होंठो कि गुलाबी
नरम पंखुड़ियों पर
पानी का छीट भी मोती
सा बन बैठता है तुम्हारा नाम
झंकार सा बजने लगता है
अंतर्मन में किसी भी बेला में...
भूले से जिह्वा छोड़ देती है
जब तब किसी परचित पर
तुम्हारी पुकार का बाण...
जब वो अचम्भित होकर
संदेहिता से ताकता है
तो खिसिया मूड़ नीचे झुका लेती हूँ..
अजब-गज़ब कहानी बन जाती है
सखियो के जत्थों के बीच
ठिठोली बना लेती हैं मेरा
हर चित्तवृत्ति पर घेराव
करने लगते हैं सभी..
कई बार अभिप्राय को जोड़ने घटाने में
मैं स्वयं भी निरा-आधार हो जाती हूँ..
घटाओ को देख मोर बन नाचती हुई
अचानक भापने लगती हूँ
अपने भाग्य के पाँव को तब
गठिया जाती हूँ शून्य हो जाती हूँ...
परन्तु तुम्हारा सन्देश
उमंग और लालसा का रस भर देता है
इन सब गुद-गुदाहट कि अकपट...
और मैं पलक झुका शर्म से लाली भई
कह ही देती हूँ सामने रखे दर्पण में देख
"तुम वास्तव में हो कौन"??
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
बढ़िया ।
ReplyDeleteदुर्गा जी का मेला बा(कजरी)
ReplyDeleteपियवा रेक्सा मँगायदा,
अबहिन बेला बा।।
दुर्गा जी का मेला बा ना॥
गइनी देवी जी के थान,
लेहनी रोरी अच्छत पान,
देवी कुशल से राखा,
पियवा घर अकेला बा।
दुर्गा जी का मेला बा ना॥
पियवा रेक्सा मँगायदा,
अबहिन बेला बा।।
गइनी देवी जी के थान,
लेहनी रोरी अच्छत पान,
देवी कुशल से राखा,
बचवा घर अकेला बा।
दुर्गा जी का मेला बा ना॥
"तुम वास्तव में हो कौन"??
ReplyDeletesawal bhee jawaab bhee...uttam
bahut achchi rachna
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ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद