तुम मुझे ख़ाक हो
जाने दो
बहुत जली हूँ अब
राख हो जाने दो
कैसे समझाऊं उदासियाँ
कितनी सर चढ़ी हैं?
घटायें तेरी याद
कि
जबसे बरस पड़ी हैं
तैर कर उबलती लहरो
से
किनारो से बात हो
जाने दो..
बहुत जली हूँ अब
राख हो जाने दो!
करवटो से टूटती
है
मंज़िलो कि आस
सलीबों पर टांगा
हुआ है
मेरा गूढ़ विश्वास
धागो से रिश्ते
को चरखी पर
कातती गयी टूटता
गया
कतरा था या रेत था
जितना सम्भाला उतना
छूटता गया
पर्वतो को पार कर
आकाश हो जाने दो
बहुत जली हूँ अब
राख हो जाने दो!
हरियाई घास बाग़
कि पिली भात हो गयी
संवेदना के पेड़
कि टूटी शाख खो गयी
नवीन सृजन की संभावनाएँ
अस्त-व्यस्त रह
गयी
पुतला जैसे माटी
का मैं
रह-रह टूटी और डह
गयीं
बची-खुची मंशा का
अंतिम उपहास हो जाने दो
बहुत जली हूँ अब
राख हो जाने दो!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
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