजीबो-गरीब यातनाओ से मुक्त कर देंगी
स्त्री मान का बीज बो दूंगी
हर किरदार के बंज़र जहन में
सींच डालूंगी इससे कोशिशो के पानी से
इक रिश्ता कायम कर दूंगी
कायनात में मानवता का!

परन्तु प्रथम प्रश्न तो यही है..
पहले सा आज भी छेदता हुआ 
जाने कब मुक्त हो पाउंगी मैं इस प्रश्न से?
क्या मेरे साथ कोई और शुरू करेगा सब कुछ खूबसूरत बना देने का प्रयास??

क्या कभी मेरी कल्पनाओ को
सुन्दर घटनाओ का रूप मिल पायेगा??

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 26/12/2013
 

!! इसी स्नेहिक पिंजरे में !!

परिंदा पिंजरे में बैठा
नज़र आसमान के पंछियो पर
उकता गया था वो कैद से
उड़ना था उसे..
मुझसे कहा जाना चाहता हूँ
अब ढूंढ के खाऊंगा
घोसला पेड़ पर बनाऊंगा
उसे मालूम न था
बाज़, चील, कौवे भी मिलेंगे अभी तो
मुश्किल अब आयेंगे पंखो पर लदने
ढोएगा वो इसे
फिर कौन सुनेगा उसक-पूसक
बेशक आज़ाद होगा
पर सना होगा उलझन में
कौन सहलाएगा प्यार से उसे?
मैं नही रहूंगी उधर
क्यूंकि उड़ नही सकती मैं,
कौन ध्यान देगा?
हो सकता है उसे मेरी याद आये
मेरे हथेलियो का मर्मस्पर्श
कभी उसके ह्रदय को छू ले
मोह कि तरंगे उस तक पहुंचे
और एक शाम.....
वो अपने आशियाने में लौट आये
ठहर जाए उसके साथ उसके भाव भी
इसी स्नेहिक पिंजरे में !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 26/12/2013

Tuesday, December 24, 2013

कहाँ है मोहोब्बत ??

दिखने में कैसा होता है?
सिर्फ एहसास है ?
या कोई वज़ूद इसका?
पानी कि जैसी शीतल है?
या आग कि तरह ज्वलित?
गहरा है समंदर सा?
या समतल है मैदानो सा?
नरम है चिकनी मिट्टी कि तरह ?
या फिर रेगिस्तान कि तरह सूखी रेत ?
फूल सी महक है क्या इसमें?
सुस्त है या आंधियो सी तेज़?
सुख कि समर्थक है ?
या दुःख का सुन्दर रूप?
पत्थर सा कठोर है या भाप है ?
जिद्दी है या फिर सूझ है इसमें ?

क्या है बताओ ?
कैसा है बताओ ना?
कहीं मिला क्या तुम्हे ?
या तुमने कहीं देखा हो ?
रहता कहाँ है आखिर ये ?

अच्छा सुनो!
मिले तो बताना....

कई दिन से खोज में लगी हूँ मैं मोहोब्बत के!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

समय से ज्यादा बलवान और कोई नहीं

कितनी जल्दी तय कर लिया
फासलो ने रास्ता...

मौसम तो वही है
पर आज धूप खिली है
वर्ष वो नहीं, दिन वो नहीं
माह वही है, तारीख वही
मगर सब कुछ बदला-बदला है,

यकीनन मैं भी वो नहीं रही
जो पिछले वर्ष थी
मेरे अंदर के बदलाव कि भनक 
अब अनजानो को भी हो चली है
कल्पनाओ कि दुनियाँ से बाहर हूँ आज
यातनाओ के जहान में
सच कि उंगली पकड़ी है
झूठ वार पर वार कर रहा है
तेजस्वी स्वप्न धुँआ-धुँआ हो
इस साल कि ठण्ड के
पहले कोहरे के साथ कहीं खो गए
आश्चर्य के अतिरिक्त व्यक्त करने को
सीख कि पेशकश के अलावा
मेरे पास कुछ नहीं....
 
