Tuesday, January 28, 2014

"मैं जीवन नायिका"


बहुत चुनौतियां रही
अनचाहे हादसे गुजरे
हितकर बनकर छलने वाले मिले
मित्र मिले थोड़ा अच्छे अधिक स्वार्थी से
रिश्ते मिले अपने से
लेकिन थोपना ये भी नहीं भूले
अपना कहा हुआ शब्द....

स्वप्न देखे मगर वो
उस रूप में मिले ही नहीं
और जब पूरे हुए तो भी अधूरे से...

मंशा थी कुछ अलग करने कि
इक वक़्त पे आकर
हौसला ही पस्त हो गया...

जीती कब ये तो याद नहीं मुझे
हारी कब इसका संक्षेप विवरण है
किन्तु पढ़ने के लिए वक़्त नहीं
कहानी हार कि पढ़े कौन?

इन सब उथल-पुथल ने सिखाया मुझे
झेलते रहना, मज़बूत बनना...

थकावट तो बहुत हो गयी है
किन्तु अभी रात नहीं हुई सोने को..

दिन मुझे बाध्य कर देता है
सक्षम बनकर बार बार
अखाड़े में उतर जाने को
और कहने को कि हूँ
आज भी मैं ही नायिका
भले ही धराशायी हूँ
परन्तु फिर से
कुछ भी झेलने के लिए तैयार हूँ
पहले से ज्यादा सही तौर पर..

क्यूंकि जिंदगी आज भी चल रही है
बिना रुके अधाधुंध सी !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'





"पहले जैसा"

आपूर्तियों को पूर्ण करके
पहले जैसा करना चाहती हूँ
मस्त-मौला सा वही पहर
पा लेना चाहती हूँ कैसे भी  
खडूसियत से नवाज़ा
रोबीला चरित्र का,
चौकन्ने कद-काठी का वही अक्स
उतार देना चाहती हूँ वापिस तुममे
बर्फ कि सिल्लियो सी पिघलती हुई
हमारे मध्य कि भाव-भंगिमाएं
चुन-चुन के अनुराग के
सिल्की मजबूत धागे में पिरौना है
साहेब जैसे उस इंसान का टोर
उसे उपहार में भेट कर देना चाहती हूँ
नरम ह्रदय में अनजाने में
जो घात लगने से घाव हुआ है
भरना चाहती हूँ उसे किसी भी मूल्य पे 
लौटाना चाहती हूँ
तुम्हारे चुरखुने सपने को जोड़ के
आवरण के साथ
जिसपे कभी प्राकृतिक या आप्राकृतिक
हादसो का साया भी न पड़ सके
तुम्हारे फौलादी इरादे
जो चट्टान का सीना फाड़
बंद रास्ते खोल सकता है
ढूंढने आयी हूँ....
पूरे विश्वास के साथ
जिद्द में हूँ कैसे भी
उड़ी हुई मुस्कराहट
वापिस तुम्हारे होंठो कि
अरगनी पर लाकर फैला दूंगी
भरम में मत रहना
कि ये कोई अहसान है
नहीं.....
मेरी ख़ुशी को पाने का
इख्तियार किया हुआ
नवीन और स्पष्ट रास्ता है
क्यूंकि
झूठ नहीं था कही हुई तमाम बातो में
चट से निकला शब्द......
तुमसे ही तो वाबस्ता है लम्हा-लम्हा जिंदगी मेरी !!! 


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 28th Jan, 2014

!! मौके ने जिंदादिली ला दी है !!

मौके ने जिंदादिली ला दी है
सोचती हूँ अब कोई चूक न हो

गर्मियों कि तपिश में ठंडाई हो
सूरज कि नंगी सी धूप न हो

रूठ ना जाए नसीब का जिद्दी बच्चा
कोशिश के खिलौने में टूक न हो

कदम-कदम मुझको सम्भालते रहना
समझ के नाम पे ज्यादा छूट न हो

यकीन पे तेरे खरी उतरूं ख्वाइश है
हमारे रिश्ते में दीवार-ए-झूठ न हो

बहुत मुश्किल से ज़रा बचा के लायी हूँ
दुआ करुँगी अब कोई टूट-फूट न हो


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 28/01/2014
 

!! तुम हो तो !!


तुम हो तो बहारे रहती हैं साथ मौसम के
तुम हो तो हर सफ़र जिंदगी का खूबसूरत है

आँखों के दरख्तो से जुबां के हर लव्ज़ में
दिल को चीर के देख बस तेरी ही सूरत है

खुदा लेले सारी खुशियां तुमको देने के एवज़ में
मुझे तो सांस भी लेने के लिए तेरी ज़रूरत है

गुजरता नहीं कोई लम्हा बिन तेरे दीदार के
रात तन्हाई कि लगे जैसे कोई क़यामत हैं

बुलंदियां आसमान कि नहीं चाहिए मुझे 'श्लोक'
जहाँ तू है वही आशियाना हैं मेरी जन्नत हैं

जाने क्यूँ तू समझ के भी समझ नहीं पाता
मुझे भी नही खबर क्यूँ इसकदर तुझसे मोहोब्बत है

कुछ नहीं सूझता बस तू ही रवां है हर लहज़े में
तू बेचैनियों कि राहत है मुझको तेरी आदत है



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 28th Jan, 2014 

Monday, January 27, 2014

"जिन्दा हूँ मगर जीता हूँ अधमरा सा"


तुम बिन मैं चिराग हूँ अधजला सा
तुम्हारे बिन मैं दिन हूँ मगर ढला सा

सूरज हूँ मगर धुंध में गवाचा हूँ
चाँद हूँ अमावस का बुझा सा

तितली हूँ मगर गुलो से वास्ता नहीं
जिन्दा हूँ मगर जीता हूँ अधमरा सा

तेरे बिन न हीरा हूँ न ही पत्थर मैं
तीर हूँ अपने ही जिगर में गड़ा सा

न फ़कीर हूँ न ही बादशाहियत रही बाकी
घूमिल किरदार हूँ तेरी कदमो में पड़ा सा

पाती हूँ न फल हूँ और न हवा का झोंका 'श्लोक'
मैं फूल हूँ मगर शाख से झड़ा सा

तेरे बिन भवर में हूँ साहिल से नहीं नाता
लहर हूँ मगर ठोकरो से पीछे मुड़ा सा

ख्वाइशे बेज़ार हूँ जीस्त भी हूँ सुगला सा
अपनी तबाही का नासूर दास्ताँ हूँ खुला सा

तपी जमीं हूँ रेत भी हूँ उड़ा सा
मुराद हूँ अश्कों और आहों से धुला सा

तेरे बिन न शायर हूँ न ही ग़ज़लकार कोई
गमगीन लव्ज़ हूँ दर्द-ए-शबाब में घुला सा



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 28th Jan 2014

"रिश्ते"

इन रिश्तो कि मांग है
मेरा अनमोल सपना
इन्हे भेंट कर दूँ
इनकी मन मर्जी को
जीवन कि हर स्वाश
समर्पित कर दूँ
यदि ऐसा न हुआ
तो निंदा का पात्र रहूंगी इनके मध्य
जब भी सब इक जुट हो
चर्चा उठाएंगे
मुझे बेईमान बनाते जायेंगे..

तो क्या दे दूँ बलि ?
अपनी इच्छाओ कि
बन जाऊं इक आदर्श बेटी, बहु, बहन
सब कोई खींचता ही तो है
अपने-अपने पहले में
किन्तु कोई नहीं जानता कि
मैं  क्या चाहती हूँ?
बांधे हुए हैं मुझे
मीठे बोल और खून के पगहे में 
और खींचते चले जा रहे हैं
गाय कि तरह मुझे  
मेरे मन कि तरंगो से
किसी को कोई लेना देना ही नहीं!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 27th Jan 2014

Sunday, January 26, 2014

"धोखा है पुरुषार्थ का"

तुम कहाँ अभी सच के पाले पड़े हो
धोखा है पुरुषार्थ का जिसके सहारे खड़े हो

अपनी नंगाईयो में जीने कहाँ दिया हमको
सारा सकून तबियत का उछाले खड़े हो

हमने ही बक्शा है वो ओंदा तुम्हे खैरात में
भरम पाल लिया तुमने कि खुदा से बड़े हो

सम्भाला है औरत ने ही तुम्हे हर दौर में
बचपन, जवानी बुढ़ापे में जब भी गिरे हो

उत्पीड़न में जीती रही नारी बिना शिकवा
गुमान आ गया तुममे कि हिम्मतवाले बड़े हो

थूकती हूँ मैं तुम्हारे घिनौने नीयत पे हर सू
तुम आज भी घूल से हमारे कदमो तले हो....



