जिंदगी में जिन्दा होकर इक दोस्त के लिए मरती
तिनका लिए नन्ही चींटी सी परबत का रुख करती
किसी कथाकार कि कहानियो कि किताबो को पढ़ती
यहाँ किसको है इतना वक़्त जो मेरा हाल सुनने आता
आईने को कब तक तोड़ती किस-किस से मैं अकड़ती
शुक्रिया ए मेरे खुदा जो तूने लिखने का हुनर बक्शा
मैं इस दर्द के आलम में लिखती न तो क्या करती?..
तन्हाईयो के खौफनाक कातिलाना मंज़र कैसे बदलती
राज़ टूटे ख्वाबो का किस हमराज़ से साँझा करती
कंधो पे बिठाया तो सर चढ़ कर नाचने लगे रिश्ते
पाँव के छालो कि परतो पर मलहम कैसे मलती
मैं इस कशमकश के आलम में लिखती न तो क्या करती ?..
मौकापरस्त लोग है अपने हित में नंगाए
मार डाले किसी भी मासूम को पाने कि जिद पे जो आए
हार कर मैं भी कूद जाती किसी बहती दरिया कि धार में
खो जाती नोचती मुझको भेड़ियाई कांटो कि जाल में
या बेशर्म किसी मुसाफिर का सहारे को हाथ पकड़ती
मैं इस बदहवास आलम में लिखती न तो क्या करती ?
बचपन बिछुड़ा मुझसे जवानी के झाड़ पे चढ़ आये
पाया इस शिखर पे सपनो के सारे फूल मुरझाये
सीखा लम्हातो से इतना कि कोई क्या तजुर्बा लेता
हम ही जीत के रचयिता थे औऱ हम ही हार आये
अपनी परछाईयो को श्याह में खोकर रोशनी में पकड़ती
झड़ गयी थी उम्मीद के शज़र से हवाओ कि हो चलती
हसरतो कि डूबती नाव पे बेबस मल्लाह सी सवारी करती
मैं इस दीवानगी के आलम में लिखती न तो क्या करती ?
शुक्रिया ए मेरे खुदा जो तूने लिखने का हुनर बक्शा!!
मैं इस दर्द के आलम में लिखती न तो क्या करती?..
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक' Dated : 25/01/2014
तिनका लिए नन्ही चींटी सी परबत का रुख करती
किसी कथाकार कि कहानियो कि किताबो को पढ़ती
यहाँ किसको है इतना वक़्त जो मेरा हाल सुनने आता
आईने को कब तक तोड़ती किस-किस से मैं अकड़ती
शुक्रिया ए मेरे खुदा जो तूने लिखने का हुनर बक्शा
मैं इस दर्द के आलम में लिखती न तो क्या करती?..
तन्हाईयो के खौफनाक कातिलाना मंज़र कैसे बदलती
राज़ टूटे ख्वाबो का किस हमराज़ से साँझा करती
कंधो पे बिठाया तो सर चढ़ कर नाचने लगे रिश्ते
पाँव के छालो कि परतो पर मलहम कैसे मलती
मैं इस कशमकश के आलम में लिखती न तो क्या करती ?..
मौकापरस्त लोग है अपने हित में नंगाए
मार डाले किसी भी मासूम को पाने कि जिद पे जो आए
हार कर मैं भी कूद जाती किसी बहती दरिया कि धार में
खो जाती नोचती मुझको भेड़ियाई कांटो कि जाल में
या बेशर्म किसी मुसाफिर का सहारे को हाथ पकड़ती
मैं इस बदहवास आलम में लिखती न तो क्या करती ?
बचपन बिछुड़ा मुझसे जवानी के झाड़ पे चढ़ आये
पाया इस शिखर पे सपनो के सारे फूल मुरझाये
सीखा लम्हातो से इतना कि कोई क्या तजुर्बा लेता
हम ही जीत के रचयिता थे औऱ हम ही हार आये
अपनी परछाईयो को श्याह में खोकर रोशनी में पकड़ती
झड़ गयी थी उम्मीद के शज़र से हवाओ कि हो चलती
हसरतो कि डूबती नाव पे बेबस मल्लाह सी सवारी करती
मैं इस दीवानगी के आलम में लिखती न तो क्या करती ?
शुक्रिया ए मेरे खुदा जो तूने लिखने का हुनर बक्शा!!
मैं इस दर्द के आलम में लिखती न तो क्या करती?..
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक' Dated : 25/01/2014
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