Friday, July 31, 2015

रूह जलती है दिल दुःखता है

रूह जलती है दिल दुःखता है
याद बन के वो जब उठता है
कितनी बारिश ये सावन ले गुज़री
प्यास दिल का मगर न बुझता है
आईना हो गया है वज़ूद मेरा
लम्हों की ठोकर से जो अब टुटता है
किसी के हो नहीं पाये बरसो
कि उनका घर तो रोज़ बसता है
मुझी में टूट कर ज़मींदोज़ हुए
मेरे अरमानों का भी कब्रिस्तां है
मेरे माज़ी के वो पन्नें मत खोलो
हर लव्ज़-ओ-स्याही से गम रिसता है
उनसे रिश्ता है मेरी साँसों का,
जज़्बातों का, एहसासों का 
है वो मेरी हर इक अदा, हर बयां में
है वो मेरी हर इक शायरी और ग़ज़ल
कहो मैं कहाँ पर छिपा लूँ उनको
जो मेरी आँखों में साफ़ दिखता है

रूह जलती है दिल दुःखता है।

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© परी ऍम.'श्लोक'

Meaning
माज़ी -  अतीत (Past)

Thursday, July 30, 2015

हम दो अलग चेहरे दो शख़्स जुदा

हम दो अलग चेहरे दो शख़्स जुदा
हमारा रिश्ता मानिंद इक बहता दरिया 
दो जुदा कश्ती है हम दोनों की तक़दीर
कौन जाने किस लम्हा कौन डूबे
और कौन पार लगे
कौन वीरान रहे पूरे सफ़र में
कौन भर जाए इस राह में मुसाफिरों से
कौन जाने
किसकी तक़दीर के हिस्से क्या आये 
किसे मिले वफ़ा के रंग जिंदगी में
कौन प्यार की आस लिए ख़ाक हो जाए
न तू मेरी लकीर काट सकता है 
न मैं तेरी तक़दीर बाँट सकती हूँ 
एक ही कोख़ से जन्में हुए माँ के बच्चें
कोई हँसता है यहाँ तो कोई रोता है यहाँ 
सबकी तक़दीर एक जैसी होती है कहाँ।



© परी ऍम. 'श्लोक'

Tuesday, July 28, 2015

ए अजनबी मेरे मसीहा

जिंदगी के रेलवे ट्रैक पर
हर कदम पर मौजूद हैं
दर्द के लावारिस जिन्दा बम
जब भी ये धमाके से फटते हैं
तो लहु हो जाते हैं
आँखों के रेल पर सवार
मेरे मासूम निर्दोष से ख़्वाब
बेवा हो जाती हैं उम्मीदें
धुआँ हो जाता है मन का आलम
ए अजनबी मेरे मसीहा
तुमसे मदद की गुहार है

तुम आओ।
कि भरी तन्हाई में
दर्द के ये जिन्दा बम डिफ्यूज करदो।  

© परी ऍम. "श्लोक"

Tuesday, July 21, 2015

आरज़ू तेरी

मौत आती नहीं रस्ते मेरे 
जिंदगी जीने नहीं देती मुझको 
ऐसे में ए मुहब्बत तुझे 
ख़ुशी का फ़रिश्ता समझा मैंने  
चंद लम्हों का तबस्सुम लब पे 
और ये शिकवा भी बेचैन दिल में 
तू आया कि बेहिसाब गम आये 
डसने लगी ये चुप सी तन्हाई
रोज़ नए ख़्वाब नींदों के दर पर आते 
और फिर यूँ होता कि 
आँख दरिया में डूब कर मर जाते
इक टूटा हुआ मकाँ और बेवा नसीब 
मोड़ दर्द के चंगुल नहीं कोई मंज़िल 
जिस रस्ते ले चली है मुझे आरज़ू तेरी ।  
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© परी ऍम. ''श्लोक" 