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 27th Jan, 2014

कुछ ऐसे तुम्हे खो दूंगी..


कभी सोचा न था कुछ ऐसे तुम्हे खो दूंगी
ज़हर का शज़र जिंदगी कि ज़मीन में बो दूंगी

सपनो कि दुनियाँ के हर अक्स टूटे मिलेंगे
चुभेंगे आँख में और उनकी टीस से रो दूंगी

किसी दौर में जिन एहसासो कि बादशाहियत थी
वक़्त कि धुंध में हसीन मंज़र वही मैं खो दूंगी

देखो मेरे जख्मो को रह रह के न कुरेदा करो
मैं बरस पड़ी तो पुरे कायनात को डुबो दूंगी

फरेबो कि फेर हो या फैसलो कि उंदा खता 'श्लोक'
मैं इस किस्से को जड़ से ही मिटो दूंगी...



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 27/01/2014

इक भूल पे मिटाई नहीं जाती जिंदगी....

छटती नहीं है बदली उदासियो कि
लाइन लगी हुई हैं रियाया में पापियो कि

इक भूल पे मिटाई नहीं जाती जिंदगी
कोई लौ नहीं है ये रुई के बातियों कि

जलन वालो को अक्सर खौफ रहा मेरी बुलंदियों से
पगले गला घोटने निकल आये हैं आंधियो कि

ह्या ने बांध दिए हैं कहीं तो मेरे कदम
वरना औकात क्या है दो कौड़ी के आदमियो कि

उस वक़्त ये नफरत उतर पड़ी चीखो में
कुचली जाने लगी औरत हर नातो में बांदियों सी



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 27th Jan, 2014

Saturday, January 25, 2014

!!अफरा-तफरी तो पूरी कायनात में हैं!!

नशा,मदहोशियाँ दिल के हालात में हैं
कुछ खासियत तो 'श्लोक' कि जात में हैं

अपना घर संभालू फिर शहर कि सोचूंगी
अफरा-तफरी तो पूरी कायनात में हैं

कोई अलग नहीं मिलता मुफलिसी में
शकल से रंगीन तो हर बारात में हैं

कौन रखता है अपनी वालिद कि खबर यूँही
वहशी नज़र तो सिर्फ जायदाद में हैं

मुझको तो सब कुछ बंधा हुआ सा लगा
सब कहते हैं कि हम मुल्क-ए-आज़ाद में हैं

हाथ छत कि दीवारो को भी न लगा सके
बात करते हैं कि जैसे आकाश में हैं

कल लड़के आज सीने से लगाया उसने
पहले से ज्यादा मिठास उसकी आवाज़ में हैं

कतरे पंख कि खबर तो परिंदो को है
निगाहो के जस्बे ने कहा वो परवाज़ में हैं

सहम के गुजरी औरत मेरी गली से
जैसे कोई बाज़ नोचने कि घात में हैं

कुछ अलग हुआ तो नसीबो का दोष कैसे
हम अपने कर्मो कि रची हुई करामात में हैं

हमको ज़माने के रंग-ढंग अजीब से लगे
हो सकता है आज भी हम पुराने खयालात में हैं

हम खुद को जुदा करते हैं हादसे धकेल देते हैं
जताने कि आरज़ू है हम भी शामिल जमात में हैं

सम्भाल के चलते हैं कोई ठोकर न मार दे फिर
रिसियाए खिसियाये बाशिंदे ही आस-पास में हैं



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 25th Jan, 2014

"ग़ज़ल लव्ज़-ए-हयात"


कह दो खुशियो को दुपट्टा सम्भाले अपना
मुझे अब नींद आती है तो गम कि निगरानी में
 
कई हादसे मिलते रहे रफ्ता-रफ्ता सफ़र में
कंपा डाला सीना.. इतना दर्द था मेरी कहानी में  

शिकारी का जाल खाली था आजमाइश के बाद भी
जहर दे के मार डाला जितनी मछली थी पानी में 

लड़ती रही गरीबी से इक आह भी निकली कभी
बच्चे कि भूख ने डाल दिया मगर मुझको हैरानी में  

सौ पाप किये फिर चल दिए तीरथ का जिक्र करके
गन्दगी जन्मो कि धो डाली पाक़ गंगा के पानी में 

कुछ कागज़ के टुकड़ो ने मिटा डाला हर नाता
इंसानियत तक को दफना डाला हसरतो कि मेजबानी में  

उजाला कर लिया संगदिल मौसम के खौफ से
अँधेरा ताकता रहा मुँह उठा मेरी रोशनदानी में  

गलती से कि गलती को बदजुबानी से नवाज़ने वालो
इक बार झाँक कर देख लो अपनी भी गिरहबानी में

आफताब का नूर मिला खोकर बचपन कि नादानियाँ
कितने ख्वाब जलाये मगर मैंने पहुँच कर जवानी में 

अक्सर तुम पाओगे मेरे लव्ज़--हयात में 'श्लोक'
सादगी, हकीकत, उम्मीद कि रोशनी ग़ज़ल कि निशानी में...
 
 
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 25/01/2014

Friday, January 24, 2014

"शुक्रिया ए मेरे खुदा"

जिंदगी में जिन्दा होकर इक दोस्त के लिए मरती
तिनका लिए नन्ही चींटी सी परबत का रुख करती
किसी कथाकार कि कहानियो कि किताबो को पढ़ती
यहाँ किसको है इतना वक़्त जो मेरा हाल सुनने आता
आईने को कब तक तोड़ती किस-किस से मैं अकड़ती

शुक्रिया ए मेरे खुदा जो तूने लिखने का हुनर बक्शा
मैं इस दर्द के आलम में लिखती न तो क्या करती?..

तन्हाईयो के खौफनाक कातिलाना मंज़र कैसे बदलती
राज़ टूटे ख्वाबो का किस हमराज़ से साँझा करती
कंधो पे बिठाया तो सर चढ़ कर नाचने लगे रिश्ते
पाँव के छालो कि परतो पर मलहम कैसे मलती

मैं इस कशमकश के आलम में लिखती न तो क्या करती ?..

मौकापरस्त लोग है अपने हित में नंगाए
मार डाले किसी भी मासूम को पाने कि जिद पे जो आए
हार कर मैं भी कूद जाती किसी बहती दरिया कि धार में
खो जाती नोचती मुझको भेड़ियाई कांटो कि जाल में
या बेशर्म किसी मुसाफिर का सहारे को हाथ पकड़ती

मैं इस बदहवास आलम में लिखती न तो क्या करती ?

बचपन बिछुड़ा मुझसे जवानी के झाड़ पे चढ़ आये
पाया इस शिखर पे सपनो के सारे फूल मुरझाये
सीखा लम्हातो से इतना कि कोई क्या तजुर्बा लेता
हम ही जीत के रचयिता थे औऱ हम ही हार आये
अपनी परछाईयो को श्याह में खोकर रोशनी में पकड़ती
झड़ गयी थी उम्मीद के शज़र से हवाओ कि हो चलती
हसरतो कि डूबती नाव पे बेबस मल्लाह सी सवारी करती

मैं इस दीवानगी के आलम में लिखती न तो क्या करती ?

शुक्रिया ए मेरे खुदा जो तूने लिखने का हुनर बक्शा!!
मैं इस दर्द के आलम में लिखती न तो क्या करती?..


