Thursday, January 9, 2014

!!इक चेहरा कई आइना हो गया है!!

सांस लेना भी यहाँ अब गुनाह हो गया है
खेल रिश्तो का इकदम जुआ हो गया है

चढ़ गया है पहाड़ पे नफरत का दानव
चैन सूखा हुआ एक कुआँ हो गया हैं

सच की सादगी उतार के फेका गया
झूठ हर सकशियत का गहना हो गया है

जान देने लगे हैं लोग कागज़ के टुकड़ो पे तबसे
इक चेहरा कई आइना हो गया है

कभी संभालते हैं तो कभी उछाल देते हैं
ज़स्बात जैसे कोई खिलौना हो गया है

अपनी ज़रुरतो को पूरा करते करते
शरीर हर इंसान का नंगा हो गया है

तन-मन धोते धोते दोधारी इंसानो का
जल गंगा का इकदम मैला हो गया हैं

ऐसी सोच में सबके मिलावट मिली की
ज़मीर सबका गूंगा बहरा और अँधा हो गया है


ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 30.09.2013

 

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