Saturday, November 29, 2014

ज़रा...... वक़्त दो !!


अभी रुको
ज़रा मोहलत दो हमें
दिल को मनाने दो
रूह को बुझाने दो
कह दूँ उन्हें
कमरा खाली करें
सामान ले जायें अपना
न परछाई छोड़े
न निशान कोई
न ही कमी अपनी

अभी ज़रा वक़्त दो
अभी इन दीवारो से टकराएं है
बेहद चोट खाएं है
ज़रा संभलने दो
उठ के चलने दो
जो उसने अज़ाब दिए हैं
अश्क-ए-तेज़ाब दिए हैं
उससे शफा पाने दो
दर्द से निकल जाने दो


हम यकीनन फिर से सौदा करेंगे
हर रस्मे निभाएंगे
घर भी बसाएंगे
सुनेंगे तुम्हारी भी
करेंगे तुम्हारी भी
फिर
जिंदगी से हाथ मिलाने की कोशिश करेंगे
हर एक शर्त निभाने की कोशिश करेंगे

मगर
दरख्वास्त है इतनी
यादो को मिटाने के लिए
उनको भूल जाने के लिए
ज़रा...... वक़्त दो !!

___________________
© परी ऍम 'श्लोक'

Tuesday, November 25, 2014

जो भी जीवन में होता है सब अच्छा होता है !!


जीवन की पाठशाला में
इंसान सदा ही बच्चा होता है
हर दस कदम पर
सीख नया कोई रखा होता है
चोट कभी जो लग जाए
घबरा के पीछे मत हटना
समय के ताखे में
हर घाव का मलहम रखा होता है

सच की राहें कठिन है लेकिन
याद रखना ये बात
कठिन सफर का मुकाम
हमेशा अच्छा होता है
जीत तुम्हारे घर दस्तक देकर माँगेगा ठौर
कोशिश करने वालो का जीतना पक्का होता है

गिरकर उठना ..उठकर चलना
जीवन इसी को कहते हैं
कर्म पर अपने खरा रहें ..बिन रुके निरंतर चलता रहें
वही जीवन का सच्चा अधिवक्ता होता है

कुछ मनचाहा न मिले तो होना नहीं उदास ...
जो भी जीवन में होता है सब अच्छा होता है !!

_______________________
© परी ऍम. 'श्लोक'  

फैसला ही तो था....


क्या सही ?
क्या गलत ?
फैसला ही तो था....
राह अपने लिए
बस चुना ही तो था....
मंज़िले न मिली
मोड़ रुस्वा रहे
जो मिला वो वफ़ा का
सिला ही तो था
हमको इनाम इश्क़ का
मिला ही तो था

छाले दिल की गली में
उभरने लगे
कदम दो कदम
एहसास चला ही तो था
किस बात का जश्न
मनाते भला
हर लम्हा नया
हादसा ही तो था
जिसने आज
ये घर जलाया मेरा
कल की चिलमन में दबा
शोला ही तो था
 
पास आई नहीं
खुशियाँ फिर कभी
साथ अपने दर्द का
काफिला ही तो था
हम गिला भी करें
तो किस्से करें
हर खता का इल्जाम
सर मेरे ही तो था...

उम्र भर महफिले
हम सजाते रहे
अपनी नज़्म में
उन्हें गुनगुनाते रहे 
'श्लोक' मगर हर दफा
तनहा ही तो था  

क्या सही ? क्या गलत? 
फैसला ही तो था .........!

_____________________

© परी ऍम. 'श्लोक'  

हम...... फिर मिलेंगे


रस्म है... रिवाज़ है ..
पहरा कहूँ ?
नहीं ये तो दीवार है
जो तेरे मेरे बीच खड़ी है
तुम नाघ नहीं सकते
मैं तोड़ नहीं सकती
समाज तुम समझते हो
रिश्तो को मैं ...

चलो!
मत छोड़ना ये डोर
थामे रहना यूँ ही
मैं इंतज़ार कर लूँगी
एक जनम....
एक उम्र तन्हा और सही..
 
तुम दिल से नहीं मिटा पाओगे
मैं रूह में जलाये रखूँगी
मिलूँगी तुम्हे....
ठीक उसी जगह
जहाँ तुमने छोड़ा हैं मेरा हाथ
वो ज़मीन जो सींच दी है मैंने
अपने आँसुओ से
खिलेंगे वहाँ बगीचे में
रंग-बिरंगे फूल...
महकती फिज़ाओ में
मुस्कुराती हवाओ में 
लहराती हुई
आऊँगी तुमसे मिलने
एक लम्बे अंतराल
एक लम्बे फ़ासले के बाद
अहसासों के
उसी निशान पर चलके
तुम तक
जब ना होगी
कोई मज़हबी
सरहद हमारे बीच
और तुममे आ जाएगा
मुझे स्वीकार कर पाने का साहस
हम...... फिर मिलेंगे !!

_________________

© परी ऍम. 'श्लोक'

 

ऐतबार जब किसी के बीच में मर जातें हैं...