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक' Dated : 25/01/2014

"एहसासो के ज्वर-भाटा से"

तुम्हे बिलकुल
सही मायने में आ गया है
तर्क को विचार को,
प्रत्येक पेशकश को बर्खास्त कर
अपनी अट्टहास को चढ़ा कर
मेरी अभिलाषाओ को
दबोच देने का विषम तरीका..
मूँद लिया है
गुनगुने चाह ने अपने नेत्र
औऱ अपने हित कि
कोठरी खोल कर बैठ गया है
अब सर्वत्व न्यौछावर भी कर दूँ
तो भी तुम्हारा दृष्टिकोण
उसमे भी खोजने लगेगा
अपने अनुकूल कोई नयी तदबीर
सुंदर ख्वाइश का मोहक रूप
परिवर्तित हो गया जीवन के
अनचाहे असोचे भूल के सन्दर्भ में
समय ने साबित किया
एक बार फिर से खुदको कि
धुंधला पड़ ही जाता है
वो सब कुछ जिसे हम
जीवित रखने का प्रण लेते है
इसकी मिट्टी कि निरंतर परतो कि तहो से 
अंततः रिक्त हो गया स्थान प्रणय का
भर गया द्वेष का गड़हा
गुणो का निर्झर नीर
सूखा ताल सा रह गया
उज्वल चाँद धब्बेदार हो गया
प्रातिपदिका ही छल बन के उभरी
जलता हुआ छोड़ गयी मुझे
तुम्हारी कठबोली कि प्रवाहित ज्वाला में
ठग़मारी अबला बनाकर
जो अब तक नहीं निकल पायी
तुम्हारे नाम पर उठते 
एहसासो के ज्वर-भाटा से!!  



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 25th Jan, 2014

"अब न पूछो कि भय काहे"

अब न पूछो कि भय काहे
देह जबसे नारी का पाये
घूर-घूर देखे नर जात सब
हमरा सब अभिमान उड़ाये

कौन स्वप्न का हम सजोई
इक हाथ पायी दूजे हाथ खोयी
आपन आभा बनाय माटी पर
लात से घसर कय हम ही मिटोई

अपने इच्छा का हमपर लादे
हमरा हिस्सा खींच के भागे
सब नाता कठोर है हम से
हम ही भाग्य बन रहे अभागे

हम सीता सा बनबास बिताए
सती बन जान यमराज से लाये
कभी देवी शक्ति बनाय कर पूजे
कभी अहल्या सा मोहे छल जाए

केह से बतियाई आपन हाल हम
खुसुर-पुसुर मसला न बन जाय
येही जीवन कय कटु सत्य है हमरे
पाकते धान तो कोई काट लय जाय !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 25/01/2014

 

"कवि बन के आना"....


तुम कहीं भी हो...कैसे भी हो
बस इतनी सी गुज़ारिश है तुमसे
मैं कवित्री हूँ कवि से प्रेम है मुझे
तुम जब भी आना कवि बन के आना...

मेरे अहसासों के बादल पर घटा बन के छा जाना
धरती पे बूँद बनके बारिश सा बरस जाना
कलम बनाना जज़्बात तख्ती दिल को बनाना
हर उमड़ती मंशा को डायरी में संजोते जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...

हवाओं को घुंघरू तो कभी पाज़ेब बांधना
मौजों को ढलती शाम में दुल्हन बनाना
भवरें की मतवाली शरारतें बयान करना
कभी पंछी बन के सरहदों को फांद जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना....
 
मेरी कविताओं की पंक्तियों को
शब्दो की रोशन लड़ियो से सजाना
हर इक अदा पर मेरी शायरी लिखते जाना
संगीत को सुर दे देना ग़ज़ल सुनते-सुनाते जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...

गुलो की मुस्कराहट से फ़िज़ाओ को महकाना
जन्नत को ढूढ़ कर ज़मीन पर ले आना
आँखों के कैद में कई ख्वाब समेट लाना
कविताओं को कल्पनाओं की बेग़म बनाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...

मेरे मन के नंगे पाँव को गुदगुदी लगाना
अरमान मेरे बागी हैं इनको समझ जाना
लब ना मैं खोलूंगी खामोशियां पढ़ लेना
दिल के खाली मंदिर में मूरत बन के बस जाना 

तुम जब भी आना कवि बन के आना...
फिर किसी भंवर में छोड़ के ना जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 22th May, 2009

((Note :कुछ पंक्तियाँ १० जनवरी २०१४ को ओर जोड़ दी हैं इस कविता को सही तरीके से रूपांतरित करने के लिए" ))

"संवेदनाये हावी है"

'संवेदनाये हावी है'
यही लिखा था सफर के
इक पड़ाव पर दाए से बाए...
जहाँ से मचलते कारवाह का
गुदगुदा सा आग़ाज़ हुआ
अलग सा पाया वहाँ जिंदगी को
निर्मलता में डुबकी लगाता मिला
उस राह का 'पत्ता पत्ता, बूटा-बूटा'
सरग़ोशियो ने बिठा लिया था बहला के
तमाम आलम को अपनी पलकों पे
बेहद सुहावनी होने लगी वो
लड़ियाई लम्बी सिली रातें
नींद को तो बंदी ही बना लिया था
स्वप्न के उस सौदागर ने..
यातनाये विफल होने लगी थी
उदासियो के पतझड़ को
सागर ने सावन दे दिया था
लेकिन हकीकत से शुरू हुआ फ़साना..
अफसाना हो चला समय कि झपकी लेते ही
टकरा गया आखिरकार
नसीब के जिद्दी क्षितिज से वात्सल्य   
बर्फ पिघल उठे इका--इक
उन समतल खुशगवार राहो के
धुल गयी उस पथ कि बहकाने वाली पंक्ति
जिसने जीवन में उमंग भर दिया
नज़ाने क्यूँ?
अंत तक भी मैं
इस सत्य से महरूम रही
शब्द के दो तात्पर्य होते है जानकर
इसका भी इक दूसरा अर्थ रहा होगा
शायद कुछ ऐसा 
कि आगे खतरा है!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

 

Thursday, January 23, 2014

"अंतिम"

नरम हिस्सा था
मेरी संवेदनाओ का
जिसे कुल्हाड़ियों से काटा गया
छिनगाया गया भावनाओ का
जीवित हरियाई डाल..
परन्तु सोचा नहीं उसने
कि आखिर कितने प्रहार के लिए
शक्षम है वो नन्हा वृक्ष
चिंताओ के दीमक ने
जिसका पहले ही चमड़ा
उगते-बुझते समय के साथ
कुरेदा हुआ है..
उसपे इक आखिरी वार था
सीधा जड़ो कि नसो में जा लगा
जो खुद को जैसे-तैसे मजबूती से बांधे
हुए था बंज़र मिट्ठी के साथ
और
फिर ना रहा कोई अंतिम शब्द
भी कहने को!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 23/01/2014

"कोरी कल्पना"


प्रेम! हाँ, यही वो शब्द है
किस्से-कहानियो में जब भी सुनती हूँ
बहुत सम्मान के योग्य
मालूम पड़ता है तब
परन्तु क्या ये वही है भाव है?
जो मिलता है आज-कल
इंसानी मंडियो में धड़ल्ले से 
किन्तु बिलकुल अधूरा सा
कहूं तो अंश मात्र ही..
लिबड़ा हुआ अनगिनत मंशाओं से
प्राप्ति के इच्छाओ से गंधाया सा
लच्छेदार बातो में उलझा
गिरगिट कि तरह पहाड़ पर चढ़ा हुआ
ऐयाशी कि चक्की में पिसता हुआ
इंसान के द्वारा तैयार तालिका
बन गया है इसका आधार
ये अनुभूति पनपता है तेज़ी से
किन्तु हो गया है बहुत ही कम उम्री
दोष-निर्दोष कि अदालती कारवाही में
फस के रह जाता है इक दिन
कटघरे में खड़े होते ही
बदल जाता है इसका स्वरुप भी
फिर तेज़ाब बन जाता है ये एहसास
घृणा का धारधार हथियार बन जाता है
बदनामियों के जंगल में गुम हो जाता है
घड़ल्ले से आया प्रेम...
फूंक से कण कि तरह उड़ जाता है
कलयुगी प्रेम का लाल से काला रंग
कुछ ही समय के अंतराल में बदलता है
जाने ये प्रेम है
या
फिर कोई कोरी कल्पना मेरी
जिसका हकीकत से शायद! कोई वास्ता ही नहीं!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 20/01/2014

