Wednesday, April 30, 2014

"आत्मा से साक्षात्कार"

 

मुझे लगा कि आसान है
भुला पाना वो स्वप्न
और मैं तमाम खुशियो के
लिए दरवाज़े खोलती चली गयी
इस बात से बेखबर कि
इन फूलो के तले हैं शूल के गुलदस्ते
दस्तक हुई हुजूम उमड़ा
और फिर से खास होने का
एहसास हुआ मुझे
लेकिन वो परछाईयाँ मात्र थी
उन्हें अंधेरो में विदा लेना ही पड़ा
मैं फिर वहीँ थी
जहाँ वेदना बेध रही थी मुझे
सैलाबों का रास्ता था
मेरे नरम गालो का हिस्सा
कब आता हैं एकाकी का अँधेरा रास
जब महफ़िलो कि रोशनी मुँह लग जाए
मैं जुदा थी लेकिन भीड़ मैं चलती गयी
छनती गयी उनकी तारीफों से
शायद! मैं नादान थी
या फिर इक धार से बहने वाला तिनका
बस बहाव चाहिए था चलने को
मगर इक दिन मेरा आइना सामने आया
वो बोलता गया मैं सुनती गयी
उसने कहा वो जो मैं सोच न सकी
मैंने ख़ामोशी से सर हिलाया
वक़्त लगा समझने में कि
मैं ज़मीन पे हूँ और
कुछ ज़मीनी काम बाकी है मेरे लिए
या यूँ कहो कि मुकाम अपनी
आँखे बिछाये मेरा रास्ता देख रही है
और अब मैं चल पड़ी हूँ
उस दिशा में
नेक परिवर्तन के लिए......!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

बाबा आज उदास क्यूँ??

बाबा आज
तुम यूँ उदास क्यूँ?
तुम्हारे पेशानी पर
आज ये बेवजह का
खारा नीर उमड़ा क्यूँ है

माँ तुम गुमसुम
क्या सोचे जा रही हो
आँखों की चमक में लाली क्यूँ?
क्या विचार विमर्श करती रहती हो
मेरे विषय बाबा के साथ ?

बड़ी दीदी की कथनी सत्य तो नही
की अब मेरे विवाह की चिंता
दीमक की तरह
भीतर ही भीतर खाये जा रही है
आप ही तो कहते हो न
ये जगत का नियम है
बेटियां परायी होती हैं
मुझे भी बुरा लगता हैं
की ये कैसा नियम है जो
अपने ही जननी से दूर करता है
लेकिन फिर सोचती हूँ
बेटियो के माता-पिता तो
दुनिया के सबसे अमीर इंसान होते हैं
कितना बड़ा दिल होता है उनका
जो अपने अनमोल रतन को
भेट कर देते हैं किसी और को
पुरे आदर-सत्कार के साथ

बाबा मुझे पूरा विश्वास है
आपने मुझे
जिस सोच और संस्कर की
नीव का मालिक बनाया है
मैं उसपर नए जीवन के खुशियो का
महल बनाने में कामयाब रहूंगी

मैंने आज तक मेरी बेटी होने का दर्द
आपमें महसूस नहीं किया
फिर आज
उलझनों कि बदरियां
ये सोच का सुनामी
ये व्यर्थ कि चिंता क्यूँ ???

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

"वो पेड़"

कुछ समय पहले देखा था मैंने
साबुत था वो पेड़ जंगल का
मगर आज
उस पेड़ में सांस थी लेकिन 
उसके सारे स्वप्नमयी पात
जमीन पर इक-इक करके
झड़ कर गिरते जा रहे थे
मुझे भय था की कहीं वो पेड़
इन पातो की चिंता में सूख न जाए
लेकिन
फिर मैंने देखा परिवर्तन
उस पेड़ पर नए पत्ते आने लगे थे
और वो पेड़ फिर से हरा भरा हो गया था !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, April 29, 2014

"बिन प्रेम कोई पूरा नहीं"

प्यार बारिश के बूंदो की तरह है
मन के बादलो से जब
झिमिर-झिमिर जीवन धरती पर
बरसना शुरू करदे
तो फिर
न इसकी बूंदो को पकड़ा जा सकता है
न रोका जा सकता है
या फिर यूँ कहो इस सुहाने मौसम से
निकलने का कोई रास्ता ही नही बचता

ये ऐसा महासागर है
जिसकी गहराई का
अंदाज़ा लगा पाना नामुमकिन है
जैसे गूलर का फूल डाल दिया हो
इस भावना में
कि जब पनप उठे
तो फिर ख़त्म होने का कोई प्रश्न ही नहीं!

बिना सरहदो के
इक आवारा पंछी की तरह
हर जगह फिरता है ये
अदृश्य है
सिर्फ महसूस किया जा सकता है
कोई पिंजरा ही नहीं की इसे
कैद किया जा सके!

बेशक ! प्यार अधूरा है वज़ूद से
लेकिन इसके बिना इंसान कभी पूरा नही होता !!





रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"ये आदत नही बदलती"

वो दिन गए जब हमे हासिल थे
तुमसे टेड़े-मेढे सवालात करने के हक़
और हमेशा उनके जवाबो की नोक
अपनी तरफ घुमा लेने की आदत
जब तुम तारीफ में कुछ कहो न तो
खफा हो भवे सिकोड़ लेने की अदा

मगर
अब कुछ नहीं है सिवाय वीराने के
बस हिस्से में आये हैं
उस वक़्त के चंद अवशेष
जिसे निकाल कर बैठ जाती हूँ
कभी-कभी मैं
छिपके-छिपाके अपने आप से
और दिखाती किसी को भी नहीं
लेकिन नजाने क्यूँ आज भी
वो आदत नही छोड़ पायी मैं

सुना है !
बुरी आदते जल्दी नहीं सुधरती

शायद !
तब्दील हो गयी हैं अब ये दीवानगी में
और ये पागलपन ही तो है
खामखा तुम्हारे लव्ज़ों में
खुद को तलाशने निकल पड़ती हूँ
जबकि जानती हूँ
मैं कहीं नहीं हूँ अब तुम्हारे पास
न अवशेषों के तौर पर
न ही तुम्हारी कविता में कहीं लव्ज़ों के तौर पर !!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"यूँ बिखरी न होती"

हाँ! मैं सोचती हूँ तुम्हे उस तरह
जिस तरह तुम कभी सोचा करते थे
आज तुम मेरे ख्यालो से भागते हो
बचाते फिरते हो खुद को मेरे साये से
फेंक देते हो
किसी गुमनाम स्थान पर मेरी छवि
जहाँ किसी की नज़र न पड़े
और मैं इन ख्यालो पर सेंकती हूँ जिंदगी
कितनी अजीब बात हैं
हम वो मुसाफिर थे
जिनकी मंज़िल भी हम थे और रास्ता भी
मगर ऐसे गवांच गए वज़हों की धुंध में
की आस-पास और दूर तलक
खड़े है सर उठाये सवाल ही सवाल बस
नहीं जानती की वो वजह लाज़मी है
या फिर नहीं भी है 
शायद! हो सकता है तुम्हारे लिए
वादो के मायने अलग थे
या फिर तुम
अपने ही भावनाओ से निष्पक्ष नहीं थे 
बहुत बुरा भला कहती हूँ तुम्हे तन्हाई में
झगड़ती हूँ तुम्हारी तस्वीर से
तुमसे कहना-सुनना तो अच्छा लगता है
मगर
तुम्हे भूल जाना जैसे छीलता है मुझे
टांग देता हैं सलीबों पर
और आत्मा तक में कील ठोकता चला जाता है
जानते हो !
जितने प्यार से मैंने तुम्हारी यादें सहेजी हैं
की उसपे इक गर्द भी मैं पड़ने नहीं देती
शायद ! किसी इक भी पल
तुमने मुझे सहेजने की कोशिश की होती
तो आज मैं यूँ बिखरी न होती !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, April 28, 2014

