Friday, October 31, 2014

अगर तुमसा कोई होता ....

तुम्हे पढ़ा तो
ख्याल आया कि....
.

सफर कितना
आसां हो जाता
इक हमसफ़र
तुमसा......
अगर होता तो
अच्छा था

कोई होता
जो लिखता नज़्म..
कविता..अशआर..
मेरी याद में
कोई प्यार भरे
गीतों से
मुझे भिगोता तो
अच्छा था

कोई रात
मेरे लिए जागता
और मेरे ही सपने
सजोता तो
अच्छा था

मेरी खामी में
खूबियों की चमक
तलाश लेता
कोई कोयले से
कोहनूर बना देता
तो अच्छा था

मुझे जुबां की
तकल्लुफ न देता
कोई नज़रो कि बात
नज़रो से ही
समझ लेता तो
अच्छा था

किसी की
महफ़िल
हमी से होती
कोई मेरे बिना
तनहा....
अगर होता तो
अच्छा था

मेरी दुनियाँ में भी 
तुम जैसा कोई
होता तो
अच्छा था !!

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© परी ऍम. 'श्लोक'
(इमरोज़ जी को पढ़ने के बाद ..मुझे ये ख्याल आया...!! )

Thursday, October 30, 2014

सब कुछ शांत है .... (मेरे भांजा व भांजी की याद में )

((मेरे प्यारे भांजा व भांजीअपने दादा-दादी के पास वापिस चले गए..... मुझे याद आ रही थी तो मैंने कविता लिख दी और कोई बात नहीं ...))



कहीं नहीं है
शोर.....
सब कुछ शांत है
न किलकारियाँ है
न ही वो नटखट
शरारत तुम्हारी
आज सारी किताब
सलीके से लगी है
अलमारी में
कोई गिलास नहीं टूटा
कोई शीशा नहीं पटका गया
चादर यूँ के यूँ
बिछी है सवेरे से
कमरे में हर सामान
कायदे से लगा है
मगर
अव्यवस्था मची है मुझमें
मुझे यूँ रास्ते में छोड़
तुम कई किलोमीटर
पार कर चुके होगे..
अपने मंज़िल के करीब
पहुँच रहे होगे...
तुम रोज़ रात
चिल्लाकर जगाते थे
और मैं सोने का
जुगाड़ लगाती थी
पर आज रात
बड़ी मुश्किल हो जायेगी
लेकिन देखना
कल तुम्हे भी मेरी याद आएगी
मेरी ही तरह
तुम कुछ नहीं कह पाओगे
जानते हो क्यों?
तुम्हे बोलना नहीं आता ढंग से
और मैं चाहकर कर भी
कुछ बोल नहीं पाउंगी !!

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© परी ऍम. 'श्लोक'

((मेरे प्यारे  भांजा व भांजीअपने दादा-दादी के पास वापिस चले गए मुझे याद आ रही थी तो मैंने कविता लिख दी और कोई बात नहीं  ))

अजी ये तो... उल्फत हो गयी

बड़ी रोशनी है
आपकी सीरत में
चौंधिया गए इरादे हमारे

बड़ी दिलकश है
अदाएं आपकी
उफ़....
फिसल गयी
हसरतें हमारी

इक अधूरी झलक तेरी
और
गूंगा मन
सितार सा बज उठा

पतझड़ों कि लुटी हुई
बस्ती में
आई हो बहारें जैसे
मुस्कुराने लगी फ़ज़ाएँ
पागल हुई हवाएँ

लो मैं जिसे
जानती भी नहीं
 
ज़रा सा
खयालो के कैनवास पर
उसका अक्स क्या बनाया
अजी ये तो...

उल्फत हो गयी !!
 