Wednesday, January 22, 2014

" जिसको चाहत है वो कैसे भी ठहर जाएगा "

जिसको चाहत है वो कैसे भी ठहर जाएगा,
जिसको नफरत है वो बस खेल कर मुड़ जाएगा

जिंदगी आखिरी पल तक का सफ़र है यारो
कोई मिलेगा राह में तो कोई दिल छू के बिछुड़ जाएगा

फूल खिलेगा, महकेगा फिर कुछ पहर में सूख के गिर जाएगा
सितारा टूटकर भी आकाश में यूँ के यूँ ही झिलमिलाएगा

कोई जख्म कुरेद देगा तो कोई मलहम लगाने आएगा
वो फरिश्ता ही होगा पीर का जो गम में आकर सहलाएगा

वजह ही ढूँढता है हर आदमी कोई रिश्ता निभाने को 
कोई दलदल में ढ़केल जाएगा कोई कीचड़ से उठा ले जाएगा

पूजने लगते हैं इक इंसान को परमेश्वर कि तरह हम
खबर होती है बाखूब कि वो 'माँ' जैसे तो कभी ना बन पायेगा

ख्यालो का क्या है "श्लोक" जिस पल चाहे करवट बदल लेता है
वरना
सपना तो मेरा भी था इक राजकुमार कुदरती लालियां मेरे मांग में सजायेगा!!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 23rd Jan, 2014

अज़ब आदत ज़माने वालो ने पाली हुई है....

अज़ब आदत ज़माने वालो ने पाली हुई है
दिल में खंज़र जुबां पर वाह-वाही सम्भाली हुई है

अपनी-अपनी कहकहे कि चल पड़ी है आंधियां
सत्य, अहिंसा इंसानियत, लव्ज़ अब गाली हुई है

जुर्म कि गर्माइयाँ है हर उम्र कि बिसात में
इस क़वायद से मुझको भी हैरानी हुई है 

कारवाह लिए चल पड़े हैं सबक गीरो में हो शामिल
बेटियाँ कोख में जिन हैवानो ने खुद मारी हुई हैं

सूरत को पूजने वाले सीरत को जबसे भूले
हर बेमुराद ने अपनी शक्ल सवारी हुई है

सूरज को शर्म आई जब अँधेरा हुआ यूँ हावी
सोच पैसे कि मशालो से सबने बारी हुई है

ताली मार के हस पड़ी 'श्लोक' कलयुग के तेवर देख
इस सदी में बाप ने अपनी बेटी ही धंधे में उतारी हुई है..


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 23rd Jan, 2014

!!उस दिलनशीन ने जब अपनी चुनरी उढ़ाई थी!!

बड़ी मुश्किल से इज़हार करने कि हिम्मत जुटाई थी 
उससे मिलने के खातिर नादान सी साज़िश रचाई थी

कभी भूले से भी जिसने ताका नहीं था मेरी ओर
हर दीवार फांद मुझसे आज मिलने वो आई थी

तलाश करते रहे जिसे अक्सर किताबो में हम
वो गजराई शोखियां हमने उनकी नज़र में पाई थी

गमो ने बगावत ठान ली थी उसी पल हमसे
उसके गुलाबी लबो पे इक झलक जब मुस्कान आई थी

खुदा ने इबादत में दे दिया हो जैसे सकूं सारा
उस दिलनशीन ने जब अपनी चुनरी उढ़ाई थी

सुनाया था हाल-ए-दिल उसने शायरी में हमको 'श्लोक'
हमने उसके तारीफ में फिर अपनी कविता सुनाई थी


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 23/01/2014

"मौसम"

चौबारे पर रखा
गमले का हरा सुनेहरा पौधा
आज खुसर-फुसर कर रहा है
बड़े ही लुभावने अंदाज़ में....
जाने क्या??
मौसम ने फुरसतों में करवाई बिठाई है
उर्फ़ ऊपर से महफ़िल में
अंगड़ाई ले रही है सरगोशियाँ
कभी इस बल तो कभी उस बल..
साफा लपेटा हुआ है
हिमालय ने अपने सर पर
सेब के मुख गदगद लाल   
सूरज को छिपा दिया है कहीं
किसी अनजान जगह
तितलियाँ आज ज्यादा ही
कुछ इतरा रहीं है फूलो पर बैठ
बरगद के पुराने पेड़ पर
मधुमक्खियों के रानी कि शादी है 
शाम ने बड़ी अदा से
काली साड़ी लपेट शिरकत कि है
आलम बिलकुल बौराया सा है
सितारे लुका छिपी खेल रहे हैं
गुढी सलेटी बदरियो में
चाँद आज जल्दी सो गया
महक उठी रात कि रानी
कुछ इसकदर शरारती है
आज मौसम मेरे शहर का .....
और तुम सुनाओ
क्या कभी होता है ऐसा मिज़ाज़
तुम्हारे शहर का??


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 22nd jan, 2014

!!पाएं खुद को जन्नत में आये जब होश में!!



लो समेट इसकदर हमें अपने आग़ोश में
पाएं खुद को जन्नत में आये जब होश में

सहिलो को कहो दरिया से फासला बढ़ा ले
कश्ती छोड़ कर उतर जायेंगे हम मौज में  

फ़िज़ाओ रेशमी आँचल सम्भाल लो अपना
दिए कि आग धधक पड़ी है आज जोश में  

गुल आज यक़ीनन तुझे जलन होगी
हम नामज़द हो गए है खुशुबू--सरफ़रोश में 

आज कि बरसात मेरे वास्ते आयी है ज़मी चूमने
बिखेर गयी बर्फ पर्वत के सीने पर मौसम--पोष में


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 22/01/2014

Tuesday, January 21, 2014

इन हवाओ से साज़िशों कि बू आती है .........

इन हवाओ से साज़िशों कि बू आती है
किसी बहाने से जो मिलने तू आती है

कोई शक है तो इतिहास का पन्ना पलट के देख  
अपनों के फरेब से तो सल्तनत भी पलट जाती है

किसी दीवाने को मार कर ताकत कि आजमाइश कैसी
मोहोब्बत के नाम पर तो आबरू तक उतर जाती है

कुछ अरमां कहानियो कि बन्दिश में रहने दो 'श्लोक'
परिंदे से ये ख्वाब दुनियाँ कि जालसाज़ी में फस के मर जाती हैं



ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 22nd Jan, 2014
 

"माँ तुम धन्य हो"




 

"कलाकार"


अभिनय कलाकार हो तुम
कोई भी भाव चहरे पर उतार लेना
आसान है तुम्हारे लिए
कुछ भी सहजता से जता सकते हो
ये कला तो तुम्हारे
शरीर के नस-नस में बसा है
मनोरंजन कर सबको हसा देना
या किसी विषय पर सबको
सोचने के लिए बाध्य कर देना
इसका ज्ञान तुमसे ज्यादा
किसको होगा भला
निजी जीवन कि खलल को मिटा
परदे पर किसी कहानी को
वास्तविकता से प्रगट करना
यही तुम्हे महान बनाता है
किन्तु एक परामर्श दें??
इस अभिनय का अभ्यास
रिश्तो के बीच कदापि मत करना
वरना एक जालिया और गद्दार बन जाओगे
अपनी दिशा से भटकते ही
जो कितना ही श्रेष्ठ क्यूँ ना हो
आत्मिक हीनता से बच नहीं पाता!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 22nd Jan, 2014

 

वेदना.............