" लो ! हमको....तुमसे इकरार है "


वक़्त को कहो मद्धम करले अपनी गति
मेरे सामने हैं एक लम्बे इंतज़ार के बाद वो
दिल के तुफानो ने सब्र पर मिट्टी झोंक दिया है
या खुदा !
मेरी नज़रो को ताब दे की मैं उसे जी भर के देख सकूँ
खामोशियो को काट दूँ हौसले की धार से
ताकि कह सकूँ तुम्हे धड़कनो की सुलगती दास्तां
बैठने दो इन श्याह अंधेरो में तुम्हारे बेहद पास
झांकने दो तुम्हारी आँखों के दरिया में
उर्फ़ ! के खौफ ये भी है की
डूब न जाऊं कहीं इनकी गहराई में मैं
पढ़ने दो तुम्हारे सुर्ख लबो के
हिलते-डुलते किन्तु मौन भाषा को
निकालने दो नई परिभाषा अदृश्य शब्दों से
हटाओ ये दीवार ह्या की
सुनो मेरे मन की आवाज़ की मैं यहाँ हूँ
तुम्हारे रुखसार की ये चमक
मेरे रूह को तराशती जा रही है
कहीं मैं तुम्हारा दीवाना न हो जाऊं
तुम्हारे हाथो की नर्माईयां
फूलो की कोमल पंखुड़ियों जैसी है
समझ नहीं आता इन्हे सम्भालूँ कैसे?
साँसों की गर्माइयां तो जैसे आग हो
और मैं मोम सा पिघलता जा रहा हूँ
जितना तुम्हारे जुल्फों की लट्टो को सुलझता हूँ
इनमे उतना ही उलझता जाता हूँ
छूता हूँ तो इक बेकाबू सी लहर दौड़ पड़ती है मुझमे
जैसे किसी ने हारमोनियम पे ऊँगली फेरी हो
और वो बिना रुके बजता जा रहा हो
ऐसा मालूम पड़ता है मरते हुए 'श्लोक' को तुमने
अनगिनत साँसों से भर दिया हो
उम्र की सीमा को कई गुना आगे बढ़ा दिया हो
जिंदगी की ख्वाइश सर चढ़ा दिया हो
अब डर लगता है तो सिर्फ मरने से......

हाँ ! अब मोहोब्बत होने लगी है
मुझे आहिस्ता-आहिस्ता मुझसे....
जबसे मैंने पाया है तुम्हे

लो ! हमको....... तुमसे इकरार है
की
तुम मेरी जिंदगी हो गयी हो !! 


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"तुम्हारी यादो से जूझती मैं"

नजाने क्यों सोचती हूँ तुम्हे
जबकि जानती हूँ की
इसका कोई अर्थ ही नहीं
फिर भी घिसती रहती हूँ
हर स्वाश तुम्हारी यादो के सिल पे

तुम ही बताओ...
क्या होता है ऐसा तुम्हारे साथ भी
अगर नहीं तो फिर क्यूँ
हर घड़ी मुझे
अपने गिरफ्त में रखते हो
दूर जाकर भी तुम
क्यूँ आज भी नज़रे
गाड़े हो की मैं तुम्हारी रहूँ

कभी कभी सोचती हूँ
तुम्हारी यादो की उंगली पकड़
उसे किसी मेले या भीड़-भाड़ में
ले जाकर छोड़ आऊँ
ताकि वो कोशिश के बावजूद भी
मुझतक न पहुँच सके
या फिर
किसी कमरे में जाकर
सारे खिड़की दरवाजे बंद कर दूँ
उतार दूँ वहां से तुम्हारे ख्यालो के
हर कोने में फैले हुए जाले
जिसमे मैं मात्र
इक चींटी की तरह फसी हूँ
रख लूँ अपने हृदय पे
अनगिनत चट्टान
जिसके तहो के नीचे से
तुम्हारे लिए एहसास कुलबुला न सके
काट लूँ सारे रास्ते
जो मुझे तुमसे जोड़ते हैं 

नजाने क्यूँ ?
गाड़ती चली गयी तुम्हे इस तरह 
अपने मन के भीतर
और अनाहक में पाल बैठी बेहिसाब दर्द 
सच तो यही है
आज यूँ तुम्हे खुद में से पल-पल
निकालने की नाकाम कोशिश
मुझे जीवित तो रक्खे हैं
मगर लगातार समाप्त करती जा रही है



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, April 26, 2014

"वो सितारा कहाँ ढूँढू"

मैं कहाँ ढूँढू अब
वो सितारा
जो आसमान से टूट गया
नजाने किधर होगा
किसी पेड़ पे अटका होगा
तो जुगनू घेर लेंगे
और वो मुझे भुला देगा
गर वो पहाड़ पे गिरा होगा
तो बर्फ से ढक न जाए कहीं
कहाँ होगा ये सोचके
मन विचलित हो जाता है
हर रोज़ जिसे तकती हुई
आँखे सोया नहीं करती थी
किसने छिपा लिया है उसे
कहीं चाँद ने जलन में कोई
साज़िश तो नहीं कि
या कोई और तोड़ ले गया
जो मुझे बेहद अज़ीज़ था
लेकिन मैंने तो
कई हज़ार सितारों में 
बस इक ही सितारा माँगा था
वो भी किसी से देखा न गया
या तो वो पहले ही बहुत नायब था
या फिर मेरे निगाहो ने
उसकी अहमियत बढ़ा दी थी !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Friday, April 25, 2014

!! तुझे लगा कि ग़ज़ल कह रहा हूँ !!

तुझे लगा कि ग़ज़ल कह रहा हूँ
और मैं दिल कि बात कहता गया

मैं अपने लव्ज़ों के आईने में
सिर्फ तेरे अक्स को जड़ता गया

तेरी रुख़्सार कि चमक लब कि लाली
उर्फ़ ! मैं कितने सितम सहता गया

तेरे निगाहो के समंदर में उतरा
मुझमे उतना ही प्यास बढ़ता गया

तूने जब भी मेरा नाम लिया
मेरा हुनर परवान चढ़ता गया

तेरे ख्यालो कि बारिशो में भीग
न पूछ कितना मैं निखरता गया

तूने जब भी मेरा हाथ थामा
जिंदगी जीने का शौक बढ़ता गया



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! क्या तूने दस्तक यहाँ दी है ?!!

आज फिर इस तन्हाई ने हदें तोड़ी
तेरी यादो की महफ़िल सज़ा दी है

मैं प्यासा न मर जाऊं कहीं
आंसुओ की नदियां बहा दी हैं

चिराग बुझ के अँधेरा न करे
लो रूह तक मैंने जला दी हैं

जहाँ तक देखू तू नज़र आये
निगाहों में तस्वीर बना ली है

तेरी खुश्बू सी मुझको आई है
किसने एहसासो को हवा दी है ?

मुझे आहट सुनाई पड़ रही है
क्या तूने दस्तक यहाँ दी है ?

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! रात ख्वाबो के छलावों ने संभलने न दिया !!