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© परी ऍम 'श्लोक' 

Wednesday, October 29, 2014

काश ! मैं इक बेटा होती

मैं जब भी
दुनियाँ के अजब दस्तूर को
अंजाम देते हुए
कहीं दूर किसी
अज़नबी जज़ीरे को अपना समझ
वहाँ कि ऊँचाइओ पर बैठ
किसी की आँखों से
हसीन मंज़र को देखने की सोचती हूँ
तब बाबा की विवश पनीली आँखें
मेरे सामने घूमने लगती हैं
कम उम्र में चढ़ता बुढ़ापा
चिन्ताओ की अनगिनत झुर्रियाँ
जिसके माथे की हर लकीर कहती है
कि वो इक बेटी के पिता है
बेशक उन्हें व्यथित करे या न करे
किन्तु अफ़सोस का बीज
मेरे भीतर अवश्य डाल जाती हैं 
कि मैं इक बेटी हूँ
और फिर मेरी हर आरज़ू
गहरे संताप में परिवर्तित हो जाती हैं
 
लोग तो कहते हैं
बेटियाँ.. पराया धन होती है 
अपने भाग्य का लाती है
और ले जाती हैं
समाज का यह रवैया
कितना पराया कर देता है हमें
क्या है भाग्य का लेखा ?
कौन सा देश ?
कैसे लोगो से है वास्ता ?
वहाँ कोई अपना समझें या
समझौते का गढ़ बन जाऊँगी मैं
ये उथल-पुथल तो
मेरे मन में चल ही रही थी 
कि अचानक
माँ के गालो से ढुलकता हुआ आँसू
मेरे गालो पर गिर जाता है
और वेदना से भीग जाती हूँ मैं
 
सच .....
इससे पहले तो कभी नहीं
आज पहली बार बहुत बुरा लगा
अपनी बेटी बनकर जन्म लेने पर
मेरा गुमान कहीं कन्नी काट गया
 
सोचती हूँ कि
काश ! अपने माता-पिता की 
सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर पाती
काश ! मैं उनके बुढ़ापे का सहारा होती
काश ! कि मैं इक बेटा होती !!!!
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© परी ऍम. 'श्लोक'

जिंदगी तेरे सफर में ......


आज मीनाक्षी दीदी अपने नन्हे-मुन्हे बच्चो मयंक और अनन्या के साथ हमें खूबसूरत यादो का तौफा देकर अपने ससुराल वापिस रवाना हो गयी ! कुछ दिन पहले ही हमारे साथ यानी अपने मायके में रहने आई थी !
 
पता ही नही चला कब ये वक़्त इतनी तेज़ी से निकल गया और छूट गया इतना मस्तमौला सा वो वक़्त ! पूछो न मैं तो उन बच्चो में इतनी मशगूल हो जाती थी सुबह-शाम की सारी टेंशन फुर्र हो जाती थी !
 
वाकई बहुत खुश थी इनदिनों मैं पर उनके जाने पर बहुत दुःख हुआ पर वही न कितने दिन रह सकती थी वो हमारे साथ अब उनकी अपनी इक गृहस्थी है जिसकी नायिका हैं वो..
आज जब उनको ट्रैन पर बिठाया और ट्रैन के बाहर २ मिनट तक खड़ी होकर खिड़की से बच्चो व दीदी को निहारती रही उसके बाद ट्रैन अपनी मंज़िल के लिए चल पड़ी..मैं बस देखती रही ..तो बस क्या था ?उस वक़्त जो तकलीफ  मैंने महसूस किया.... वही शब्दों में ढाल रही हूँ !
 
 
 
 

Tuesday, October 28, 2014

जितनी मैंने तुमसे नफरत की है....


तुम्हारी बातें
मेरे खुशनुमा आलम में
जहर घोलती हैं ...
तुम्हारे सौगात
मुझे आघात देते हैं...
तुम्हारे आशीष
मानो कोई आरी
काट रही हो मुझे
कुछ इस तरह
लम्हा-लम्हा पीड़ा देते हैं ...
कहीं नहीं
देखना चाहती मैं तुम्हे
अगर उजाले नज़र है
तो मैं
अंधेरो की कायल होना
पसंद करुँगी
दबे हैं अभी राख में अंगारे
ज़रा दूर रहना
क्यूंकि
और कुछ भी बदल सकता है
मगर ये नफरतो का सत्य
मेरे जाने के बाद भी जिन्दा रहेगा
और पहरेदारी करेगा
ताकि तुम्हारे कदम
उस ज़मीन को गन्दा न करें
जहाँ मेरी लाश जलायी गयी हो
क्यूंकि ये नफरत
अब मेरी रूह में उत्तर आयी है
हाँ ! हाँ ! हाँ !
इतनी किसी से
कोई मोहोब्बत क्या करेगा ?
जितनी मैंने तुमसे नफरत की है
बेतहाशा नफरत.....!!
 