 

क्या कहूं तुम्हे?
डर लगता है अब
कहीं तुम समझ ही नहीं पाये
मेरे लड़खड़ाते जुबान कि
थरथराती भाषा तो..
कहीं वो नमकीनी बूँद को तुमने
देखकर भी अनदेखा कर दिया
या उसे छलावे का
कोई रूपक बना दिया तो..
निंदा के घोड़े पर चढ़ा
चाबुक कसने लगे तो फिर पीड़ा होगी..
अज़ीब बात है
तूफ़ान भी इतनी मिठास से आता है
पहली बार जाना और बूझा मैंने
शायद! तुम्हे पाकर
बहुत मगरूर हो गयी थी
जिंदगी देखना चाहती थी
हारा हुआ मुझे
लो जिंदगी को मुबारक हो....
आज मैं हार गयी वो सब कुछ जो मेरा था
तुम्हारे साथ ही
जीने का एहसास भी मरने का दर्द भी!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"अनकही पीड़ा"

 
स्त्री रूप होते ही
दुर्भाग्य! का बीज
हमारे जीवन कि भावुक मिट्टी में
डाल दिया जाता है
फिर ये मट्ठूस कदम-कदम
चलने लगता साथ
कायदे से हमारे भीतर प्रतिदिन
छीटते रहते हैं पराये धन कि
सोच का वांशिक खाद
कोमल ह्रदय कि स्त्री को
लोहा बनाने का
निरंतर प्रयास किया जाता है
सहने कि अथाह क्षमता ही
स्त्री का वास्तविक चोला है
जननी यही सीख देती चलती है अक्सर
हम बन ही जाते हैं इक दिन
अपनी माँ कि तरह ही
वेदना को सहने कि मशीन
पुरुषो के लिए भोग का साधन
बांध दिया जाता है किसी खूंटे से
फिर से रचाई जाती है
नारी के अस्मिता कि करुण कथा
हमारा झुकाव और
अपना सर्वत्व न्यौछावर का संकल्प 
बना देता है पुरुष को परमेश्वर
और हमारी चुप्पी बना देती है
पीड़ा को प्रधान
प्रेम के नाम पर
कामुकता से छले जाने का
इक जीवित मिसाल!!  
 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 19th Jan, 2014

Friday, January 17, 2014

फिर वोही बारिश





रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

खो गया बचपन

मुझे  आज उस लड़की को
ढूंढने का मन कर रहा है
जो पंद्रह साल पहले
पीछे कहीं छोड़ आयी हूँ
जिसको बहुत प्यारी थी अपनी
पीले रंग कि टाई वाली फ्राक
आसमानी-क्रीम रंग का सूट
जिसको लगा देती थी माँ
मोटा-मोटा काज़ल आँखों में
वो जब हसती थी
तो सबको हसा के रख देती थी
और जब रोती थी
तो आस-पास के लोग
पूछने आ जाते थे कारण
जिसे अच्छा लगता था
खेतो में लगे ट्यूबल में नहाना
आम-अमरुद-शहतूत सब पकने से
पहले ख़तम कर देना
जिसका सपना था काला कोट
जिससे बातो में जीत पाना
किसी के लिए भी मुमकिन न था
सुन्दर सपनो कि वो लड़की
इस उम्र के फासले में धुंधली
पड़ती चली गयी उसकी छवि 
और अब एकदम लुप्त हो गयी
वो नटखट लड़की
भूल गयी बचपना बन गयी सज्ञान
और न जाने कहाँ रह गयी..
दब गयी वो हालातो के पहाड़ के नीचे
समझदारी कि कठपुतली बनके
अब अक्सर वो दिखाती है
वो जो वो महसूस नहीं करती
दिखावा और बिन रुके चलते रहना
अनाहक में 
सीख ही लिया उसने भी !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 17th Jan, 2014
(Dedicated to me)

नहीं चाहिए मुझे.....

जब भी कम होगी नमी
आँखों कि बता दूंगी
खुश रहना भूल गयी हूँ
फिर कभी हस के दिखा दूंगी....

नहीं चाहिए दीवाने दिल के लिए
तसल्ली हमें आपकी
चोट अब कितनी भी गहरी हो
ठेंगा दिखा दूंगी ....

बदनसीब  होंगी बरबादियाँ
जो मेरे घर का रुख करेंगी
सारी बिखरी हसरतो से
उसे रुबरु करवा दूंगी...

जाते हो तो जाओ ना
यूँ पलट के उम्मीद ना रोशन करो
फिर अधजली सी जिंदगी का
आखिरी दिया भी बुता दूंगी...
 
तुम नहीं तो ये हुजूम भी
नहीं चाहिए मुझे बाशिंदो का
तमाम उम्र तन्हाईयो कि
बाजुओ में सिमट के बिता लूंगी...


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

 

Thursday, January 16, 2014

"तुम ही हो..."


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

ये आलम, ये मौसम और ये बरसात का पानी........


ये आलम, ये मौसम और ये बरसात का पानी
फ़िज़ाओ में रौनके और ये हवाएं रूमानी...

दिल की बात लबो पर ले आऊँ या चुप रहूँ
छेड़ दी है साज़ तुमने तो अब सुनो मेरी कहानी...
 
नींदें तेरी गुलाम हो रही हैं धीरे धीरे
खवाबो में तेरी झलकियां हो रही है आनी-जानी..

काली घटायें जिद्द को मेरे मुंदने लगी हैं
बढ़ रही है मेरी जात पर अज़ब ये परेशानी...

अब बांध मेरे सब्र का टूटने लगा है
तू छोड़ गया है मेरे अक्स पर कुछ ऐसी निशानी..

ये आलम, ये मौसम और ये बरसात का पानी
मुझे भीगा रहा है ज़ब्त तक,
मुझे डुबो रहा है रूह तक
बन गया है इसका बूँद बूँद मेरी वजह-ए-हैरानी....

ये आलम, ये मौसम और ये बरसात का पानी
फ़िज़ाओ में रौनके और ये हवाएं रूमानी !!


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

"आक्रोश"


कहो कि हम अधीर हैं
सहनशीलता से ज्यादा
अच्छा लगता है
ये सुनने में हमें 
सहन करने से कई
बेहतर लगा विरोध करना
हमारी चुप्पी बोलने लगी थी
कि हम गुलाम होकर रह गए हैं
हिंसा अक्सर कायर कहती
और जुल्म करती रही हमपर
हम ज़रा सा झुके
तो तुमने सीना तान लिया
हमने रिश्तो कि कद्र कि
तुमने हमें ही बेकद्र कर दिया
जितना सहती रहे 
उतना तुम करते रहे पुरुषार्थ पे घमंड
औरत कि गर्भ से ही पैदा हुए हो
और आज दुनिया देख रहे हो
फिर औरत को ही तुम्हारे
ज़बरन कामुकता का
शिकार बना लेते हो
बस अब अत्त हो चला है
हमारे मान को
कुचलते रहने के कारवाह का
हम अब असहनशील
होकर जीना चाहते हैं
हम एक फूल थे
तुमने हमें आग बना दिया 
हम अब    
छीनते हैं तुम्हारा सारा गुमान
अब सहो तुम बरसो से पाली हुई है
जो हमने तुम्हारे लिए हमारी घृणा को
आक्रोश का सामना करने का
साहस भरो अब खुद में
क्यूंकि
तुमने ही हमें कारतूस बनाया है!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

मुझे मिल रही हैं सौगाते....