रात ख्वाबो के छलावों ने संभलने न दिया
सुबह पैरो के छालो ने चलने न दिया

जिंदगी की बदसलुखियाँ आस्मां तक थी
इक फूल भी इस चमन में खिलने न दिया

गर्म हवाओ के आग़ोश में था मैं मगर
तेरी खलिश ने मुझको पिघलने न दिया

या तो वो बेवफा है या फिर मैं बद्नसीब
किस वजह से इन फासलों ने मिलने न दिया

तेरे इंतज़ार में बैठा हूँ गहरे जख्म लिए
वक़्त के धागो से बरसो इसे सिलने न दिया

कैसे कोई ओर नगमा गुनगुनाता मैं भला
तेरी यादो ने अपनी गिरफ्त से निकलने न दिया

तेरे ख्याल से उभरा भी नहीं मैं आजतक
आवारा सोच कोई अपने जहन में पलने न दिया

कौन सा इम्तिहान बाकी है सफर-ए-इश्क़ का बता
दिल की दीवार पर इक छीटा तक पड़ने न दिया

मौत बड़ी देर दरवाज़ा खटखटा वापिस चली गयी
उन फरिश्तो को भी अपने घर में हलने न दिया

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, April 24, 2014

"नहीं हूँ मैं कहीं"

















मेरे जीवन का हाल मत पूछो
बस इसमें नहीं रहा
किसी मौसम का अर्थ
सावन-भादव, बरखा-बारिश
सब हीन और दीन हो चुके हैं
पुष्प तो नहीं मगर
कुछ कांटें अवश्य बचे हैं
अरमान सभी सूखे पत्तो कि तरह
झड़ता चला गया
अब इन पत्तो को वक़्त के चूल्हे में
लगातार झोख कर
भरती हूँ पीड़ा का पेट
सपनों का चुरखना
गिर गया है जीवन पथ पर
हर स्वाश इसकी चुभन से
बिलख पड़ता है
सांत्वना कि सूती धोती
गल के अब पूरी तरह फट चुकी है
दुःखो से हाथ मिला कर
चलने का समझौता ही
रह गया है शेष
अगर तुम सुन रहे हो तो सुनो...
नहीं हूँ मैं कहीं..........
जबसे नही हो तुम कहीं !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, April 23, 2014

"वश कि बात नहीं"

तुम जीवन हो
नजाने कितने रहस्य लिए
चलते हो
अपनी गठरी में साथ
जब इन्हे परोसते हो तो
सबको हैरान कर देते हो

सोचती हूँ कि
मै तुम्हे समझती हूँ
किंतु मैं जितना तुम्हे समझती हूँ
तुम उससे कई कदम
आगे बढ़ जाते हो
तुम अभिव्यक्त नहीं करते
हमेशा मौन रहते हो
या
यूँ कहो तुम इशारा करते हो
किन्तु हमें इसका आभास नही होता
परन्तु तुम्हारा प्रभाव हममे चीखता है
कभी सुख का गुलशन खिल जाता हैं
तो कभी दुःख में अश्रुओ का सागर

हर दिन तुम्हारे अध्याय कि
कहानी परवर्तित होती हैं
तुम्हे लिख के
सबको व्यक्त कर पाना भी
घटनाओ कि प्रेरणा से
ज्यादा कुछ नहीं

मैं तुम्हे जानती तो हूँ मगर ...

सच कहूँ तो
यदि मैं कई वर्षो तक
तुम्हारी आँखों में
बिना पलक झपके झांकती रहूँ
तब भी
तुम्हारी मंशा को जान पाना
मेरे वश कि बात नहीं है !!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"खत में"

कौन हो तुम ?
तुम्हारा नाम क्या है ?
और रहते कहाँ हो ?

ये पर्दा हटाओ
मुझे देखना है तुम्हे...

बस कुछ बेहिसाब सवाल
कुछ जिद्द का फरमान
कुछ हुकुम तो
कुछ इन्तेज़ा

मत पूछो कि
और किस तरह

लिखा है मैंने खत में
उसको जानने कि आरज़ू !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

" आह ! माँ-बाबुल " (गीत)

आह ! बाबुल मेरे तू क्यूँ रोये
माँ तू क्यूँ बुरा अपना हाल करे
मेरे भाग्य जो लिख्या रब ने
हम चले आज वो तकदीर लिए

सलमा सितारों की चुनर पहना
फिर भी कुछ न भाये मुझे   
अपनों को बिसरा के क्यूँ बाबुल
अजनबियों को मोहे सौप दिए

सोच-सोच के मोहे डर लागे
अपना देश छोड़ परदेस चले

तेरे घर के आँगन मे खेली
छूटी जाएंगी सारी सखी सहेली
किसने रचया ये रीत विरह की
होती है मुझको तो पीड़ बड़ी

याद आएँगी माँ तेरी बातें
भूलूंगी कैसे ममता की सौगातें
बाबुल मैं तो तेरी सोन परी थी
उड़ गयी आज पंख लगाके

सुन ! बाबुल जी.. न अपना जलायो
बेटी का जीवन कौन बदल पायो
राजा-रंक भी हारे इस चलन से
कोई अपनी बेटी रोक न पायो

आह ! बाबुल मेरे तू क्यूँ रोये
माँ तू क्यूँ बुरा अपना हाल करे!!!


गीतकार : परी ऍम श्लोक

(ये गीत मैं हर उस इंसान को समर्पित करती हूँ जो किसी बेटी के माता-पिता है )

Tuesday, April 22, 2014

"वृद्ध व्यक्ति"

वो वृद्ध व्यक्ति
मंदिर की सीढ़ियों पे
भूखा-प्यासा बैठा
सर्द हवाओ के जूझ रहा था
याद कर रहा था
स्वर्गवासी पत्नी को
अपनी उम्र को कोस रहा था
बेबसी के श्रापित आंसू
पी रहा था
समय की ऐठन से
उसका शरीर टूट रहा था

उसके साथ कई रिश्ते थे
जब वो जवान था स्फूर्त था
आज उसका कोई नहीं
वो बच्चे भी नहीं
जिनके अरमान पूरे करते-करते
उनके काँधे झुक गए हैं 
चेहरा झुर्रियां गया है 
और
टूटे सपनो ने चुभकर-चुभकर 
उनकी आँखों की रोशनी मद्धम कर दी है 

ये वही व्यक्ति है
जो अपने घर का मुखिया था
परन्तु आज वो
उस घर का नौकर भी नहीं रहा
फेक दिया गया उसे घर से बाहर

इस तरह से
उनकी अंतिम क्षणो की चंद साँसे
उन बच्चो पर बोझ हो चली हैं !!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, April 19, 2014

"उम्र के बढ़ते दौर ने"


क्या से क्या
बना दिया मुझे
उम्र के बढ़ते दौर ने
कुछ भी करने से पहले
कितनी गहरी विचार की
खायी में उतारना पड़ता है
गणित के सवालो की तरह
गुना-भाग करके
शेष क्या आएगा
उसके बिनाह पे होते हैं
आज फैसले
और
उनमे भी भय का सिरका
घुला होता है

जब मैं छोटी थी
तो सोचती थी की
अपने मन की करूँ
आज चाहती हूँ
सब सोच-समझ से करूँ
कहीं कोई बारीक सी
गलती भी न हो मुझसे

सच ! कभी-कभी
हैरान हो जाती हूँ मैं
अपने आपको ऐसा देख कर
जिसके खिलौने भी टूटते थे
तो वो पूरा आँगन
आंसुओ से भर देती थी
आज सपने टूटते हैं
और
वो उर्फ़ भी नहीं करती
झेल जाती है मुस्कुरा के सब

कभी-कभार तो
अपने ही दर्पण से
ये पूछने का मन हो जाता है
क्या मैं वही लड़की हूँ ?
जो बेफिक्र थी मस्तमौला थी

अगर हाँ !
तो फिर आज ये माथे पे
चिंता की अनगिनत लकीरे कैसे ?
जिसे किसी के सांत्वना की रबड़ भी 
मिटो नहीं पा रही हैं  !!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

" क्या हूँ ?? "


तुम्हारे बिना....
मैं क्या हूँ ?

