कभी सोचा न था कुछ ऐसे तुम्हे खो दूंगी
ज़हर का शज़र जिंदगी कि ज़मीन में बो दूंगी
सपनो कि दुनियाँ के हर अक्स टूटे मिलेंगे
चुभेंगे आँख में और उनकी टीस से रो दूंगी
किसी दौर में जिन एहसासो कि बादशाहियत थी
वक़्त कि धुंध में हसीन मंज़र वही मैं खो दूंगी
देखो मेरे जख्मो को रह रह के न कुरेदा करो
मैं बरस पड़ी तो पुरे कायनात को डुबो दूंगी
फरेबो कि फेर हो या फैसलो कि उंदा खता 'श्लोक'
मैं इस किस्से को जड़ से ही मिटो दूंगी...
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 27/01/2014
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