अचानक सब कुछ पलट गया
इतनी तेज़ी से...

ये कहावत
सही मालूम पड़ने लगी है.....
 
समय से ज्यादा बलवान
और
कोई नहीं!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
dated : 25 Dec, 2013___on the occasion of  Christmas

(Merry Christmas )

रोशनी को खोकर........

कई परतो तले दबोच दिया
रोशनी को मरोड़ सूरज ने
अपने अस्तित्व के गुरूर में
दरमियान
पृथ्वी,
चन्द्रमा,
कई पिंड
रोशनी ने बिना गुरेज
कुछ देर में
हुकुम कि तामील कर दी
फिर क्या ??
चिराग महफ़िल के साथ
उजाला करने असमान में पहुँचे
कुछ सूखी लकड़ियां
माचिस कि तीलियों के साथ
उस भीड़ में शामिल हो गयी
आग का गोला
सूरज के पास जा बैठा
पर अँधेरा तो यूँ का यूँ था...

नासमझी
और
उस ग्रहण के कुछ अंतराल में
एक टुकड़ा रह गया था सूरज

रोशनी को खोकर....



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 25/12/2013

फेसबुक


फेसबुक बयां करती है..
कुछ छुपी छुपी कहानियाँ?
या फिर कुछ भी ऐसे ही ?

इधर उधर का कॉपी पेस्ट
दुनिया भर के फ्रेंड रिक्वेस्ट
कुछ असली आईडी तो कुछ जाली फेक..

हर स्टेटस पर कमेंट वाह! वाह! क्या बात है,
ये भी नहीं देखते दीवाने समय आधी रात है..
पिक्चर कैसे भी आये दोस्त बोलते हैं
अवेसम..सुन्दर, लूकिंग ग्रेट...
पर हम क्या हैं असल कहानी फेसबुक बता पायेगा?
कौन भला अपनी अंदर कि खामी वहाँ बतायेगा??
शक्ल बता पायी जो कुछ, आँखों से भापा गया
फिर मेकअप से लिबड़े चहरे से चरित्र क्या नापा जाएगा?

क्या असलियत किसी कि दो चार लाइन बतलायेगा?

सोच - सोच के ये तमाशा दिल दीमक सब वैट है!
 
मन पढ़ने के खातिर

 

फेसबुक नॉट परफेक्ट है??
 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
(Dated : 24/12/2013)

 

ये हिंसा क्यूँ??

चला परदेस से अपने देश
ट्रैन जल्दी चल...

टेलेफोन नहीं किया
सरप्राइज दूंगा...
राजू, रहीम, खुशबु, काका, बाबा सबको
ट्रैन जल्दी चल...

कुछ घंटे का अंतराल
लो ट्रैन पहुंची मुजफ्फरनज़र
मैं उतरा
बढ़ा
निकला स्टेशन से बाहर..
कोई न था वहाँ..सब सुनसान था..
पुलिस वाला बोला बंद है आज
हिंसा हुई है हिन्दू-मुस्लिम दंगा..
मैं दो कदम पीछे हटा..
फिर बढ़ा आगे...
मौहल्ले में पहुंचा
सब सुनसान
घर पहुंचा सबसे पहले
अज़ीज़ लंगोटिया यार रहीम कि खबर पूछी..
बाबा बोलते मार दिया साले को

मै रोया और क्या करता??
फिर खुशबु को पूछा..
बाबा बोले रहीम ने खुशबू का रेप कर जान लेली
पर वो तो बहन कहता था खुशबु को

फिर पूछा हिंसा का कारण क्या था?
बाबा बोले सलीम ने कमल को थप्पड़ मारा था..

दो अलग कौम के नासमझ बच्चो कि लड़ाई ने
मजहबी हिंसा कि शक्ल ले ली थी...
.
मैंने खो दिया
अपना दोस्त, अपनी बहन,
पाया कभी न मिटने वाला नासूर जख्म...

सवाल ये कि आखिर
हम इतने हिंसक क्यूँ हैं?
हम हैं क्या असल में ??
इंसान हैं ?
या फिर हिन्दू?
मुस्लिम?


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 24/12/2013


Monday, December 23, 2013

!!मैं मिलूंगी हमेशा तुम्हारे अंदर!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'


 

पुरुषो तुम परमेश्वर बनोगे??


मेरे पास ऑफर है
बताओ !
पुरुषो तुम परमेश्वर बनोगे?? 

ज्यादा कुछ नहीं करना
मुश्किल है मगर बहुत आसान भी...
एक सामान है तुम्हारे घर में
अरे ! यही कहते हो ना औऱत को तुम?
जो करवाचौथ का व्रत कर
तुम्हे परमेश्वर बना पूजती है
जान है उसमे, वो हंसती है
अपने अंदर तमाम दर्द समेट कर भी
प्रताड़ित होती है रह-रह कर
पर बहुत भुलक्कड़ है भूल जाती है
उसकी भवानो को समझना शुरू करो
उससे इंसान सा बर्ताव करो..
सामान सा नही!

अच्छा याद है बूढी माँ?
आश्रम में छोड़ आये हो जिसे
कल रो रही थी तुम्हे याद करके
उन्हें घर ले आओ बहुत जरुरत हैं उन्हें तुम्हारी.
बन जाओ एक आदर्श बेटा
जिसकी कल्पना कि थी उन्होंने
उनकी सेवा करो बिलकुल वैसे
जैसे बचपन में उन्होंने किया था
बूढी आँखे भर दो ख़ुशी से!!

लगातार कई वर्षो से
गली से गुजरती बेटियो पर गन्दी दीद है तुम्हारी
मैंने छिपकर देखा है तुम्हारी नीयत को
हरकत को आँका है
जब गुड़िया जाती है तो 'अपशब्द' बोलते हो
जब चंचल गुजरती है तो 'छेड़ते' हो..
हमारे लिए सबसे बड़ा है “मान”
तुम सीधा उसपर निशाना साधते हो
औरत का केवल शरीर देखते हो ना??

तुम आदमी हो आदमी कि तरह रहो
हैवान मत बनो..
बस एक अच्छा इंसान बन जाओ..
ताकि हम अंधेरे में भी निकल सके
बिना किसी डर के,
हम एतबार कर सके...
बिना किसी शर्त!

यही मेरा ऑफर है
कुछ शर्तो के साथ..... 

अब बताओ !
पुरुषो तुम परमेश्वर बनोगे?

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
dated : 24/12/2013
 

"सब झूठ बोलते हैं"

सब कहते हैं
मेरा राजकुमार आएगा
घोड़ी पर सवार होकर
मुझे लेकर जायेगा..

अब तक नही आया
सब झूठ बोलते हैं!

राजकुमार तो परिपूर्ण होता है न
धन धान्य से, दिल से बहुत बड़ा..
कल घर में कुछ लोग आये थे
उनको मोटर गाड़ी चाहिए थी
और ढेर सा सोना....

अम्मा से पूछा कौन हैं?
बोलती बेटा यही तो वो राजकुमार है
अब राजकुमार आएगा.
तुझे लेकर जाएगा....
मुझे ज़ोर से हसी आ गयी
अपनी किस्मत पर
और अश्रु टूटे सपने पर..

किसी ने आज तक सच नहीं बोला
सब अब तक झूठ बोलते रहे

कह देते
एक दिन भिखारी आएगा
मुझे लेकर जाएगा !!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
23/12/2013

(ये उन सभी दहेज़ के लालची बेटो के लिए जो अपने आपको राजकुमार समझते हैं मेरी नज़र में वो भीखारी हैं)

Sunday, December 22, 2013

"अलविदा जिंदगी"

छोड़ कर चले जाओ
टांग कर खामोश अरगनी पर
झूलने दो मुझे इत्मीनान से नींद में
तुम नहीं गए तो मैं खुद धकेल दूंगी!