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© परी ऍम "श्लोक"

फ़ातेहा पढ़ो क़ाज़ी....

खुदा को कई बार ...खुदा बना कर देखा
हासिल कुछ न हुआ
आज मैं खुद ही खुदा हूँ
और ये मेरी गुजारिश है
कि ..

फ़ातेहा पढ़ो क़ाज़ी
मुझे इस पुराने लिबास को
अब अलविदा कहना है
कि बस बहुत हुआ
जिल्लतों का दौर..ये खौफ का मंज़र
दर्द कि दर्दनाक दास्तान का चलन
 
ये मेरे मिज़ाज़ कि नर्मियाँ  ....
जो मुझे कदमो पे ले आयी थी 
मुझे अब ऊपर उठना है इस ज़मी से
यहाँ नहीं यहाँ से कहीं दूर फलक पर जाना है
सितारा बनना है और फिर टूट जाना है
 
खंडर बने इस जिस्म में कोई हरकत नहीं होती  
मरे पड़े हैं ख्वाब
बुझे उल्फतो के दिये के आस-पास
नन्हे - नन्हे कीड़े मकौड़ों कि तरह
दिल ने इक अरसे से धड़कना बंद कर दिया है
मेरे जीने का कोई सबूत नहीं है 
 
तुम  
फ़ातेहा पढ़ो क़ाज़ी
और फिर डालो मिट्टी
मेरी साँस लेती हुई कब्र पर
फूल से मेरा नाता नहीं
बेशक कांटे उगा जाओ मेरी कब्र पे 
पर उन्हें ये हक़ नहीं... कि वो आँसू भी बहाने आयें
जला दिल और जलाने आयें

बस अब दफन करो
फैसलों कि बेवफाई का बस्ता टाँगे
बेवा बेकार बेरंग जिंदगी के तमाशे को 

और
मुझे नया जन्म लेने दो
सकून भर किलकारियों के साथ
हाँ ! मुझे बस महसूस करना है
शफा-ए-जिंदगी को 
नया-नया सा सबकुछ हो जहाँ
वो ताज़गी नयी तिश्नगी के साथ
हो बहारें जहाँ नयी जिंदगी के साथ
 
जबतक न हो कोई अंजाम
इस बेबाक आरज़ू का
तब तक तुम
फ़ातेहा पढ़ो क़ाज़ी....
 
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© परी ऍम 'श्लोक'

Monday, October 27, 2014

तुम हाँ...... तो करो !


यूँ तो टूट जाती है कसमें
वक़्त के सलीबों से टकरा कर
 
वादें भूल जाते हैं
या फिर जान-बूझ कर
भुला दिए जातें है

मगर
तुम्हे इक मौका है

आओ!
मेरी यकीन को हवा देदो
ज़ज़्बातो की गर्म धधकती
आँच पर रख
इश्क़ को सोना बना दो
जब्त करलो अटकलें
सुलझा दो उलझनों की जुल्फें

इकबार थामो मेरा हाथ
और ये रोशन लव्ज़
मेरी रूह में तराश दो
करो इकरार हमसे .....

जब तक रहेगा कायनात
ये सितारे....ये बहारें
मौसम लाख बदलें...
हालात लाख खिलाफत करें
तुम हमेशा मेरे रहोगे......

छोड़ कर
तन्हाइयो का साथ
तुम्हारी अंजुमन में दस्तक देने को
इस बार तुमपर
आँखें मूँद कर यकीन करने को
मैं तैयार हूँ

बस तुम
हाँ...... तो करो !!

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© परी ऍम. "श्लोक"

Sunday, October 26, 2014

अपनी पीड़ा किसे सुनाऊँ ....