संभल जातें है जो ठोकर से गिर जातें है
उठे कैसे वो जो नज़र से गिर जातें हैं ?


फिर जनम नहीं लेते रिश्तो के दरमियान
ऐतबार जब किसी के बीच में मर जातें हैं

_________

परी ऍम 'श्लोक'

Monday, November 17, 2014

वो खतो का सिलसिला....और आज का प्रेम


सोचती हूँ कि
कितना मनभावन लगता होगा
खतो का वो इक अरसे से चलता सिलसिला
उन बंद लिफाफो में गुलाब से महकते जज़्बात
जो आज के आलम में धुआँ-धुआँ है
जिसे अब कोई छू भी नहीं पाता
जिसे महसूस करने कि कोशिश में
लोग उतार देते हैं तन का लिबास
वो रूहो का रिश्ता
शायद !अब नहीं कायम होता
शुरू होती है मोहोब्बत इंटरनेट से
और मिलने के कयास तक पहुँचते-पहुँचते
सब कुछ मिटटी में मिल जाता है
कहाँ है ?
अब वो सब्र लोगो में
फ़ोन कि हर घंटी के साथ
बयां होने लगी है दास्तान दिल की  
कितने संजीदा होते थे पहले ये मुआमले
प्यार में कितना सब्र होता था
पाकीज़गी होती थी..ह्या होती थी
किन्तु
आज आधुनिकता कि भागम-भाग में
वो दौर अपनी सभ्यताओ के साथ
कहीं बहुत पीछे छूट गया...
सब कुछ बदल गया बदन पर पड़े
इक मीटर कपड़े कि तरह ही
हर एहसास कम हो गया... 

लहरो के आने के साथ
ये इश्क़ पनपता
जाने के साथ ही समाप्त हो जाता
चंद पल में किसी को पा लेना
कुछ लम्हों में किसी को खो देना
कुछ घंटो में किसी को भुला देना

ज़रा सी कड़क बात से
अहम कि ज़मीन तिलमिला जाती हैं
भाव-भंगिमाओं के घने कोहरे छट जाते
कसमे वादे पान कि तरह खाए जाते हैं
और फिर थूक दिए जाते हैं ...
 
इक लंबा फासला हो गया है
कल और आज के प्रेम के मध्य
जो अब
मिटाने से भी मिटता नहीं !!

________________
परी ऍम. 'श्लोक'

Friday, November 14, 2014

कभी-कभी मन करता है...!!

कभी-कभी मन करता है
मैं खूब सराहना करूँ
उनके कार्यो कि
जो निरंतर कार्य करते हैं
किन्तु प्रोत्साहन से
सदैव अछूते रह जातें है
उनके भीतर
जोश की मशाल जला दूँ
उन्हें इस तरह शब्द कि लौ दूँ
कि वो आमादा हो जाएँ
अर्श से फर्श तक
सब चकचौंध करने पर

कभी-कभी मन करता है
उनके सामने खड़े होकर
उन्हें सलामी पर सलामी देती रहूँ
जो अपने जीवन के तमाम
ऐश-ओ-आराम छोड़
चले आयें उन कठिन रास्तो पर
बिना ये सोचे कि कितने शूल
उनकी स्वागत में खड़े हैं
लेकिन वो अपने पैरो के छालो कि
गिनती नहीं करते
चलते रहते हैं मटठूस हो
अपने लक्ष्य कि प्राप्ति के लिए

 कभी-कभी मन करता है
अपने घर में
सिर्फ शहीदो कि पूजा करूँ
उनको फूल माला अर्पण करूँ
जिन्होंने अपना लहू बहा कर
हमें हमारा आज़ाद मुल्क लौटाया
इक बार जाऊं सरहद पर
जिनकी बदौलत
हम आज़ादी कि साँस ले पा रहे है 
वहाँ पर तैनात सिपाहियों के पैरो के
नीचे कि मिटटी ले आऊं
और मंदिर में रख लूँ
उनसे कहूँ कि वो 
हमारे आज़ादी के देवता हो.... 

कभी-कभी मन करता है
सुबह से शाम बस इक काम करूँ
हर नेक इंसान को प्रणाम करूँ
और स्वागत करूँ उनसे मिलने वाली
इस सीख का
कि ....
जो अपने लिए जिया वो क्या जिया ?
बात तो तब है
जब जिंदगी किसी और पर लुटाई जाए !!

____________________

© परी ऍम. 'श्लोक'

Tuesday, November 11, 2014

मेरी जिंदगी के डायरी से ...आखिर चोर कौन था ?


