मेरे जीवन का हाल मत पूछो
बस इसमें नहीं रहा
किसी मौसम का अर्थ
सावन-भादव, बरखा-बारिश
सब हीन और दीन हो चुके हैं
पुष्प तो नहीं मगर
कुछ कांटें अवश्य बचे हैं
अरमान सभी सूखे पत्तो कि तरह
झड़ता चला गया
अब इन पत्तो को वक़्त के चूल्हे में
लगातार झोख कर
भरती हूँ पीड़ा का पेट
सपनों का चुरखना
गिर गया है जीवन पथ पर
हर स्वाश इसकी चुभन से
बिलख पड़ता है
सांत्वना कि सूती धोती
गल के अब पूरी तरह फट चुकी है
दुःखो से हाथ मिला कर
चलने का समझौता ही
रह गया है शेष
अगर तुम सुन रहे हो तो सुनो...
नहीं हूँ मैं कहीं..........
जबसे नही हो तुम कहीं !!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Umda
ReplyDeleteबहुत खूब ... पर क्या आसान है इस तरह से सम्बन्ध को काट फैंकना ... तुम नहीं तो मै भी नहीं ऐसा कह पाना ....
ReplyDeleteअंतर्व्यथा से टीसती अश्रुपूर्ण प्रस्तुति ! सुन्दर सृजन !
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