Tuesday, January 14, 2014

"साक्षात्कार तजुर्बे से"

कल शाम मेरे तजुर्बो कि
गुफ़तगू थी मेरे साथ
फुरसत में बैठ तन्हाई के मसहरी पऱ
सीख ने बड़े ही ज्वलित तरीके से
कानो में आकर कहा
फिर तर्क वितर्क दे समझाने लगा
बहुत कुछ पूर्णयता दृढ होकर
प्यार को प्राप्त करने के पीछे
जब आप भागते हो तो वो आपके साथ
पकडन-पकड़ाई खेलने लगता है
छटकता रहता है
चिकने कंचे कि भाति बड़ी ही फुर्ती से
नज़दीकी कि आहट मिलते ही
औऱ हो जाता है आपकी पकड़ से बाहर
यदि आपको भूले से मिल भी जाए
तो लिबड़ा हुआ होता है वासना से
किन्तु जब आप स्थिर हो जाते हो 
तो वो स्वयं आप तक
चल कर आ जाता है
कोशिशो से ज्यादा खूबसूरत अंजाम देता है
दौड़ाते - भागते उम्र के हार्मोन का ठहराव...
क्यूंकि
बाकी लक्ष्य से पलट है ये बिलकुल 
जो लगातार भागते रहने पर मिलता है
इसके पीछे का भागम-भाग
नाज़ायज़ में छीन लेती है बहुत कुछ 
जायज़ मुकाम तक का वो उठाव
ऊपर से इतनी तेज़ी से गिराती है
कि जिंदगी के मायने लीप के रख देती है
सब कुछ आखिरी बन जाता है
औऱ स्वयं जिंदगी इक खोखला प्रश्न
जिसका उतर भी खोखला सा ही है
फिर इक ही अर्थ निकल के
सामने आ खड़ा होता है...

रह जाती है बन हाथ में
अनगिनत गलतियों कि
भट्टी में झुकी हुई
राख के ढेर सी जिंदगी!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 15th Jan, 2014

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