Wednesday, January 22, 2014

!!उस दिलनशीन ने जब अपनी चुनरी उढ़ाई थी!!

बड़ी मुश्किल से इज़हार करने कि हिम्मत जुटाई थी 
उससे मिलने के खातिर नादान सी साज़िश रचाई थी

कभी भूले से भी जिसने ताका नहीं था मेरी ओर
हर दीवार फांद मुझसे आज मिलने वो आई थी

तलाश करते रहे जिसे अक्सर किताबो में हम
वो गजराई शोखियां हमने उनकी नज़र में पाई थी

गमो ने बगावत ठान ली थी उसी पल हमसे
उसके गुलाबी लबो पे इक झलक जब मुस्कान आई थी

खुदा ने इबादत में दे दिया हो जैसे सकूं सारा
उस दिलनशीन ने जब अपनी चुनरी उढ़ाई थी

सुनाया था हाल-ए-दिल उसने शायरी में हमको 'श्लोक'
हमने उसके तारीफ में फिर अपनी कविता सुनाई थी


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 23/01/2014

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