बदलाव कि शुरुआत
अपने आप से होती है
तो मैंने स्वयं को बदलने के
बड़े अथक प्रयास से
आख़िरकार इस सीढ़ी को
चढ़ कर पार कर लिया
किन्तु दूसरी सीढ़ी पर
जाने कौन कंचे उड़ेल आया
बदलाव कि इस सीढ़ी पर मैं
चढ़ती रही और गिरती रही
मेरे अपने मुझे
कल्पनाओ कि दुनियाँ का
मालिक बताते हैं
जिसका वास्तविकता से
कोई सरोकार नहीं
पता नहीं
मैंने हकीकत कि
काली ज़मीन नहीं देखी
या सर के ऊपर
लाल आसमान नहीं देखा
मेरे बदलाव के ख्याली पुलाव में
ढेर सारी मिर्च झोंक कर
उसे मीठे सत्य में
तब्दील होने से पहले
सारा स्वाद कड़वा कर देते हैं
और सारी उम्मीदो को
भट्टी में डाल कर
ख़ाक कर देते हैं
मैं लपक के तीसरी
सीढ़ी पर आती हूँ
जनता पर छा जाती हूँ
उनके हिसाब से बोलूं तो
वाह-वाह कहते हैं
ज्ञान इन्हे भी दूँ तो
गुस्सा जातें हैं
उनके बीच से
दबी हुई आवाज़ आती है
पहले घर सुधार
दुनियाँ बाद में देखना
अब इन्हे कैसे बताऊँ
घर कि मुर्गी दाल बराबर
तेरे घर में भी यही हिसाब-किताब
मेरे घर में भी कुछ ऐसा है
अब बताओ !
कहाँ जाऊं ?
अपनी पीड़ा किसे बताऊँ
कलम बोला
हाथ पकड़ के
कवि का धर्म बस
लिखती जाऊँ !!

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© परी ऍम. "श्लोक"

Thursday, October 23, 2014

देश जश्न में डूबा हुआ ........



दिवाली की रात धुएँ का गुबार देख ..पनपे विचार !!

Wednesday, October 22, 2014

दिवाली यूँ मनाना.....



 
दिवाली यूँ मनाना
पटाखे कम जलाना
पर्यावरण बचाना
चाइनीज़ लाइट नहीं
मिट्टी के दीप जलाना
इसी बहाने हो जाएगा
गरीबो को
चवन्नी का ठिकाना
उजाला आस्था का
इंसानियत पर गहरा कर लेना
प्यार का जोत मन-मंदिर में जलाना
आस का फूल चढ़ाना
सरस्वती माँ को जगाना
लक्ष्मी-नारायण को बुलाना
मीठा खूब खाना
और मीठे हो जाना
सारे वैर मिटाना
ख़ुशी से जगमगाना !!

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© परी ऍम 'श्लोक'




 

संग हो तुम.......


Monday, October 20, 2014

फिर भी वह इक शादी है ....!!

शादी जैसे
किसी तूफ़ान का नाम है
इस विषय के चलते ही
नज़र के सामने
परिवर्तनों का पहाड़
खड़ा हो जाता है
पहनावे से सोच तक
संस्कृति से संस्कार तक
स्वभाव से व्यवहार तक
सब पुराना चोला उतार कर
नया चोला धारण करना पड़ता है

समर्पण नियति बन जाती है
सपना भूली-बिसरी कोई बात
अपना अस्तित्व बन जाता है
किसी के होने न होने का मोहताज़

बेशक पुरुष का बर्ताव
बेहतर हो या संकीर्ण
पर स्त्री को अपने दायित्वों का
निर्वाह करना ही पड़ता है

लचक उसकी गर्दन में
झुकाव उसकी आँखों
भर दिया जाता है
सभ्यता के नाम पर....

देह से शुरू हुआ रिश्ता
मन तक पहुँचे या न पहुँचे
लेकिन ज़रूरत के रास्ते पर चलता हुआ
बहुत दूर निकल जाता है
हम समझ ही नहीं पाते इक दूसरे को
और जिंदगी अपने अंतिम
पड़ाव पर पहुँच जाती है

मेरी समझ से बाहर है

वो रिश्ता जिसमे न प्रेम है
न आपसी समझ और न विश्वास है
जिसमे इक दूसरे के सत्य को
जानने और स्वीकार करने का साहस नहीं
जिसमे झूठ कि फफूंदी लगी हो
जिसमे स्त्री को सर्वत्व न्यौछावर करती है
किन्तु पुरुष केवल अपेक्षाएं करता है
जिसमे सात वचनो में से
इक भी वचन नहीं निभाया जाता

लेकिन फिर भी वह इक शादी है !!