मुझे मिल रही हैं सौगाते बदोलत जितना भी खता किया
इक तूफ़ान उड़ा ले गयी शाख से मैंने जितना तिनका जमा किया
 
मैं टकरायी लहर बन उसी पत्थर से बार बार
जिसने अपनाया मुझको कभी हर पल रुस्वा किया
 
बंद पिंजरे में बैठ आसमान को देखती रही तो वो बरसे
ज़रा भीगने कि आरज़ू कि हमने तो हर बूँद ने शिकवा किया
 
मैं लोहा बनी तो लोहार ने कटा सोना बनी तो सोनार ने पिघलाया
हर जात ने ज्यातती कि मुझपर तरीका इख्तियार अपना-अपना किया

 
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Year : 2013

Wednesday, January 15, 2014

song - मैं भी तो (My first complete song lyrics)


!! देखो अब न रोको !!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

"तुम औऱ कुछ नामुमकिन सा कारवाह "

मैंने तुम्हारी याद में
वो सब किया
जो तुम्हे अच्छा लगे
मगर टूटे हुए कांच को
जोड़ पाना मुमकिन न था...

तुम्हारा अरमान था
आस्मां का रोशन सा चाँद
औऱ मेरे लिए इक तारा भी
तोड़ पाना मुमकिन न था...

मैंने तुम्हारे हवाले कर दिया था
जिंदगी से रूह तक     
सांस हाथो में थमा देना
मगर मुमकिन न था

मैंने मिटा दिया था
तुझको पाकर अपनी पहचान तक
हाँ! मगर बीता कल मिटा पाना
ज़रा मुमकिन न था

तुझसे वफ़ा कि इस कदर
राह-ए-इश्क़ में हमनशीं
तेरे बिना जीना भी कठिन
मर जाना भी मुमकिन न था

कैसे छोड़ती तेरा आँगन
रुस्वाइयों के बावज़ूद भी
पर पड़े थे तेरी जेब में
उड़ पाना भी मुमकिन न था

नज़रे मिलाके हक़ मांगती भी
तो बता किस शक्ल से 
हैसियत थी कौड़ियो कि
कुछ कह पाना भी मुमकिन न था

तूही मसीहा था मेरा
औऱ हर दुआ थी तुझसे जुड़ी
ऐसे में खुदा के सर
इल्जाम दे पाना भी मुमकिन न था..

सारा जहाँ था जिस तरफ 
जब तू भी खड़ा मिला वहीँ
कितनी तनहा हुई थी उस पल
ये बयां कर पाना भी मुमकिन न था..

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

Tuesday, January 14, 2014

TheTrue feeling of love "बेपनाह मोहोब्बत"

नामुमकिन ही तो था
तुम्हारे बिना मेरे अनसुलझे
गठियाये सवालो का ये जान पाना
कि अधूरापन पूर्णता कि
ओढनी ओढ़ के कैसे बलखाने लगती है? 
इतनी बड़ी बोझ लगती जिंदगी
कब, कहाँ, कैसे कम पड़ने लगती है ?
इक इंसान में खुदा को पा लेने के 
कठिनतम दृष्टिकोण का सरल जवाब..

मोहोब्बत क्या है आखिर??

कैसे दो धड़कने इक ही साथ बजने लगती हैं?
आँखों कि लाल-हलके गुलाबी रंगो कि लकीरो को
कैसे कोई भाषा बना के पढ़ लेता है?
आखिर कौन सी लिपि होती है इनकी?
कमियाँ कब अनदेखी सी रह जाती हैं?
घोड़े कि तरह मस्ती में भागता हुआ
ये समय नजाने रेंगने कब लगता है ?
राते कब बेचैन करने लगती हैं?
क्यूँ घड़ी कि सुइयों को
रोक देने का मन करता है
सहने कि शक्ति कैसे बढ़ जाती है?
बारिश सकून बनती है कौन से मौसम में ??
बूंदो के जलाने का सिलसिला
कैसे औऱ कब चलता है?
इतंज़ार कोई कैसे करता है?
अपनी अंतिम स्वाश तक 
इस स्पषटता के बावज़ूद
अब कुछ भी नहीं लौटेगा
कैसे प्रत्येक आहट कि खबर
मिल जाती है बिना सन्देश को भेजे ही?

कैसे जन्नत छटाक सी
बाजुओ में तब्दील हो जाती है?
मुस्कान बेवजह ही सुर्ख होंठो पर 
कैसे छपती मिटती रहती है?  
इन सब का निचोड़ निकला ऐसे छोर पर
जहाँ से शुरू हुआ नए सिरे से जीवन
जब केवल दे देना ही
इक मात्र आंतरिक मंशा थी... 
बड़ी खामोशियो से उमड़ते खूबसूरत एहसास मुझे
सब कुछ समझा गए कि ये सब हादसे
सिर्फ औऱ सिर्फ होते हैं
बेपनाह मोहोब्बत के आलम में!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

"साक्षात्कार तजुर्बे से"

कल शाम मेरे तजुर्बो कि
गुफ़तगू थी मेरे साथ
फुरसत में बैठ तन्हाई के मसहरी पऱ
सीख ने बड़े ही ज्वलित तरीके से
कानो में आकर कहा
फिर तर्क वितर्क दे समझाने लगा
बहुत कुछ पूर्णयता दृढ होकर
प्यार को प्राप्त करने के पीछे
जब आप भागते हो तो वो आपके साथ
पकडन-पकड़ाई खेलने लगता है
छटकता रहता है
चिकने कंचे कि भाति बड़ी ही फुर्ती से
नज़दीकी कि आहट मिलते ही
औऱ हो जाता है आपकी पकड़ से बाहर
यदि आपको भूले से मिल भी जाए
तो लिबड़ा हुआ होता है वासना से
किन्तु जब आप स्थिर हो जाते हो 
तो वो स्वयं आप तक
चल कर आ जाता है
कोशिशो से ज्यादा खूबसूरत अंजाम देता है
दौड़ाते - भागते उम्र के हार्मोन का ठहराव...
क्यूंकि
बाकी लक्ष्य से पलट है ये बिलकुल 
जो लगातार भागते रहने पर मिलता है
इसके पीछे का भागम-भाग
नाज़ायज़ में छीन लेती है बहुत कुछ 
जायज़ मुकाम तक का वो उठाव
ऊपर से इतनी तेज़ी से गिराती है
कि जिंदगी के मायने लीप के रख देती है
सब कुछ आखिरी बन जाता है
औऱ स्वयं जिंदगी इक खोखला प्रश्न
जिसका उतर भी खोखला सा ही है
फिर इक ही अर्थ निकल के
सामने आ खड़ा होता है...

रह जाती है बन हाथ में
अनगिनत गलतियों कि
भट्टी में झुकी हुई
राख के ढेर सी जिंदगी!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 15th Jan, 2014

क्यूँ ?????


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

dated : 15/01/2014

Monday, January 13, 2014

दर्द-ए-श्लोक

अब सारी खुशियां ही ख्वाब बन गयी हैं 
सिर्फ गम हकीकत से वाबस्ता रह गया

जिंदगी तवायफ सी भटकती रही दर-दर
दर्द कि बंदगी बस आखिरी रस्ता रह गया

मौत से आरज़ू कि वो मुँह लटका के आयी
काँटा बन के फूलो का गुलदस्ता रह गया

चुभन कि शिकायत किससे करूँ मिलकर
इंसानी बाज़ारो में जस्बात का बोहनी बट्टा रह गया

खींच कर जी भर सबने बनाया मज़ाक बस्ती में 
फंदा बनके गले का लाल दुपट्टा रह गया

लूट कर के गया तश्तरी कि आखिरी रोटी भी
छीनने में माहिर तकदीर का कुत्ता रह गया

अब नहीं मेरे बस में कि हसरतो को इज्जत बक्शु
वज़ूद जला भुना मक्की का भुट्टा रह गया

इश्क़ अगर सुनता तो तस्वीर कुछ और बनती
एहसास कि गहराईयो का उलझ के गुत्था रह गया

तूने भी घायल किया चोट मारी पूरे आवाम ने
दूरियां कम करते-करते टूट कर खुद फुट्टा रह गया

(c)  परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 14/01/2014....

Sunday, January 12, 2014

सुबह होने दो....