ऐसा पुष्प जिसमें महक नहीं
ऐसा पेड़ जिसमें फल नहीं
या ऐसा सरोवर
जिसका पानी सूखा हुआ है
ऐसा पर्वत जो मात्र रेत का टीला है
हर झोका जिसे ढहाता जा रहा है

कदाचित
तुम्हारे साथ होने पर
मैं सर्वश्रेठ बन भी जाऊं
तो क्या ?
उस ख़ुशी को तुमसे साँझा कर सकूँ

उस एहसास का एक कोना भी छू सकूँ

ये जीवन जी भी लूँ
तो क्या ?
जब हर स्वाश
अधूरेपन की पीड़ा से भर दे

तुम्हारा होना ही
मेरे सम्पूर्ण होने का प्रमाण है
जिसे किसी भी कीमत पे
नाकारा नहीं जा सकता !!!



रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Friday, April 18, 2014

!! बुझ जाना नहीं सीखा !!

ये बात और है कि ये काफिला नहीं जीता
हमने मगर लड़खड़ाना भी नहीं सीखा

आएगी इक दिन ये बाज़ी मेरी मुट्ठी में
क्यूंकि हमने पीठ दिखाना भी नहीं सीखा

हम हवा जैसे हैं जिस और चाहें मुड़ जाएँ
इन पर्वतो से टकरा के गिर जाना नहीं सीखा

जब चिराग नहीं तो जीस्त अपना जलता हैं
इक फूक से हमने बुझ जाना नहीं सीखा

वक़्त शूल है तो हम भी फूल गुलाब हैं
इनकी चुभन से हमने बौखलाना नहीं सीखा

हम खुद इक सवेरा हैं चाँद-रातो से जलन कैसी
यूँ बैचैन हो हमने तिलमिलाना नहीं सीखा 

हम समंदर हैं बादलो को नमी देते हैं
बूंदो से गड्ढो कि तरह भर जाना नहीं सीखा

जब मैं नहीं बोलती तो मेरा फन बोलता हैं
जिन्दा होकर भी कफ़न में मुँह छिपाना नहीं सीखा

मुझे मालूम नहीं मैं तारीख में आउंगी या नहीं
मगर इस भीड़ में मैंने राई बन जाना नहीं सीखा  

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! इक चेहरा से रहे !!

नजाने क्यूँ तुम हमसे खफा-खफा से रहे
मेरे होकर भी मुझसे जुदा से रहे

तुमने तो कह दिया कि बहुत मुश्किल है
हमारे रास्ते भी कब मगर आसां से रहे

हसरते तो इक पल में श्याह हो गई
ख्वाब हकीकत की वादियों में धुँआ-धुँआ से रहे

जहाँ भी देखा तुम ही नज़र आये मुझे
हज़ार चेहरों में तुम इक वो चेहरा से रहे

जुस्तजू ने तेरी रवानी रखी है सांस में
हम जिन्दा भी यहाँ बस तेरी वजह से रहे

अपने साये को भी पास आने न दिया
भीड़ माकूल थी हम मगर तनहा से रहे


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

!! मैंने कब कहा की तुम मेरा साथ दो !!

मैंने कब कहा की तुम मेरा साथ दो
जिंदगी के पास मेरे ऐसी मज़बूरी तो नहीं

धूल ज़मी है अभी तो तन पे
होश जिन्दा है मैं अभी मरी तो नहीं

किसको सलामी दूँ मैं खुदा समझ
बेदाग़ यहाँ कोई भी आदमी तो नहीं

वो मुझे पूरा करने का दम भरता है
कहीं मैं सच में उसके बिना अधूरी तो नहीं

इसकी गोद में भी न सो सकूं सकून से
इतनी संगदिल ये मेरी सर-ज़मी तो नहीं

कोई पढ़ के फाड़ने की हिम्मत जुटा सके
मेरी दास्तान इतनी भी बुरी तो नहीं

मुझे आदत है जीने की पूरे गुरूर से
श्लोक की गैरत कहीं से अधमरी तो नहीं 

जो गुजर गया वो बुरा था मैं सोचू क्यूँ
हर अदा को अंजाम मिले ये भी ज़रूरी तो नहीं

(c) परी ऍम 'श्लोक'

Thursday, April 17, 2014

!! वो वक़्त भी आएगा जब खुदा रो रहा होगा !!

सोचता हूँ की यही पे आशियाँ बना लू
आगे गया तो और जाने क्या होगा ?

इतना काफी नहीं जो मिला इनाम हमें
अब इससे ज्यादा भी और क्या बुरा होगा ?

कर दी है धरती लाल आसमां काला
इंसान किसकदर और अब हैवा होगा ?

आज कल अपने साये से डर जाती हूँ
इसके हाथो में भी कोई खंज़र छिपा होगा ?

न मैं कह पाउँगा न तुम सुन पाओगे
एहसास इक दिन ऐसा बेजुबान होगा ?

प्यास होगी उफान पे हर इक जर्रे में
मगर सूखा हुआ हर झील और दरिया होगा  

बदला हुआ चेहरा देख कर कायनात का
वो वक़्त भी आएगा जब खुदा रो रहा होगा


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! पाँव यूँही जलता रहा !!

तेरी ज़ुस्तज़ू में डूबता रहा निकलता रहा
मैं थका भी था सफर में मगर चलता रहा

इक तलाश में अंगारो से गुजरना पड़ा
मैं कहीं खोया था ये पाँव यूँही जलता रहा

यूँ तो मुझे खुद से कोई ख़ास मोहोब्बत न थी
मगर वो तू था जिसके लिए मैं संभालता रहा

जब खामोश मिली सारी सदायें आर-पार तक
तब भी तू मेरी साँसों में इक लय से चलता रहा

तूने नजाने कब धड़कनो में जगह बना ली
मैं तमाम रात तेरी सोच में करवटे बदलता रहा

बना कर छोड़ आया था इक अक्स किनारो पर
तबसे हर लहर बस इक ही सवाल करता रहा

जब भी दिए की रोशनी बुझाई है अँधेरे में
तू नींदों से उतर ख्वाबो की जगह मलता रहा

सुबह जब तू दूर तक नज़र नही आया मुझे
मैं बेसब्र होकर आँख अपनी मसलता रहा

ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

!! अपने कांधो पे रिश्तो को ढोती रही !!

माँ है खुदा इस ज़मीन की
पत्नी जिंदगी आदमी की
बहन कड़ी हैं रिश्तो की
हर गुलशन की महकी सी
कली बेटी रही है

इस समझ से परे...