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© परी ऍम 'श्लोक'

 

कलम चलती रहेगी....

 

कलम चलती रहेगी तो दर्द उतरता रहेगा
वरना क्या पता अंदर कोई बारूद बन जाए
 
उसके वारो को हँसकर हम आज टाल भी दें
लेकिन ये जख्म बेवफाई का न सबूत बन जाएँ
 
मैं उसे दिल से किताबो के पन्ने तक संजोती हूँ
कि कहीं बेवा न उसकी यादो का वज़ूद बन जाए
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© परी ऍम 'श्लोक'  

Saturday, October 18, 2014

तुम मुझे याद भी करते होगे..कि नहीं


कितने दिन हुए हमें यूँ
अलग-थलग हुए
सोच रही हूँ
तुम्हारे ही बारे में  ....

कि पता नहीं......
तुम मुझे याद भी करते होगे
या फिर भूल गए होगे
किसी पुराने खत की तरह
बंद दराज़ में रख कर...


सोचती हूँ कि

अपने लब पर
मेरा नाम कभी लाते भी होगे
या कोई मेरा जिक्र भी करे तो तुम
बात का लहज़ा बदल देते होगे...


कितना अंदर से टूटे होगे
तुम्हारा मुझसे वाबस्ता न होने का
सबूत देते देते..

कहाँ तुम सच के आदि थे
और आज नजाने कितना
झूठ बोलते होगे अपने आपसे
नकारते होगे दिन में कई बार
रूह के इस रिश्ते को  ...

लेकिन क्या तुम जानते हो ?
मेरा सच.......
आज भी जैस का तैस है
फटा...पुराना...घिसा..पिटा
कुछ नया सा नहीं पनपा उसमें ..

सच कहूँ तो अगर न चलें
तुम्हारे यादो कि आँधियाँ
लहराए न मोहोब्बत कि जुल्फ उसमें
तो मैं भूल ही जाऊँ
कि मैं जिन्दा हूँ....... !!


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© परी ऍम. 'श्लोक'

Friday, October 17, 2014

कितनी रंगीन है तबियत सोच नंगी है...


कितनी रंगीन है तबियत सोच नंगी है
ज़ज़्बात  की  न पूछ  वो  तो  जंगी  है

दिखाते हैं बातो  में  गज़ब दरियादिली
उनकी आँखों में झांको बेहद बदरंगी है


गिरगिट भी हैरान हुआ करता है देखकर
इंसान  पेशे  से  ही  हुनर  में   बहुरंगी  है


रोज़  अखबारों  में आती ख़ूनी सुर्खियाँ
समाज  की  व्यवस्था  अज़ब  बेढंगी है


सुनकर   शर्मसार  होती   हूँ   बहुत   मैं
औरत  की  भी  इस  दुनियाँ  में मंडी है


पहले  सुनती  थी  खुदा  हिसाब  करेगा
इन्साफ की तराजू उसकी भी अब ठंडी है


जिनकी  छत  पर  उतर  जाता  है   चाँद
उन्ही  के  नीचे  दबी  हुई  ज़मीन गन्दी है


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© परी ऍम 'श्लोक'

"जिंदगी.....बेहद आसां हैं तू"

जिंदगी मुझे
तलब है सीखने कि
तुझसे सीखना है बहुत कुछ
बता न 
क्या मुझे सिखाएगी तू ?

 
सुना है मैंने अक्सर
लोग ये कहते हैं
'मौत से मुश्किल है जिंदगी सफर तेरा
हम भी तो देखें ज़रा......... असर तेरा'
आ.....
बवंडर ले कर आ
मैं चट्टान हूँ मुझे हिला....  