Friday, July 10, 2015

तेरे साये में ज़िंदगी

ये बारिश ये बेइम्तिहां बारिश
जुदाई की गहरी रात और ये तन्हाई 
है महज़ मेरी धड़कनों का शोर 
उनकी यादों की बिजलियों से 
सुलगते जाते हैं ये एहसास 
डूबता जाता है दिल का शहर
तैरती हुई मेरे ख्वाबों की कश्तियाँ 
चल पड़ी है लिए अरमानों की बस्तियाँ 
हैं शायद इस सोच में कि 
कहीं किसी लम्हें में आकर 
मेरे साहिल जो तुम हाथ दे दो अपना 
मेरी बिखरी हुई उम्मीदें संवर जायेंगी 
बची हुई ये गमज़दा ज़िंदगी  
गर कुछ देर तेरे साये में गुज़र जायेगी !!
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© परी ऍम. "श्लोक" 

Monday, July 6, 2015

उस हरजाई का कोई पैग़ाम नहीं आता ( ग़ज़ल )

उस  हरजाई   का  कोई    पैग़ाम   नहीं  आता  
मैं त कती  हूँ  राह मगर  क्यूँ शाम  नहीं  आता  

करती है  लाखों   बातें  आँखें  उसकी   मुझसे 
जाने  क्यूँ  लब  पे   ही  मेरा  नाम नहीं   आता  

होगी  कुछ सच्चाई तो  कि धुआँ सा उठता है 
यूँ  ही  तो  सर  पर  कोई  इल्ज़ाम  नहीं  आता 

तुमसे  उल्फ़त ने  ही ये हाल  किया है  अपना 
दिल की किस्मत में वरना शमशान नहीं आता 

दूर खड़ा साहिल  पर बेहिस  तकता है मुझको 
हो मुश्किल चाहे कुछ  भी वो काम नहीं आता

ए इश्क़  तेरी  बस्ती  को कर ले  गम से खाली
इन गलियो में भी  दिल को आराम नहीं आता

कुछ  दर्द जवां  होकर तकलीफ़  बहुत  देते  हैं 
यूँ ही  तो हाथों  में अपने ये  जाम  नहीं  आता 


 © परी ऍम. 'श्लोक'  

Thursday, July 2, 2015

मेरे अंदर के अनाथ प्यार ने

मैंने सोची थी बात फूलों की , 
बहारों की, सितारों की, नज़ारों की 
चाहा था किसी के आँखों में 
बन के ख़्वाब मैं टिमटिमाती रहूँ 
कोई  दिल हो जहाँ बस मैं धड़कू 
कोई ऐसा हो जिसकी ठंडी आहों में 
मेरे खातिर हो तड़प और बेताबी 
उंगली पकड़ कर किसी का मैं भी 
जिंदगी की आख़िरी छोर तक जाऊं  

मगर इस जहां में हर इन्सां 
महज़ अपने लिए ही जीता है
यहाँ पर हर किसी के पैर तले 
किसी दूजे का अरमान कुचला है
बस सोच में ही ये उम्र कटी 
और  मेरा दिल प्यार की एक बूँद को 
बन कर सेहरा जलता रहा 

फिर 
वो दौर भी आया कि 
मेरे अंदर के अनाथ प्यार ने  
आकर सदमें में ख़ुदकुशी कर ली। 


© परी ऍम. 'श्लोक' 

Wednesday, July 1, 2015

मुहब्बत

मुहब्बत
जन्नत की तरह होती है
इससे ज्यादा पाक़
क़ायनात में दूजा कुछ नहीं
हर कोई इसे पाने की आरज़ू रखता है
मगर ये दौलत भी तो 
सबको नसीब नहीं होती  

मेरे महबूब  
इसे बिना हासिल किये
ये बात आख़िर कौन जान सकता है
इस मख़मली सफ़ेद धुंए के पीछे
एक ला-इलाज सा दर्द छिपा बैठा है 

और ये वो दर्द है 
जिसके आगे हयात का हर दर्द 
बेहद ही मामूली नज़र आता है। 


© परी ऍम. 'श्लोक'