पुरुष समाज ने शोषण किया
औरत यहाँ शोषित होती रही है

कीचड़ को अपने दामन पर उलच् कर
अपने आंसुओ की धार से धोती रही है

सबने अपने लिए इसके सपने तोड़े
अपनों के लिए जो खुशियां पिरोती रही हैं

खुद से कभी उसे मिलने नही दिया गया
वो अपने कांधो पे रिश्तो को ढोती रही  हैं

सबकी मुस्कराहट बरकरार रहे ये सोच
अपने टीसो को झूठी तसल्लियाँ देती रही हैं

तुमने बदल दिया हैं सारे मायने इनके
तुम्हारी दीद में तो बस इनकी बोटी रही है

इस बात से तो वाकिफ समाज सारा है
मेरी कथनी कहाँ अलग और अनोखी रही है

कौन सा कानून बदल पाया है सोच ऐसी
मानसिकता से तो मानवता जलील होती रही है



Written By : परी ऍम 'श्लोक'

!! हम जीत हैं जीतने का मश्वरा देते हैं !!

कैसे मैं इन गमो से नाता तोडू ?
मुझे हर वक़्त ये जीने का मज़ा देते हैं

पत्थर जितने मेरे सीने पे आ लगते है
मोहोब्बत की धुन को सर पर चढ़ा देते हैं

ठोकर जितनी मैं इन राहो से खाती हूँ
जिंदगी क्या चीज़ है मुझको बता देते हैं

अँधेरे जितनी बेरुखी से मुझको देखते हैं
हम मशाल उतनी ही तेजी से जला लेते हैं

ख्वाब के टुकड़े जब भी आँखों में चुभते हैं
ये आँसू दर्द को सहने का हौसला देते हैं

नसीब की जब भी तस्वीर बिगड़ जाती हैं
हम इसके नूर को हसीं रंगो से भर देते हैं

हम कायर नहीं हैं हारना फितरत में नही मेरे
हम जीत हैं और जीतने का मश्वरा देते हैं


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

!! मैंने तो बेवजह ही ख्वाब देखे !!


हसीं लम्हों की अनकही सी दास्तान
अपना चेहरा आहिस्ता से बदल रहा था

मुझे लगा की सुबह चल के आई है
रोशनी की सूरत में मगर सूरज जल रहा था

उसकी आँखों में इक प्यास अलग सी थी
जो मेरे दिल पे हुकूमत कर रहा था

अब तक मैं बेखबर रहा इससे
कोई तो आग थी जिसमे वो पिघल रहा था

मैंने भी कहाँ कोई दर छोड़ी
हर जगह उसके लिए ही दुआ कर रहा था

मैंने उसके ख्वाइशों को रास्ता दिया
खुद सारे अरमां अपने कुचल रहा था

मैं पागल गम से हाथ मिला लिया
और समझने लगा की मैं संभल रहा था 

मैंने अपनी मुट्ठियाँ तो नहीं खोली
मगर वो रेत सा फिसल रहा है

मैं बेबस था कैसे रोकता उसे
वो झोंका मुझे छूकर निकल रहा था

मैंने तो बेवजह ही ख्वाब देखे
मैं वो रहा ही नहीं जो कल रहा था


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

!! दाग वो छुड़ाने लगी !!

मैं रगड़ के दामन से दाग वो छुड़ाने लगी
मेरा कसूर क्या था दुनिया उंगलियाँ उठाने लगी

अपने गिरेहबान में किसी ने झाँका ही नहीं
तुम्हारे रचे माहौल से मैं हर वक़्त छलि जाने लगी

वो दर कहाँ था जहाँ फब्तियां नहीं सुनी मैंने
ये हवाओ की हलचल भी अब तो मुझे डराने लगी

ये दुपट्टा भी किसी काम का नहीं रहा अब तो
इन आदमियो की नज़र सीने के पार जाने लगी

घुटन बहुत है कोई तो बाहर निकाले मुझे
अब छत की बुलंदियों से भी मैं खौफ खाने लगी

कोई चीज़ तो नहीं हूँ मुझे बेच-खरीदा जाए
ये वज़ूद जाने क्यों मुझे जिल्लत महसूस कराने लगी

ज़ोर क्यों तुम्हारा मुझपे ही चलता है
कभी घरेलु हिंसा से तो कभी कोख में मारी जाने लगी

सुनो ! मुझसे तो आगे अब नहीं लिखा जाता
'श्लोक' की कलम तकलीफ से डगमगाने लगी


Written By : परी ऍम 'श्लोक'



 

!! मंदिर-मस्जिद कब इंसान बांटता है ? !!

मैं अकेली कहाँ ? जो शहर में गमज़दा है
मेरे पीछे तो अभी बेहद लम्बा काफिला है

कुछ इक ने जिंदगी को किसी मोड़ से बदला
तो किसी ने सब वक़्त पे छोड़ा हुआ है

मैंने हर रात जलाये रखी आत्मा अपनी 
मेरी बेटी इन अंधेरो से जबसे ख़ौफ़ज़दा है

ये जान कर कैसे सोती भला मैं सकूं से
की मेरे घर का दरवाज़ा तो टूटा हुआ है 

मैं अपनी भूख की सोचती तो कैसे ?
मेरी रोटी तो वो गरीब बच्चा मांगता हैं

सब कोई गुम है साम्प्रदायिकता की धुंध में
वरना मंदिर-मस्जिद कब इंसान बांटता है ?


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, April 16, 2014

!! जिंदगी नहीं देते !!

ये चिराग रोशनी नहीं देते
उम्मीद हम भी बुझने नहीं देते

तुम बीन ले जाओ बेशक तमाम ख़ुशी
मगर हम अपनी जिंदगी नहीं देते

अभी बाकी है कई नेक काम मेरे लिए
हम अपनी सोच की सादगी नहीं देते

हवाओ को कहो जिद्द न करे मुझसे
हम अपने वज़ूद की खुशबु नहीं देते

रात में तमाम रात तिलमिलाहट रही
कहा हमने जब उसे नींद-ए-सकूं नहीं देते

हमने तो शबनम पिया हर लम्हा
हम किसी को ये शराब नहीं देते

चलना है तो मेरे साथ चलो
वरना हम अपनी याद नहीं देते

तुम लिख के कोई इतिहास बना दोगे 
जाओ हम अपने हालात नहीं देते

तुम पलट के आओ या न आओ
हम तुम्हे अब आवाज़ नहीं देते


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, April 15, 2014

"कमी सी रही"




तू नहीं तो जिंदगी में
यूँ कमी सी रही
नदियां उलची गयी
मगर प्यासी जमीन सी रही
वो बात लिख के रक्खी हुई है
सीने में दफ़्न करके
जस्बात की साँसे
आज भी सब्र के पत्थरो में
दबी फसी सी रहीं
ये इंतज़ार हैं की
खत्म ही नही होती
अब रात चुप है और
चांदनी भी बुझी-बुझी सी रही
वक़्त ने धूल झौक कर
बहुत बुझाना चाहा लेकिन
ये मशाल आंधियो में भी
तेरे नाम से जली सी रही
सिहरन होती रही
हर साया डराता रहा
मगर हौसले की मुट्ठी
इसके बावजूद बंधी सी रही
कांटो ने फूलो की शक्ल ले गड़ाए शूल
मेरे लबो पे उस पल भी हसी सी रही..

बस इक बात सोचती हूँ तो
दर्द होता है मुझे भी
इतने फासले तो तय किये हैं मैंने
फिर भी क्यों ?
हमारे दरमियान इतनी दूरी सी रही !!!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'


Monday, April 14, 2014

"कहूँ किससे ?"