रास्ते कई निकल आयेंगे सुबह होने दो
किसी मोड़ से हम भी मुड़ जायेंगे सुबह होने दो

तो क्या कश्ती भंवर में आ फसी है
तजुर्बे से किनारे लगाएंगे सुबह होने दो

फूँक से हवाओ ने बुझा दिया हैं चिराग
हम सूरज को अब जलाएंगे सुबह होने दो

दोस्तों ने बहुत रुस्वा किया है हमको 'श्लोक' 
दुश्मनो को गले लगाएंगे सुबह होंगे दो

रात भर बैठ के लिखते रहे हैं दास्तान अपनी
हर लव्ज़ से मुखातिब तुम्हे कराएँगे सुबह होने दो

हालातो ने पर मेरे कब के ही काट दिए हैं
हम सारे परिंदे शहर के उड़ाएंगे सुबह होने दो

गम सर पे चढ़ के नाचने लगा हैं आज कल
हर हद तोड़ कर हम मुस्कुराएंगे सुबह होने दो

आइना कहने लगा हैं हमसे कि मुद्दत से तनहा हैं
तुमको ढूंढ कर तुम्ही में छिप जायेंगे सुबह होने हो

देखते हैं कि कौन सा उफान अब तोड़ता हैं हमारा घर
इश्क़ से मुकम्मल हर दीवार बनाएंगे सुबह होने दो

तूफ़ान ले गया था छीन कर उस रोज़ जो कुछ भी
हर हिसाब उससे चुकता करवाएंगे सुबह होने दो


(c)  परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, January 11, 2014

"मोहोब्बत ने सब अदला बदला कर दिया"

मोहोब्बत ने सब अदला बदला कर दिया
मैं था अकलमंद मुझे पगला कर दिया

इस बार के मौसम में जाने क्या बात थी
बारिश ने तपा डाला ठण्ड ने नज़ला कर दिया

समझ ही न पाया साज़िशों के रेशमी से जाल थे
सितारो का आँचल ओढ़ रात ने शक्ल रुपहला कर लिया

मिटती जा रही थी हाथो से खुशकिस्मती आहिस्ता से
खौफ खाकर तेरे नाम कि लकीरो को गहरा कर लिया

इस खेल में जीता भी मैं हारा भी मैं था शौक से
इक तपिश ने नम ज़मीन को रेत का सेहरा कर दिया

जबसे तू कह गया मुझको कि तू मेरा नहीं है 'श्लोक'
दुआओ में तुझे पा लेनी कि हसरत को पहला कर दिया

(c) परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 11th Jan, 2014

"हवाएं रुख पलट के आयीं आँधियाँ बन गयी"

हवाएं रुख पलट के आयीं आँधियाँ बन गयी
जस्बात तेरे हौज़रे में जाकर बांदियाँ बन गयी

साये छोड़ कर लिपट गए गुस्ताख़ अंधेरो से
छनकती पांजेब मेरे पैरो कि बेड़ियाँ बन गयी

तारे टूट कर बिखरे मन्नत कि आबरू के लिए
हाल-ए-दिल हर जुबां कि कहानियाँ बन गयी

गुलाब कभी जो बिछ जाते थे राहो में हमको देखकर
उन्ही के कांटे पाँव के जख्मो कि निशानियाँ बन गयी

ठोकर लगाती कश्मकश में उलझ के सिमट के रह गयी
सकून तन्हाईयो के महफ़िल कि रानियाँ बन गयी..

पाला हैं आँखों में अश्को को  'श्लोक'  बड़े ईमान से
वज़ूद-ए-मुस्कान जिंदगी के लिए तभी से सवालियाँ बन गयी

(c) परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 11/01/2014

Friday, January 10, 2014

!!कवित्री हूँ!!


कवित्री हूँ...
रिश्ता है मेरा शब्दो से उनके अर्थो से
साहित्य कि सुंदरता से उसकी गहनता से
अनुभूति से हर प्रकार कि
लिखती हूँ कविता
कभी ग़ज़ल..कहानी
तो कभी गीत..शायरी
पर सबको सुना नहीं पाती...

कैसे सुनाऊ ??

अखबारो में जगह ही नहीं मिलती
पहले से ही सांठ-गांठ रहता है प्रचारको का
कहीं पर नेताओ का इंटरव्यू होता है
कहीं पर घोटालो का काला चिट्ठा
औऱ नज़ाने क्या-क्या ?

क्या करूँ ??

ऐसे में मैं अक्सर
अंकित कर लेती हूँ अपनी लेखनी
अपनी डायरी के खिलखिलाते पृष्ठों पर
या फिर ब्लॉग पर उड़ेल देती हूँ
कुछ कविताएं अपनी...

ज्ञात है मुझे बेहतर 
भागती कामुक दुनियाँ में अब किसी को समय कहाँ
पोर्न साईट के बीच से निकल कर
फेसबुक के स्टेटस औऱ कमेंट से फुर्सत पाकर
वैब चैट कि लत से बाहर आकर 
महता कि इस दुकान से
स्वच्छ सोच को सेत में लेने का..

धुंधली पड़ती जा रही कविता कि भाषा
इसमें भी यदि तलाश करते हैं तो कामुकता का वर्णन 
कहीं छोटी हो कर लुप्त ना हो जाए
भय तो है मुझे
लेकिन मैं नहीं रोकूंगी लिखना
खोने नहीं दूँगी कविता के अवशेष
जीवित रखूंगी सबके जहन में..

मैं अमर कविता का असर प्रत्येक आसार!! 



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 11th Jan, 2014

सर्दियाँ सुन्दर हैं??

अच्छी लगती है सर्दियाँ
जब कोहरे झिसियाते हैं
पलकों पर सफ़ेद फाहा सा छोड़ जाते हैं
धूप कई दिनों तक
धरती को छूता तक नहीं 
शीतलहरों का आना औऱ
आकर बर्फ बना जाना नदियो को
ओला पड़ना कश्मीर कि वादिओं में
हिमालय कि चोटियों का श्वेत हो जाना 
सुंदर दृश्य भान पड़ता है हर दिशा का..

किन्तु ऐसे में ही जब नज़र पड़ती है
फूटपाथ पर सोये औऱ
उसे आशियाना बनाये
ठिठुरते गरीबो पर
जो हाड़ को जमा देने वाली
सर्दियों को कोसते रहते हैं
सूरज के खिलने कि कामना करते हैं
तब मौसम कि निर्दयी मार
मुझे खिझाने लगती है..

मुजफ्फरनगर दंगा पीडितो के
शिविरो का ध्यान आता है
अपनों को खोने का दर्द रिस्ता हैं
आज भी जिनकी मासूम आँखों से 
जो घर से बेघर हो चुके हैं
अलाव कि कमगिस्ति के साथ-साथ,
मुकम्मल साधन नहीं जिनके पास
चिर्राती ठण्ड में गर्म कपड़ो तक का
मैं भीग जाती हूँ
उस समय पीड़ितो कि अथाह पीड़ा से..

सच कहूँ? 
तब कोई अर्थ नही रह जाता 
सर्दियों कि सुंदर अनुभूति का मेरे लिए भी!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 11th Jan, 2014

"अनायास ही मैं लड़की"

मैं अपना स्थान बना चुकी थी
अपनी माँ के गर्भ में
धीरे - धीरे कण मात्र रूप से
परिवर्तित होने लगी थी
सम्पूर्णता कि दिशा में
अंग बनने शुरू हो गए थे
माह तीसरे से नौ माह के अंतराल तक  
मैं खुश थी बहुत भीतर ही भीतर
अब बहुत शीघ्र ही
दुनिया में आने का अवसर आने वाला था
फिर मैं भी कुछ अच्छा करती
परन्तु क्या किया जाना चाहिए?
ये तो दुनिया को देख के ही
तय करना था मुझे
किन्तु नजाने कैसे घर में सब को पता चला
कि माँ के कोख में लड़का नहीं है
बल्कि सांस ले रही है इक लड़की
भयभीत कर दिया था सबने कलह से मुझे
सब जुगत लगाने लगे
मेरी स्वाशो को चलने से पहले ही
उसपर प्रतिबन्ध लगाने कि
मैं महसूस तो कर रही थी सब
किन्तु कह न पायी इतना

कि मुझे जीने दो..