मैं अकेली हो गयी हूँ
आने दो सब नाते-रिश्तो को
मित्रो को, मोहल्ले कि भीड़ को
बहुत सुन लिया आत्मा को छेदने वाली बात
अब सुनने दो कुछ कणप्रिये शब्द मेरी तारीफ में!

एक आखिरी बरसात कि आरज़ू है..
रो लो तुम....
खो देने का अफ़सोस देखना है..
तुम्हारे चहरे पर...!

त्याग दिया है मैंने सब चेतना
अब जो कुछ भी होगा इक-तरफ़ा होगा..
मैं कैसे तुम्हे देती जो मेरे पास था ही नहीं
शिकवा खुद से नहीं अर्पण किया जो था !

मुझे खो देने का गम सबको होगा...
बेशक रीतू, गीतू, अमीना, सकीना सब मिलकर भी
"परी ऍम श्लोक" कि कमी नहीं पूरी कर सकती ....

मुक्त हो रही हूँ मैं
जीवन इक सवाल बन गया है अब से
छोड़ कर जा रही हूँ तुम्हारे दामन में प्रायश्चित!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'


 

तलाश (मुझे मेरे अस्तित्व कि)


Friday, December 20, 2013

"!!नियति!!"

दो डाल विपरीत दिशा में
पीठ किये हुए परस्पर
एक-दूसरे कि तरफ...
अहम् दोनों में अति
हरे भरे, सुदृढ़, झूलाते हुए
धूप में नहाते हुए,
चाँद कि रोशनी में मुस्कुराते हुए
आसमान कि और सिर उठाये,
फलो से लदलद दोनों ही!

परन्तु नियति कुछ नहीं देखती........

फिर इक जोरदार आँधी ने
धूल उठा दिया पूरे वातावरण में
धकेल दिया डालो को इक-दूसरे कि ओर
अब दोनों आलिंगर्त, उलझे हुए, दोनों मीत
समझते हुए इक-दूजे को
जैसे मानो बरसो के हमजोली हो!
 
परन्तु नियति कुछ नहीं देखती...........

फिर पथरीली कठोर बूंदो कि वर्षा
इक डाली टूटी तने से प्राणमुक्त हो
फिर जमीन पर आ गिरी
अब दोनों अलग, जुदा, विलाप करते हुए
दूर से निहारता हुआ
जीवित आसमानी डाल...
प्राणमुक्त डाल को!

क्यूंकि........

होता वही है जो नियति तय करती है  
परन्तु नियति कुछ नहीं देखती!!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 20/12/2013
 

Wednesday, December 18, 2013

ये जुदा सा एहसास.... "मोहोब्बत" है!!

 
तुम जब मुझसे मिलकर
ढेरो बाते करते हो
और फिर
अंत में कहते हो
"चलता हूँ"!
जानते हो कैसा प्रतीत होता है?

मानो किसी ने लू में
आग लगा दी हो
या उम्मीदो को तम्बाकू सा
हथेलियो में रख के मसल दिया हो!
फिर तुम्हारे जाने के बाद से ही
हो जाता है
सब कुछ एकदम सूना
कुछ पल तो
यकीन कर पाना ही मुश्किल होता है
कि तुम चले गए हो.....
कई दिन तक डूबी रहती हूँ मैं
तुम्हारे साथ बिताये उन लम्हो के समंदर में
अक्सर तुम्हारी तस्वीरो से मुखातिब रहना
उन्ही पार्को में, चर्चो में, मंदिरो में
बार बार जाना कि शायद! तुम यहाँ मिलो
फिर एकदम एकांकी में दौड़ जाना
अजीबो-गरीब सी हालत हो रही है मेरी!

