Thursday, January 2, 2014

अतीत इक सीख....

सीना तान के खड़ा हो गया है
जहन के अस्थायी खेमे में
इक बार फिर से अतीत का
बहुमुही नुकीला कांच का
बुता हुआ बल्ब....
वर्तमान कि चमक से चिढ़ता हुआ
किन्तु समरण करवा दूँ...
इसके टुकड़ो के दिए जख्म
बेशक कि जिन्दा हैं मुझमे
लेकिन मैं जीना नहीं चाहती इन्हे
मेरे अच्छाईओ को कुरेद कर
अतीत का दीमक उसे हजम नहीं सकता
तुम इक सीख हो मैंने सीखा है तुमसे
वाजिब हर वो बात जो हमें खूबियों के
सांचे में ढाल कर परिवर्तित कर देती है
अब मैं बढ़ चुकी हूँ..घटूंगी नहीं,
मजबूत हो चुकी हूँ..
छलना मुझे सम्भव नहीं
आज या भविष्य के किसी भी
कण मात्र हिस्से को भी नहीं 
छेद कर केवल रिसता हुआ खून मिलेगा
जिसका मिठास तुम्हे वापिस पीछे धकेल देगा
उसी स्थान पर जहाँ से तुम्हे लुप्त हो जाना होगा
तुम्हे देने के लिए मादक मिठास के अलावा...
मेरे पास कड़वाहट भी शेष नहीं!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

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