कुछ शब्द हैं मन के कोरो में
कहूँ तो किसको कहूँ ?
कौन हैं ?
जो समझ पायेगा मेरी व्यथा
आंसू छलक गए
ये प्रश्न सामने पड़ते ही
और मैं न चाह कर भी
डूब गया पीड़ा के छोरो में
अब लगातार उसपे अवसाद
जमता ही जा रहा है
मैं हलुकाता कैसे भला ?
ये दाब तो बढ़ता ही जा रहा है
अब न मुख खोल पा रहा हूँ
मुझे इन तहो से निकालो 
न ही ये बोल पा रहा हूँ
सब ठन्डे पड़े हैं अपने हित में
उबाल आज किसी में नहीं
कहूँ तो किससे कहूँ ?
उठो चलो सोचो उनके लिए
जो बेचारे हैं
मिला नहीं ढूंढे से भी 
ये समझ माटी के गोलों में
जाकर फिर ठहर गयी ये बाते
जहन के गुमनाम पोरो में
मैं देख सका न प्रेम-त्याग
कभी औरो में
किससे साँझा करूँ 
जो शब्द कुलबुला रहे हैं
आज भी मेरे
आकुल मन के कोरो में !!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, April 13, 2014

"हर वो बात"

















समझ नहीं आता
कि ये अजनबी सा
सुरूर आखिर रवां क्यों हैं ?
ये तुमसे
मुलाकातों का असर है
या फिर कुछ और
क्यूं तुम जाते नहीं इक पल भी
मेरे ख़्याल से दूर कहीं
क्या है ये असर
दरासल इसे कहते क्या हैं ?
कभी सोचती हूँ
कि तुम सामने आओ
और तुम्हे बता दूँ सब कुछ
मगर फिर
जब तुम सामने आते हो तो
ख़ास होने के
गुमां में आ जाती हूँ
और आरज़ू करती हूँ
कि तुम कहो हर वो बात
अपनी जुबान से
जो मेरे मन में तूफां से हैं
अज़ब पागलपन है न ??
इस यकीन का सबूत भी नही
कि ये हलचल
दोनों ओर इक जैसा
हैं भी या नहीं
मगर सुनना चाहती हूँ फिर भी
तुम्हारे ज़स्बातो के लहज़े में
हर वो बात जो बिल्कुल
वैसा हो जैसा कि मैं
तुम्हारे खातिर  ....
अक्सर महसूस करती हूँ मुझमे !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

Friday, April 11, 2014

"यूँ समेट लूँ ख्वाब"

यूँ समेट लूँ ख्वाब
कि फिर टूटा न लगे
तकदीर का नन्हा बच्चा
मुझे रूठा न लगे

मूँद लेती हूँ दिल कि तरह
ही आँखे अपनी
और फिर कोशिश करुँगी 
कोई मुझे झूठा न लगे

रोती हसरतो को
घर पहुँच के चुप कराना है
ताकि
जिंदगी के अलमारी से
खुशियो का खजाना लूटा न लगे

मैं हर जर्रे में
प्रेम का पौधा लगा दूंगी
कि फिर इस ज़मीन में
नफरत का कोई बूटा न लगे !!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

Wednesday, April 9, 2014

"कुछ कहती है जिंदगी"

जिंदगी कुछ कह रही है
बहुत अलग सी बात
हर इक राह पर
मुझे बताने कि
कोशिश करती है जैसे वो
जिससे रह-रह के वो मुझे
महसूस करवाती है
और ऐसे मंज़रो से मुझे
वाबस्ता करवाती रहती है
जो मुझे झकझोर के रख देते हैं
क्या इस कदर
काबिल मानती है जिंदगी मुझे
जो इतने महान काम के लिए
मुझे प्रेरित किये जा रही है !!
मैं समझती तो हूँ
मगर
यकीन से नहीं कह सकती
कि जो मैं सुन पा रही हूँ
क्या
यही वो बात है जो
जिंदगी अपने मूक शब्दो में
मेरे दिल-दिमाग में
गोदती ही जा रही है !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! सीधी सी बात है !!


बेशक कि मुश्किलें बेहद हज़ार हैं
मेरे राहे किरचों में गिरफ्तार हैं
मगर फिर भी मैं
ये कहने से हिचकिचाऊं क्यूँ ??
ए जिंदगी......
तू जैसी भी है लेकिन
मुझे तुझसे फिर भी
हद से ज्यादा प्यार है.....

तेरी चमक से मैं हर सु नहायी हूँ
आज जिस मुकाम पे हूँ
तेरी वजह से आयी हूँ

ये झूठ होगा अगर कहूँ
कि मैं बेकरार नहीं
गमो के साये का मेरे पास शुमार नहीं
मगर शिकस्त
अपने हौसलो में नहीं लिखवाया मैंने 'श्लोक'

सीधी सी बात है
हार का मुझसे कहीं कोई सरोकार नहीं !!


ग़ज़लकार: परी ऍम श्लोक

Tuesday, April 8, 2014

"कुछ तो हुआ है"


"शर्मिंदा हूँ"

धुँआ धुँआ है ख्वाब मेरे
हकीकत है राख-राख से
औरत है हम बिन सवाल के
जलेंगे बात - बात पे

सन्नाटे हसके गुजरेंगे
लूक मुरझा देंगी अपने अंदाज़ पे
हम बोलेंगे तो इज्जत उछलेगी
लोग कहके लगा देंगे लगाम आवाज़ पे

कुछ हसरतें मैंने मिटा दी
कुछ लिए फिर रहे हैं रिश्ते बिसात से
मैंने तो कद्र सबकी कि
मगर सब खेलते रहे मेरे जस्बात से

आज कुछ सपने मैंने तोड़ दिए
कुछ रक्खे हुए हैं ताक पे
ये कसक जो जिन्दा है मुझमे
शायद जाकर मिटेगी आखिरी सांस पे


मै शर्मसार हूँ शर्मिंदा हूँ
कि शरीर के नाम पे आँखों में जिन्दा हूँ
न बुझ सकी न जला सकी ये नीयत
मैं भावुकता से कैद वो परिंदा हूँ !!!!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

"कहूं या न कहूं"

जुबां तक आकर
इक बात रुक सी गयी है
अब न भीतर समा रही है
न ही ये बेबस तमन्नाये
कुछ बयां कर पा रही हैं 
बस इस ख्याल से
कि तुम
खफा न हो जाओ सुन के
ये बकरारियां बेहिसाब मेरी
सोचती हूँ कि
रोक लूँ हमेशा के लिए
बर्दास्त के घरोंदे में
ये उलझी-पेचीदी सी बात
नशा और खुमार ला देती है जो
तेरे वहम का शुमार ला देती हैं जो
क्या करूँ ??
रहने ही दूँ या फिर ले चलूँ
अहसास कि नदी को
मन के सागर तक बहा कर 
लेकिन फिर अचानक ये ख्याल आता है कि
ये कश्मकश तुम्हे आखिर
कहूं या न कहूं !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

"इजाज़त"

 
बहुत मेहनत कि है
खुदा तूने....
मेरी तकदीर लिखने में
अब बस भी करो

मेरे हाथ में दे दो
ये कलम और ये पन्ना
अब आगे कि तकदीर

मैं खुद लिखती हूँ !!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, April 7, 2014

"प्राप्ति"

वक़्त ने
बड़ी निर्दयिता के साथ मुझे
हालाती आग के
चंगुल में झोंक दिया
और
मैं निरंतर तपती रही
इस दौरान मैंने
उस भट्टी में देखा 
कोयलो को नीला होते 
लकड़ियों को काला होते
पत्तियो को झुलसते
मिट्टियों को पकते हुए
सब कुछ समाप्त होते
और उनकी पीड़ा को
भांपती चली गयी हर पल के साथ 
अन्देशा था कि शायद
मैं भी राख मात्र हो जाउंगी
क्यूंकि पीड़ादेह है ये आँच
लेकिन
मैं हर ताप के साथ
पीली होती चली गयी
उस आग ने मुझे सोना बना दिया था
जिस आग में नजाने
कितने शून्य हो गए थे !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