भीड़ में तुम्हारा चेहरा आँखों में लिए
खोजते रहना हर आने-जाने वालो में तुम्हे
तुम्हारी बाते करना, तुम्हारे ख़त पढ़ना
तुम्हारे पसंद के
गुलाबी रंग के कपड़े पहनना
रात को नींदो से गुजारिश करना कि
ख्वाबो में तुम्हे ढूंढ के
कहीं से भी ले आये!
लम्बी परछाई देख तुम्हे आंकना

वो गीत गुनगुनाना
जो तुम्हे सबसे ज्यादा पसंद है
तुम्हारे आने का इंतज़ार करना 
ये जानते हुए भी कि तुम नहीं आओगे !
ये सब क्या है आखिर?
मेरे मन में तुम्हारे नाम से
एक अज़ीब सी लहर उमड़ पड़ती है
धड़कने रफ़्तार में हो चलती है
तुम्हारा हाथ भर पकड़ लेने से
ये इतना अलग क्यूँ है?
क्या नाम दूँ इसे?
क्या कहते हैं ? बताओ ना!
मुझे आभास होने लगा है

जानते हो क्या?
हो न हो ये जुदा सा एहसास ही......... मोहोब्बत है!!



रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'
 

Tuesday, December 17, 2013

तुम मेरे हर शब्द में हो..............

दो शब्द लिखा
फिर अटक गयी,
बैठ के संज्ञा पर विचार किया...
कलम इक कदम आगे बढ़ी
फिर रुक गयी!

बुनना शुरू किया
मैंने समय का हर पहर.....
कलम बढ़ी
फिर थक गयी!

समाज कि दशा को भापा,
बस्ती, शहर, गाँव में गयी
कलम चली
फिर आह! किया
और टूट गयी!

लेकिन फिर भी कविता अधूरी थी...
पंक्तिया बेभाव, बेमायने
नज़ाने किस और जा रही थी
हताश थी मेरी कविता..
अक्षर उलझ गए थे
अर्थ बीच में ही फस गया था 
शब्द का अभाव हो चला था
पन्ने बिगड़ रहे थे मुझपर...

मैं तुम्हे याद करने लगी
फिर क्या ?
कलम चलती गयी शब्द निरंतर रहे
कुछ मेरे शब्द कुछ तुम्हारे
मैं लिखती चली गयी बिना रुके........

कहा न मैंने तुम्हे
कि
तुम मेरे हर शब्द में हो!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

 

"वर्ष २०१३ मैं तुम्हे सदैव याद करुँगी"

करवट पर करवट ले रहा है गतिमान समय
गर्मी, सर्दी, बरसात, पतझड़
सब मौसम पार कर चुका है!

वर्ष 2013 अपनी चरम सीमा पर है
मुझसे अलविदा कहके बोल पड़ा
बेशक 'परी' तुम रोकना चाहो
किन्तु मैं रुक न पाउँगा..
मेरी आयु केवल १२ महीने ही थी
मुझे भेट लो और सौहार्द से विदा करो!

इसके जाने का खेद कितनो को है ज्ञात नही
परन्तु मुझे अपार ग्लानि है..
नौ महीने अपनी कोख में पनाह देने के बाद
चंद शेष माह मुझे अनुभव करवाया ज्ञान का
सही गलत के बीच का फासला,
आदर्श, नियम कि उपस्थिति जीवन में कितना अनिवार्य है!
 
इसी वर्ष प्राप्त कि है मैंने 
जन्मदिन कि कभी न भूल पाने वाली भेंट...
समाचार के विशेष पृष्ठ पर अपनी कविता
स्वयं के अंदर एक वास्तविक शोभायमान परिवर्तन!
 
आज से ठीक १३ दिन बाद
यदि मैंने रोका भी तो मेरा हाथ झटक के
इस कोहरे में अदृश्य हो जाएगा ये वर्ष भी..