मुझे मालूम है
ये सिर्फ अफवाह है
मुझे बनना इसका गवाह है
आ सितम कर में सहूँगी
तू रो भी दे पर में हसूँगी
तू बिछा कांटे मैं चुन लूँगी
तजुर्बा स्वेटर सा बुन लूँगी

और
फिर इक - दिन
जाते-जाते तेरे इस गुरुकुल से
सीना ठोंक बस इतना कहूँगी  

मैं जा रही हूँ
जीतकर ये बाज़ी तुझसे 
'कि जिंदगी देख तेरा खौफ कितना झूठा था
मैंने पी कर देखा ये शरबत बेहद मीठा था'

कितनी आसानी से
जिया है तुझे मैंने 
तूने जो भी दिया
नतमस्तक हो लिया है मैंने

मत गुमां कर कि
बेहद मुश्किल रास्ता है तू
मैं हरगिज़ कहूँगी
जिंदगी.....
बेहद
आसां हैं तू आसां है तू !!!

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© परी ऍम 'श्लोक'

चलो ले चलूँ मैं तुम्हे ...!!


चलो ले चलूँ मैं तुम्हे
दूर कहीं.......

उन घनी वादियों में  
सूरज कि तपन से
पेड़ कि छाँव में
इस ज़मी से उस फलक तक
चाँद कि चमक तक

 
चलो ले चलूँ मैं तुम्हे...
खुशियो की बारात हो जहाँ
हँसी का संगीत हो
जहाँ स्नेह की चादर हो
सकून का बिस्तर हो
जहाँ मैं हूँ और बस तुम हो
संग तेरी प्रीत हो

 
चलो ले चलूँ में तुम्हे ..
जहाँ दरमियान न तूफ़ान हो
जिस तरफ भी देखूं
तेरा चेहरा ही आइना हो
जहाँ जुदाई का न नाम हो
प्यार से हर काम हो 
 
बस यही मेरी आरज़ू है
क्या तेरी आरज़ू है ?

आओ !
हर बुरी नज़र से छिपाकर
अपने दिल में बसाकर 
यहाँ से दूर कहीं.......

चलो ले चलूँ मैं तुम्हे !!

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© परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, October 16, 2014

पापा ने बोला बेटी बड़ी हो गयी :(


पापा ने बोला बेटी बड़ी हो गयी
किसी अच्छे लड़के की तलाश है
 
दौड़ी-दौड़ी आई काकी काम छोड़
पूछा फलाने कितनी की औकात है


सुन तो इक लड़का है मेरी नज़र में
वो बबुआ ऍम. बी. बी. एस. पास है
दो मंज़िला घर लाइट बिजली सब ठाठ-
बाठ है
बस २० तोले का सीकड़..
बी.ऍम.डब्ल्यू कार की माँग-जाँच है

 
इक और बड़के शहर में रहता है
बी.टेक पास है नौकरी तो क्या बात है
बस माँगा है लाख रूपइया और कार
बाकी कोई न माँग-जाँच है

 
इक लड़का है और फला गाँव में
बी.ए पास है और उखाड़ता घास है
उसका जुगाड़ करवा दूंगी
तू कहेगा तो कम में निपटवा दूंगी
उसकी भी कुछ ज्यादा नहीं बबुआ
अँगूठी, घड़ी सोने की और

हीरो स्प्लेंडर की माँग-जाँच है

 
पापा हो गए आग बबूले
पर काकी को कुछ न बोले
घर आये मुँह लटकाये
माँ से बाते की सांय-सांय

जब मुझे पता लगा पूरा माज़रा
पापा को थमाया चना बाज़रा
दिया पापा को अच्छे से समझाए
जो मांगे दहेज ध्यान रखना
मेरी डोली न उस घर जाए
बाद कलप के जीने से बेहतर
आज बेशक मेरी अर्थी दियो उठाय

विवाह शादी नहीं है कोई व्यापार
यह वो सम्बन्ध है जिसमे संसार का है उद्धार


इसलिए
जो मांगे दहेज़ मारो खींच के चांटा
मेरी बस इतनी सी सबसे दरख्वास है

बेटी हो तुम करो अभिमान खुदपर
क्यूंकि हमसे ही तो हर घर आबाद है


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© परी ऍम श्लोक