Friday, January 24, 2014

"कवि बन के आना"....


तुम कहीं भी हो...कैसे भी हो
बस इतनी सी गुज़ारिश है तुमसे
मैं कवित्री हूँ कवि से प्रेम है मुझे
तुम जब भी आना कवि बन के आना...

मेरे अहसासों के बादल पर घटा बन के छा जाना
धरती पे बूँद बनके बारिश सा बरस जाना
कलम बनाना जज़्बात तख्ती दिल को बनाना
हर उमड़ती मंशा को डायरी में संजोते जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...

हवाओं को घुंघरू तो कभी पाज़ेब बांधना
मौजों को ढलती शाम में दुल्हन बनाना
भवरें की मतवाली शरारतें बयान करना
कभी पंछी बन के सरहदों को फांद जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना....
 
मेरी कविताओं की पंक्तियों को
शब्दो की रोशन लड़ियो से सजाना
हर इक अदा पर मेरी शायरी लिखते जाना
संगीत को सुर दे देना ग़ज़ल सुनते-सुनाते जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...

गुलो की मुस्कराहट से फ़िज़ाओ को महकाना
जन्नत को ढूढ़ कर ज़मीन पर ले आना
आँखों के कैद में कई ख्वाब समेट लाना
कविताओं को कल्पनाओं की बेग़म बनाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...

मेरे मन के नंगे पाँव को गुदगुदी लगाना
अरमान मेरे बागी हैं इनको समझ जाना
लब ना मैं खोलूंगी खामोशियां पढ़ लेना
दिल के खाली मंदिर में मूरत बन के बस जाना 

तुम जब भी आना कवि बन के आना...
फिर किसी भंवर में छोड़ के ना जाना

तुम जब भी आना कवि बन के आना...


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 22th May, 2009

((Note :कुछ पंक्तियाँ १० जनवरी २०१४ को ओर जोड़ दी हैं इस कविता को सही तरीके से रूपांतरित करने के लिए" ))

1 comment:

मेरे ब्लॉग पर आपके आगमन का स्वागत ... आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शक व उत्साहवर्धक है आपसे अनुरोध है रचना पढ़ने के उपरान्त आप अपनी टिप्पणी दे किन्तु पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ..आभार !!