Sunday, April 6, 2014

"गीता"

सच है री !
सखी मेरी
इस जहान में
लोगो का ताँता है
पर तेरे बिन इस भीड़-भाड़ में
मन खुद को अकेला पाता है
तेरे संग रह मैंने जाना
दोस्ती का महत्व जीवन में
जो खून का रिश्ता भी
कभी-कभी निभा नहीं पाता है
है याद मुझे नवरातों में
संग मंदिर में मिल के जाना
वहाँ बैठ संगती में
खूब गीत-भजन मिलके गाना
इक जैसे रंगी कपड़ो में 
फोटो मिलके खिचवाते थे
अपनी दोस्ती पे स्मरण है तुम्हे?
हम मिलके कितना इठलाते थे
मैं जब शाम कार्यालय से
थक हार के घर को आती थी
पूरे दिन का ब्यौरा कैसे
तुझको बतलाती थी
ऐसी कितनी सुनेहरी यादे
मैंने जीवन कि किताब में लिख डाली हैं
जिसमे हैं दिवाली के पटाखो का शोर
और संग में होली के रंगो कि लाली है
आखिर वो दिन थे गुजर गए
हम तुम इक दूजे से बिछड़ गए
तू चली गयी जल्दी परदेश सखी
हम इसी आँगन में ठहर गए

कितनी अज़ीब बात है न ?
तू भी गुड़िया मैं भी बिटिया
पर कितना भाग्य हमारा बांटा हैं
नजाने क्या सोच सोच के
लिखता तकदीर विधाता हैं !!

रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"
(अपनी सहेली गीता को प्रेम और स्नेह के साथ )

Saturday, April 5, 2014

"जब रात चली" ( गीत )

लेके चिराग हाथो में
जब रात चली
तब तेरे बारे में मेरी
उससे बात चली.....

उसने मुझे बताया
तू अभी रुबरु है चाँद से
मैं झट से दौड़ के
अपने छत पे जा चढ़ी...

नज़र के सामने आया
कुछ इक सितारा था
घटाओ ने घेरा लिया
पहले ही बादल सारा था

फिर चुप सी बैठ गयी
मैं भी गुस्साई सी
ये सोच कि क्या तुझको भी मेरी
यूँ ही मेरी याद आयी थी

उस पल करीब से जब हवा गुजारी
उसने कहाँ बता क्या हुआ पगली
मैंने दिया उनको फिर संदेसा सारा
कह देना उनको करे न मेरे इंतज़ार कि बेकद्री

लेके चिराग हाथो में जब रात चली
तब तेरे बारे में मेरी उससे बात चली !!


गीत / रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"अंजाना सा"


अंजाना सा एहसास
मुझे गुदगुदाता भी है
रुलाता भी है
दुलराता भी है
समझ नहीं आता कि
इसे क्या कहते हैं ?
क्या ये प्रणय भाव कि हिलोरे हैं ?
लेकिन किसके लिए ?
कौन है इस का कारण?
कहीं वो मेरे ख्यालो
के पीछे छिपा हुआ
शक्स तो नहीं
जो हर एक पल के साथ
मेरी सोच को जकड़े जा रहा है
हथियाता चला जा रहा है
मेरे मन कि
भावुक ज़मीन को
और

अपने हित में
गाड़ता ही चला जा रहा है
खूबसूरत संवेदना का बीज !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

!!बाज़ारी लोग बहुत थे!!

मैं जिस मंज़र से गुज़री नकाबी लोग बहुत थे
शहर में जिस तरफ देखा जुआरी लोग बहुत थे

यकीन खुद पे न करती तो हुजूम के शक्स मसल जाते
अमीर थे शक्ल से लेकिन भीखारी लोग बहुत थे

इस जंगल में कब जाने निशाना कौन बन जाता 
खुले आम घूमते पैदल शिकारी लोग बहुत थे 

मैं भला कैसे इत्मीनान से रात है सोच सो जाती
अंधेरो के परदे के पीछे ज़िनाकारी लोग बहुत थे

मायने जिनके खातिर मोहोब्बत के हर रोज़ बदल जाते हैं
इस भीड़ में ऐसे भी खिलाड़ी लोग बहुत थे

जहाँ औरत लहूँ रही कटारो से बेवाफाई के
रिश्तो कि आड़ में ऐसे शुमारी लोग बहुत थे

कलम ने कहा 'श्लोक; छोड़
शबनम से पन्ने न भीग जाए
वरना मेरे ग़ज़ल में जिक्र से मरने वाले
बाज़ारी लोग बहुत थे !!!

 ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

Friday, April 4, 2014

"रोटी"

खुले आस्मां के नीचे हैं
मेरा घर..
छत ढही हुई है..
दीवार चिटकी है..
चूल्हा बुझा है..
बच्चे भूखे हैं..
आधे ढके-आधे नंगे हैं..
बीवी का यौवन..
फटे चिथड़ो में लिपटा..
जो मांगे हुए थे..
आज बरसात है..
लेकिन अच्छी न लगी..
मैं भी ठिठुरा ठण्ड से ..
मेरे कोमल बच्चे भी..
कपकपाने लगे..
मुझे पानी कि ज़रूरत नही थी..
आज तो केवल..
पेट में आग थी..
सिर्फ और सिर्फ भूख कि..
जिसे संतुष्ट करती रोटी..
मैं मंदिर के लिए निकला..
इस आस में कि ..
कुछ मिल जाए ..
पेट शांति का साधन..
मगर ..
किसी ने फेकी वोही रोटी ..
चौराहे पर कुत्तो के लिए ..
मैं झपटा ..
क्यूंकि आज मैं कुत्ता था ..
और फेकने वाले.
मेरी नज़र में इंसान ..!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

!!बड़े ताजुब में था!!

बड़े ताजुब में था इस बात कि हैरत रही
मैं तेरे यकीन में था और तू बेगैरत रही

तमाशा करते हैं लोग अब मास्क पहन के
रिश्तो से ज्यादा जुबा पे नाम शोहरत रही

मैं चलता हूँ फिर अपने आस-पास देख लेता हूँ
अबतो मेरे साये पे भी मेरी शक्की नीयत रही

अपने हाथो में मैंने तलवार उठा के रक्खा है
बुरे अकलमंदों से अक्सर अपनी बगावत रही

मैंने पाला नहीं जिंदगी में कुकुर का कारवाह 
था ख्वाब-ए-शेर जिसकी हर सु हमें चाहत रही


ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक

Thursday, April 3, 2014

"फिलहाल"

अफ़सोस है
मगर
क्या साँसे छोड़ दूँ ?
या फिर
क्या कैद करदूं ?
बाकी सारी खुशियां तयखाने में...

छोड़ो जाने भी दो अब

टूट जाने दो सपना
अगर
कोई टूटा भी है तो
हुनर अभी भी पास है
 
फिलहाल तो बस
ये जिंदगी ज़रूरी हैं
मैं फिर कोई नया
सपना सज़ा लूंगी

क्यूंकि
नींदे भी मेरी हैं,
आँखे भी मेरी हैं
और अभी
ये राते भी मेरी हैं !!


रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"

"ए ! समंदर"

देखो !
सेहरा आ रहा है
मैं अब नाव से
उतर जाउंगी
थोड़ा दाए-बाए घूम के
फिर सीधा मुड़ जाउंगी
तुम लहरो से कह्देना
जब पहुँचना मझधार में
हम उनका जिक्र करेंगे अक्सर
अपनी कविता के संसार में

ए ! समंदर
आउंगी मिलने जब भी
आएगी उन उफानों कि याद
फिर तुमसे ले जाउंगी
जो भी मिल जाएगा ज्ञान
जाने कितने शंख, सीप, मोती
बाहों में लेकर आता है
बिना इज्जाजत फिर कोई भी
किनारो से उठा ले जाता है
उमड़ उमड़ के तू उठता है
फिर चट्टानों से टकराता है
हे समंदर तू कितना बड़ा है
फिर भी तो चोट खाता है

तुझे देख कर आया ध्यान
शायद ! ऐसे ही बनते हैं महान
जीवन में खताओ से सीख कर
जो चलता रहे वो है इंसान !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

"किसके लिए"

किसके लिए
ये जेहद है
कोई धुन नही फिर
ये दबिश तो है
कंक्रीटों के वज़न के तले
हर तरफ पानी खारा
मैं प्यासा चकोर
बूँद गिरता नहीं
मैं हूँ कि मरता नहीं
आग कि आशा है
और धुंआ उठता है
छांव में ही चलूँ
मगर करूँ तो क्या
असर इससे भी ये
कि पाँव जलता है
कल ये पेड़ तो सबका था
इसको किसने हिस्सो में काटा
कि अब बाज़ारो में
हर टुकड़ा बिकता है
कुछ कह गया ये कौन ??
जो हम समझ के भी न समझे
तबसे अंदर ही अंदर
इक इंसान घुटता है


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

हाइकु-2

रिसियाए शरद
दौड़ी खटपट सरपट
हेमन्त देख दूर से !!


रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'

हाइकु-1


औरत तू सृजनकार
अपने देह में
देह रच देती है !!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

(I'm trying to write small poetry called haaiku)

क्या ढूंढोगे तुम ?

क्या ढूंढोगे तुम ?
रेत के बीच से
सोने का छोटा कण
तुम मात्र गागर का
उथला हुआ जल हो
नहीं है तुममे ठहरन
वो फल हो
जो बड़ा भले है
लेकिन उसमे गूदा नहीं है
तुम हर भाव का सन्दर्भ
अपने पक्ष में गढ़ते हो
जो आय दिन बदल जाता है
यदि में अपनी दृष्टि में
तुम्हारा सही निरूपण करूँ तो
तुम बहुत छोटे हो
जिसका अर्थ
शून्य से ज्यादा
नहीं किया जा सकता !!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Wednesday, April 2, 2014

शायद ! तुम


तुम उस झाड़ के पीछे
क्यूँ लुके हुए बैठे हो ?
मुझे नज़र आ रहा है
ज़रा-ज़रा सा कुछ 
शायद !
तुम्हारे सुनहरे रंग कि शेरवानी
और उसपे लिया हुआ
महरूनी साफा होगा...
कब तक छिपोगे आखिर ?
वो देखो !
हवा चली आ रही है
उस पर्वत को पार किया
फिर शिला से टकरायी है
उस मिट्टी के टीले से
कुछ धूल को समेट लिया
अरे !
अभी बीच में खायी भी है
आह !
आनन्-फानन में
लो जा गिरी गहराई में
कोई बात नहीं थोड़ा रुकती हूँ
यकीन है 
इस बार जब ये लहर उठेगी
तो ज़मीन पर बिछा देगी झाड़
जो बीच में खड़ी हैं
और
मैं तुम्हे जीभर देख लूंगी
हाँ! शायद !
ये भी हो सकता है
मेरा स्नेह तुम्हे बाँध ले
और तुम सिर्फ
मुझ तक ठहर जाओ !! 

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"फासला"

कितनी अज़ीब
बात है न
इक घनिष्ट मित्र होते हुए भी
हमारी सोच में मेल नहीं
बल्कि एक लम्बा फासला है
मैं जिंदगी के विषय में
पी. हच. डी. करना चाहती हूँ
जिसमे बहुत सारी आपत्तियां
केवल मुझे
फेल करने पे अमादा होंगी
लेकिन मैं
सबका सामना करने के लिए
तैयार खड़ी हूँ
तुम जटिलताओं से
कोसो दूर भागते हुए
अपने सुखी जीवन कि
रचना लिखने में
पूरी तरह व्यस्त हो
और उनकी क्षणिक
मुस्कुराहटो में फूले जा रहे हो
और इसके साथ ही
लगातार खोते जा रहे हो
जीवन का सही मतलब !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

 

"चिन्ता"

वक़्त ने मुझे
उस कमरे के
भीतर लाकर खड़ा कर दिया है
जिसकी ज़मीन पहले ही
शबनम के पारदर्शी
लहरो ने नम कर दी है
जिसकी दीवार
सिसकियो ने
कुछ ऐसे धो दी हैं
कि उसपे चढ़े
रंगीन परत कि पपड़ी
हाथ लगाने तक से
गिर रही हैं
जहाँ पर आँखों के ख्वाब
दोनों ही पहर में
काज़ल से ज्यादा काले
और राख से ज्यादा
भुरभुरे हो जाते हैं
जहाँ बिस्तर के
नसीब में करवटे
और नीद के दामन में
बेचैनियों का तोहफा है
जिसके झरोखे से
हवा भी उलझन को
अपने पाँव में बाँध के आती है
इस कमरे कि तन्हाई
मेरी मुस्कराहट पर
पूरी तरह से
पूर्ण विराम लगाने पर भी
कभी नही हिचकिचाती
इक अज़ब सन्नाटा है
जितना मेरे अंदर है
उससे भी ज्यादा 
इस कमरे में और बाहर
जो जब कभी चीखती है तो
दर्द कि सारी चिंगारी
मन के सूखे पत्तो पर
उड़ेल देती है
और उबाल के रख देती है
हर नरम संवेदना कि लहर !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"स्वप्न"


मेरी सिलाई टूटी हुई मिली 
जिसपर मैं कब से
स्वप्न का स्वेटर बुन रही थी
तुमको क्या इतनी ईर्ष्या थी ?
जो आकर तोड़ दी मेरी सिलाई
मुझको सोता देख !!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

"मुझे ज्ञात है"

मुझे ज्ञात है कि
तुम उजेरी पाख में
बिन बुलाये भी
आओगी
लेकिन मैं फिर भी
हर रोज़ तुमसे मिलने
दिन से छिप के आता हूँ !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

सुनो !

सुनो !
मैं समय कि साथी हूँ
मैंने रुकना नहीं सीखा
हाँ !
लेकिन हर क्षण से
सीखना भी
मैं कभी नहीं भूली!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

"अजूरी भर ख़ुशी"

जो कांटे थे
वो निकल चुके हैं
पैरो से
और
जीवन से भी
अब राहो में
फूल ही फूल हैं

जो मुश्किल थी
वो भी आज अपना
रास्ता भटक गयी
अब मेरे घर में
जीत कि
गूंज ही गूंज है

कुछ
काली घटाओ ने
बादलो पे
काबू कर लिया था
ज़बरन सूरज
निगल लिया था
अब छट गयी बदरी
हो गया सवेर 
आज रोशनी का रंग देख
कुछ ऐसा हुआ
महसूस मुझे
जैसे  
हर तरफ बिखरा हुआ
सिन्दूर ही सिन्दूर है !!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
Date : 24th March, 2014