Friday, January 24, 2014

"एहसासो के ज्वर-भाटा से"

तुम्हे बिलकुल
सही मायने में आ गया है
तर्क को विचार को,
प्रत्येक पेशकश को बर्खास्त कर
अपनी अट्टहास को चढ़ा कर
मेरी अभिलाषाओ को
दबोच देने का विषम तरीका..
मूँद लिया है
गुनगुने चाह ने अपने नेत्र
औऱ अपने हित कि
कोठरी खोल कर बैठ गया है
अब सर्वत्व न्यौछावर भी कर दूँ
तो भी तुम्हारा दृष्टिकोण
उसमे भी खोजने लगेगा
अपने अनुकूल कोई नयी तदबीर
सुंदर ख्वाइश का मोहक रूप
परिवर्तित हो गया जीवन के
अनचाहे असोचे भूल के सन्दर्भ में
समय ने साबित किया
एक बार फिर से खुदको कि
धुंधला पड़ ही जाता है
वो सब कुछ जिसे हम
जीवित रखने का प्रण लेते है
इसकी मिट्टी कि निरंतर परतो कि तहो से 
अंततः रिक्त हो गया स्थान प्रणय का
भर गया द्वेष का गड़हा
गुणो का निर्झर नीर
सूखा ताल सा रह गया
उज्वल चाँद धब्बेदार हो गया
प्रातिपदिका ही छल बन के उभरी
जलता हुआ छोड़ गयी मुझे
तुम्हारी कठबोली कि प्रवाहित ज्वाला में
ठग़मारी अबला बनाकर
जो अब तक नहीं निकल पायी
तुम्हारे नाम पर उठते 
एहसासो के ज्वर-भाटा से!!  



रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 25th Jan, 2014

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