Saturday, January 4, 2014

"सियासत कि जादुई कुर्सी"

क्या होता है सियासत कि कुर्सी में?
जिसपर बैठते ही
पहाड़ पर चढ़े गिरगिट सा
रंग बदल जाता है
फिर धीरे-धीरे फैलाने लगती है
लालच कि लोमड़ी अपने नुकीले पाँव
कुचला जाने लगता है
दावो कि मेंढक को
जो चुनाव के बरसात के दौरान
निकल के जनहित-तालाब को घेर लेती है
भरने लगते हैं बरसो से सूखा कुआं
काले धन के अपारदर्शी पानी से
उलट हो जाता है गली से चंदा बटोरते भिखारी भी  
सफ़ेद कुरता-पाजामा पहन के नेता बनते ही
अज्ञानी भी बड़ी-बड़ी बाते करते हैं
बिन आधार कि बातें....
क्या होता है आखिर उस कुर्सी में?
जहाँ बैठते ही कुंठित मानसिकता का
असभ्य व्यक्ति भी सब वी.आई. पी हो जाता है
जिद्द उनके दिमाक के
मुंडेरे पर चढ़ जाती है
फिर आम आदमी से भय हो जाता है
जिसके हाथो कि मोहर उन्हें तख़्त कि भेट देती है
कैसी गुमनाम गली है सियासत कि
भीतर काला-नीला-लाल होता है
परन्तु जुबान पर चमकती भाषा...
इक आम आदमी को
हम भगवान् बना देते हैं
वोही जनता कि इच्छाओ को
कीड़ो कि तरह मसलते चलते हैं..
यहाँ पहुँच कर भीगी बिल्ली भी
सवा शेर हो जाती है..
आखिर ऐसा...
क्या होता है सियासत कि कुर्सी में???


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Date : 04th Jan, 2014
 

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