Friday, January 10, 2014

"अनायास ही मैं लड़की"

मैं अपना स्थान बना चुकी थी
अपनी माँ के गर्भ में
धीरे - धीरे कण मात्र रूप से
परिवर्तित होने लगी थी
सम्पूर्णता कि दिशा में
अंग बनने शुरू हो गए थे
माह तीसरे से नौ माह के अंतराल तक  
मैं खुश थी बहुत भीतर ही भीतर
अब बहुत शीघ्र ही
दुनिया में आने का अवसर आने वाला था
फिर मैं भी कुछ अच्छा करती
परन्तु क्या किया जाना चाहिए?
ये तो दुनिया को देख के ही
तय करना था मुझे
किन्तु नजाने कैसे घर में सब को पता चला
कि माँ के कोख में लड़का नहीं है
बल्कि सांस ले रही है इक लड़की
भयभीत कर दिया था सबने कलह से मुझे
सब जुगत लगाने लगे
मेरी स्वाशो को चलने से पहले ही
उसपर प्रतिबन्ध लगाने कि
मैं महसूस तो कर रही थी सब
किन्तु कह न पायी इतना

कि मुझे जीने दो..

अपनाने लगी माँ घरेलु नुस्के 
तो कहीं चक्कर काटने लगी अस्पतालो के
बड़े अस्पताल से मनाही हुई
तो दूसरे अस्पताल जा पहुंचे
वहाँ अवधि अधिक होने से मना किया गया
तो जनम देकर बहा दिया गया
मुझे किसी municipal के कचरे के डिब्बे में..

और मैं भूख से बिलखती
दुनिया कि ऐसी सोच पर थूकते हुए..
क्रूरता के आगे नतमस्तक हो
गले लगा के चली गयी मौत कि बाहों में
  
मैंने कोई गलती नहीं कि थी
सिवाय इसके
कि मैं अनायास ही आड़े आ चुकी थी
लड़का होने के पहले दिन से पाले हुए सपने के..
बन चुकी थी उनकी इच्छा से परे
अकारण ही इक लड़की!!



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 11th Jan, 2014
 

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