अपनाने लगी माँ घरेलु नुस्के 
तो कहीं चक्कर काटने लगी अस्पतालो के
बड़े अस्पताल से मनाही हुई
तो दूसरे अस्पताल जा पहुंचे
वहाँ अवधि अधिक होने से मना किया गया
तो जनम देकर बहा दिया गया
मुझे किसी municipal के कचरे के डिब्बे में..

और मैं भूख से बिलखती
दुनिया कि ऐसी सोच पर थूकते हुए..
क्रूरता के आगे नतमस्तक हो
गले लगा के चली गयी मौत कि बाहों में
  
मैंने कोई गलती नहीं कि थी
सिवाय इसके
कि मैं अनायास ही आड़े आ चुकी थी
लड़का होने के पहले दिन से पाले हुए सपने के..
बन चुकी थी उनकी इच्छा से परे
अकारण ही इक लड़की!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 11th Jan, 2014
 

!!हसना चाहती हूँ!!


हसना चाहती हूँ आज मैं
अब बहुत दिन गुज़रे
गमो का कोपला ढ़ोते ढ़ोते
भिनभिनाती तकलीफो को हांकते हांकते
कंधो पर लादे लादे पहाड़ चिंता का
दफ़न कर देना चाहती हूँ खुश्क अवसाद
खिलखिलाना है मुझे बेवजह ही
प्रकृति के बीच खुले वादियो में जा
किसी से इजाजत लिए बिना ही
पोर-पोर मन का खिला देना चाहती हूँ ..


सुनो ! कोई रोकना भी मत मुझे
क्यूंकि मैं नहीं बदलूंगी अपना विचार


गिर गये हैं खुशियो के पात
गर्म लू कि थपेड़ो से चोट खाकर
आशाओ कि बगिया पूर्णतया मुरझा गयी है
अब फूल-पात जमकर भिगा देना चाहती हूँ..

वो बचपन कि लोटपोट कर देती हुई
आज मासूम निर्मल हसी से मिली मैं 
नज़ाने कहाँ से आती थी इतनी हास्यपद बातें
सखियो के झुंडो में ज़रा कुछ पाकर
ठेठठा-ठेठठा लाल हो जाना मेरा ....

मैं फिर से मुख पे वो हसी सज़ा लेना चाहती हूँ
आज अश्को को सबक सीखा देना चाहती हूँ
मीलो दूर गमो को उठा कर बहा देना चाहती हूँ

मैं आज हसना चाहती हूँ बेवजह ही..
कोई रोकना मत !!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 10th Jan, 2014

"उदासियाँ"

उदासियो ने अपने कठोर पंजो में
दबोच लिया है खुशियो कि
बलखाती अठिलाती तितलियों को
घुटती जा रही हैं साँसे मुट्ठियों में कैद हो
परन्तु जीवन अपनी रफ़्तार में
आगे कि ओर....
बिना रुके बिना थके बढ़ रहा है
पहर चुंटीओ कि तरह रेंगता हुआ
पत्थर कि खुरदरी शिला पर चढ़ता जा रहा है
न दिन घटता न ही रात छोटी होती
चिंता कि लकीरे माथे पर
निरंतर खिंचती जा रही है 
कलह पसरता जा रहा है
अपना पैर औकात से बाहर
संयम टूटता बिखरता उड़ता पड़ता
बौराया सा हो गया है
बर्फ जम गयी है सोच कि
गनगनाती निर्झर झरने में
दबता जा रहा है उम्र
कुंठा के कंटियाये बजड़ियो के नीचे
आँखो कि चमक को कब्जियाती जा रही है
पुचकारते हुए काजल सी भी काली छईयां.. 
चहरे कि अरगनी पर टंग गयी हैं झुर्रियां
और झूल रही हैं बिन सावन भादव देखे
बैठी हुई कोमल लालियो के लाल पीढ़े पर...
आगे बढ़ती हुई उदासियाँ
छीनती जा रही है इक इक करके
मुझे सम्पूर्ण करता हुआ प्रत्येक साधन
और
ये जानते हुए भी परिस्थितियां देती जा रही हैं 
खुशियो से ज्यादा इन
बर्बर उदासियो को
जीवन के सिंहासन पर अहम स्थान!! 


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 10th Jan, 2014

Thursday, January 9, 2014

आज मन नहीं है

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

!!इक चेहरा कई आइना हो गया है!!

सांस लेना भी यहाँ अब गुनाह हो गया है
खेल रिश्तो का इकदम जुआ हो गया है

चढ़ गया है पहाड़ पे नफरत का दानव
चैन सूखा हुआ एक कुआँ हो गया हैं

सच की सादगी उतार के फेका गया
झूठ हर सकशियत का गहना हो गया है

जान देने लगे हैं लोग कागज़ के टुकड़ो पे तबसे
इक चेहरा कई आइना हो गया है

कभी संभालते हैं तो कभी उछाल देते हैं
ज़स्बात जैसे कोई खिलौना हो गया है

अपनी ज़रुरतो को पूरा करते करते
शरीर हर इंसान का नंगा हो गया है

तन-मन धोते धोते दोधारी इंसानो का
जल गंगा का इकदम मैला हो गया हैं

ऐसी सोच में सबके मिलावट मिली की
ज़मीर सबका गूंगा बहरा और अँधा हो गया है


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 30.09.2013

 

"आत्महत्या "

इक पत्र मिला सखी 'उर्मिला' का
उस से मालूम चला कि
'स्वाति' ने आत्महत्या कर ली
कारण अविश्वसनीय था
प्रेम में धोखा मिला उसे
गर्भवती हो गयी थी
यही लिखा था उस पत्र में
जो दिमाक को ठनका गया
ठग़मारी भई बैठ गयी चित सी मैं 
सनका मन बोला वो ऐसी कभी नहीं थी
इतनी कमज़ोर आखिर कैसे हुई वो  
मैंने कार्यालय से छुट्टी लिया
सोनबरसा के लिए निकल पड़ी
वहाँ पहुंचते ही पाया
जितने मुँह उतनी बाते करते हुए लोगो को
अफवाह हकीकत से कई कदम आगे निकल चुकी थी 
तरह-तरह के सवाल उठाये जाते रहे
स्वाति के चरित्र पर घड़ी-घड़ी
हर व्यक्ति के लिए बात-चीत का
मसालेदार मसला बन गया था
सुनते सुनते मैं भी बेहाल हो चुकी थी
ऐसी गन्दी बात बोल देते थे
नुकड़ पर खड़े होते आवारा लड़के तक
जिनका चरित्र है भी या नही?
इक सवाल ही था...
कई भद्दी गालियां देती रहती
उसकी चाची तो कभी उसकी भाभी
कोई 'छिनार' बोलता तो कोई 'वैश्या'
इक रात
स्वाति मेरे सपने में आयी
और कहने लगी 'श्लोक'
मैं जीना चाहती थी
किन्तु मैं शून्य हो गयी थी
मुझे कुछ भी नहीं बूझ रहा था
सिवाय वो हादसे के जो मेरे साथ हुआ
बाद में बुरा लगा पर हाथ से निकल चुका था सब.. 
सुबह सोच आया ये लोग भी ना?
किसी ने एहसास भी नही किया होगा
उस शून्य स्थिति का मतलब तक
वाज़िब कारण तो चलो कौन ढूँढता है?
जब मसालादार बात बनानी हो..
मैं किसको बताती कौन सुनता
मेरी सपने कि बात को
दो बात मुझे भी सुनाने बैठ जाते
काश!
उसके मरने के उपरान्त
उसकी आत्मा को छल्ली करते लोगो को
ये बताने कि चरित्रहीन नहीं थी वो
और वास्तविक कारण क्या था?
बताने आ जाती स्वाति...
परन्तु कैसे आती स्वाति ये बताने को??

ये स्वीकार करने को कि वो अपराधी तो है
किन्तु स्वयं कि निर्मम हत्या का षड्यंत्र रचाने कि!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'