मेरे दामन में सिमट के रह जाएंगी
मात्र इसकी अर्पित कि हुई
प्राणप्रिये अहम, अनमोल यादें!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 18/12/2013
Time : 10:51 AM

Sunday, December 15, 2013

"प्रेम"

निष्पक्ष होता है
पाने-खोने कि इच्छाओ से दूर,
लीन होता है समर्पण में,
सादा बिना किसी शोज़-श्रृंगार के
किन्तु फिर भी है बेपनाह खूबसूरत !

बेहद पुराना है युगो से चला आ रहा है
न तो इस पर जंग लगा
न तनिक टूटा-फूटा, न पिघला, न ही सूखा !
 
ये कोई समान नही एहसास है,
हृदय में व्याप्त इक संवेदना है
बीतते समय के साथ
गहरा होता जाना इसका नियम है !

वासना से परे है, दृढ़ संकल्पि है,
निहित है अंश इसका कण-कण में,
किन्तु सबको मिल पाना भी कठिन है !

सीमाहीन हैं, इसका कोई निश्चित दायरा नहीं,
दिखता नहीं केवल महसूस किया जा सकता है
अमर है कभी मरता नहीं,
अजेय है कभी घुटने नहीं टेकता किसी भी परिस्थिति में,

एकमात्र भाव है हर द्वन्द से मुक्त
सर्वपरि, सर्वश्रेष्ठ, सर्वशक्तिशाली, केवल शुद्ध "प्रेम" !!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
dated : 16/12/2013

मेरी कलम से - परी ऍम 'श्लोक'

बहुत दिन हुए पतझड़ तेरा सितम सहते-सहते..
अब लौट जाओ तुम.. बहारे शिरकत ले आयीं हैं
27/07/2013

"दिल कि बस्ती में आ बैठा है मुल्क उस पार का पंछी,
मोहोब्बत... किसी सरहद कि मोहोताज़ नहीं होती"
22/02/2013

अंधेरो के गुम गलियो में मैं महफूज़ नहीं
पैरो कि धमक भाप लेते हैं दरिंदे
इस देश में मैं तो नहीं हूँ आज़ाद
तू ही सुना क्या मिज़ाज़ है तेरे परिंदे??
18/12/2013 

"ये व्यवस्था ले डूबेगी पूरे 'हिंदुस्तान' को,
अदल- बदल कि नीतियो पर चल रही सरकार लो,
कोई ऐसा राजनीतिक गुट नहीं जो पूरा बहुमत ले पाये,
फिर भी इच्छा नहीं होती कि छोड़ दे मैदान को"
14/12/2013

कागज़ कि कश्तियों का लगना ना पार है
शीशे के महल पर पत्थर का वार है
खौफनाक है हकीकत झूठ जाँनिसार है
कलयुग कि बस्तियों का नंगा सा प्यार है"
14/12/2013
 
जैसे पंछी का पंख होये
वैसे औरत कि अस्मिता
पंछी बिन पंख उड़ न पाये
औरत बिन मान सिकुड़ती जाए...........
07/12/2013
 
 
"नजाने कितना खाता है पश्चिमी सभ्यता का चूहा,
हर दिन तन के कपड़ो के सूत क़तर जाता है,, "
28/11/2013
 
कल मेरे ऐतबार ने सदमा दिया मुझे,,
उम्मीद ने धड़कनो कि नस काट दी,,
रिसता रहा खून लगातार आँखों से,
मैंने हाथ जोड़ जिंदगी से मौत मांग ली,,
28/11/2013
 
आग से खेलना नादानों का काम नहीं है,
चिंगारी गिरकर रेशमी दामन जला देती है,
इक रौनकी ओंदे से ज्यादा फिर कुछ नसीब नहीं होता
औरत जब जहन से खुद कि मर्यादा भुला देती है
28/11/2013
 
है तूफ़ान उठा आलम- -रंजिश जैसी है,,ये मत पूछ की आज फिजा कैसी है,,
टूट के गिर गए मेरे बगीचे के कई नाज़ुक पौधे,,,हवा जिंदगी से हुई खफा जैसी है,,,