Wednesday, January 15, 2014

"तुम औऱ कुछ नामुमकिन सा कारवाह "

मैंने तुम्हारी याद में
वो सब किया
जो तुम्हे अच्छा लगे
मगर टूटे हुए कांच को
जोड़ पाना मुमकिन न था...

तुम्हारा अरमान था
आस्मां का रोशन सा चाँद
औऱ मेरे लिए इक तारा भी
तोड़ पाना मुमकिन न था...

मैंने तुम्हारे हवाले कर दिया था
जिंदगी से रूह तक     
सांस हाथो में थमा देना
मगर मुमकिन न था

मैंने मिटा दिया था
तुझको पाकर अपनी पहचान तक
हाँ! मगर बीता कल मिटा पाना
ज़रा मुमकिन न था

तुझसे वफ़ा कि इस कदर
राह-ए-इश्क़ में हमनशीं
तेरे बिना जीना भी कठिन
मर जाना भी मुमकिन न था

कैसे छोड़ती तेरा आँगन
रुस्वाइयों के बावज़ूद भी
पर पड़े थे तेरी जेब में
उड़ पाना भी मुमकिन न था

नज़रे मिलाके हक़ मांगती भी
तो बता किस शक्ल से 
हैसियत थी कौड़ियो कि
कुछ कह पाना भी मुमकिन न था

तूही मसीहा था मेरा
औऱ हर दुआ थी तुझसे जुड़ी
ऐसे में खुदा के सर
इल्जाम दे पाना भी मुमकिन न था..

सारा जहाँ था जिस तरफ 
जब तू भी खड़ा मिला वहीँ
कितनी तनहा हुई थी उस पल
ये बयां कर पाना भी मुमकिन न था..

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

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