उस वक़्त मैं बहुत छोटी थी यही कुछ तेरह बरस की उम्र रही होगी ! स्वभाव से तेज..तर्रार..और लड़ाकू प्रवृति का होना आरम्भ हो गया था ! गुस्सा नाजायज़ बात पर आता भी था और जमकर उसका विरोध भी करने लगी थी! पता नहीं पर मुझे शुरू से ही अच्छा लगता था अपने विचारो को पन्नो पर अंकित करना ! तुड़ी-मुड़ी शब्दों में उसे ढाल देना ! उस समय का वो शुरूआती दौर था ! जब मैंने डायरी लिखने कि आदत पाल ली थी ! बस फिर क्या ? जब भी कोई ख्याल आये मैं उसे लिख कर सहेज लेती थी और फिर उस डायरी को छिपा कर अपनी अटैची में ताला लगा कर रख देती थी ! उस समय हम लोग जिस मकान में रहते थे ! वहाँ मेरे मामा जी भी किराए पर रहा करते थे क्यूंकि मामा जी अकेले थे तो कुछ वक़्त बाद उनके साथ रहने के लिए उनके दोस्त भी आ गए जिनका नाम राधेश्याम था जो की गोरखपुर के थे !

मुझे अंग्रेजी बोलना अच्छा लगता था और मैं बोलचाल की हर लाइन में एक अंग्रेजी का शब्द ज़रूर प्रयोग करती थी आदतन ! मेरे मामा जी को ये सब बहुत अच्छा लगता था लेकिन उनके दोस्त अक्सर बोलते थे क्या? गिटपिट-गिटपिट अंग्रेजी बोलती रहती है फ़ालतू में ! बड़बड़ लगा के रखती है ! मेरा हँसना बोलना उन्हें कुछ अच्छा ही नहीं लगता था ....मानो मैं उनकी कोई जानी दुश्मन हूँ ! मुझे गुस्सा आता था उनके इस रवैये पर और मैं उनको खूब खरा-खोटा सुना देती कुछ बाकी नहीं रखती थी.... मैं भी लड़ाकू थी बहुत और वो मेरे जन्मो के बहुत बड़े विरोधी थे !  मेरे हर काम में गलती निकालना ..मम्मी-पापा को भड़काना जाने उन्हें ये सब करना क्यों अच्छा लगता था ? मैं सोचती थी उस वक़्त.... सब कहते हैं बड़े-बड़े होते हैं लेकिन इन्हे बड़ा कहना तौहीन होगी ये तो बच्चो से भी बेहज हैं हुंह !
खैर... एक दिन मैं कुछ लिख रही थी कि मामा के दोस्त अचानक कमरे में आये और मम्मी से आग्रह किया दीदी चाय बना दो तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रही ! मम्मी उठी और बोली भाई आप को दवाई रखी है वो दे देती हूँ आप खा लो तब तक मैं चाय बना देती हूँ ! राधेश्याम मामा को देख कर तो मेरा खून खौल जाया करता था ! लेहाज़ा उनको देखते ही मैंने चुपके से अपनी डायरी बैड के गद्दे के नीचे रख दी !  फिर उनको देखकर मुँह टेड़ा किया... जीभ निकाली और उन्हें चिढ़ा कर ऊपर छत पर चली गई और पड़ोस के बच्चो के साथ खेलने लगी ! कुछ देर बाद वापस नीचे आई तब तक मामा के दोस्त जा चुके थे ! मैं दोबारा बैड पर बैठी और गद्दा उठाया डायरी लेने के लिए लेकिन उसके नीचे रखी हुई डायरी गायब थी.. मैंने मम्मी से कहा... मम्मी इसके नीचे एक कापी थी कहाँ गयी ? मम्मी बोलती जहाँ रखी होगी वहीँ होगी बेटा ! फाकी देर तक गद्दे पलटे..किताबे पलट डाली .. अपना बैग खोल कर देखा लेकिन मेरी डायरी मुझे कहीं नहीं मिली ! मुझे बहुत रोना आया मम्मी ने कहा दूसरा ला देंगी रोउ न.... लेकिन वो कैसे आता जो उन पन्नो में कैद मेरा हर दिन का सोच ख्याल मेरे दिन-दिन का हिसाब-किताब था!

उस डायरी के खोने का गम मुझे बेहद था मैं इतना आहात थी कि मैंने कुछ दिन डायरी ही नहीं लिखी कि कहीं फिर से मेरी डायरी खो गयी तो ! उन दिनों मेरे दिमाग के एक कोने में मेरी खोयी हुई डायरी का ख्याल बैठा रहता था .. और राधेश्याम मामा का रवैया दिन प्रतिदिन बुरा होता जा रहा था ..अब वो मुझे ऐसे देखते थे मानो मैंने कोई बड़ा  अपराध किया हो ..एक बहुत बड़ी अपराधी हूँ .. कई बार बहस के दौरान कह देते थे ....ज्यादा गिटर-पिटर मत कर बोलने लायक नहीं है तू .. मैं कहाँ इतनी बड़ी-बड़ी बाते समझ पाती थी ? मैं भी उल्टा बोल देती थी तुम बड़े बोलने लायक हो !
मेरा परिवार बहुत रूढ़िवादी परिवार था हालाँकि आज ऐसा नहीं है वक़्त के साथ बेहद बदलाव आया हैं उनके सोचने-विचारने के तरीके में ! उस समय मेरी डायरी लिखने कि भनक उन्हें भी नहीं थी क्यूंकि मैं जानती थी अगर घर में मम्मी-पापा को पता लगा तो भी बड़ा डांटेंगे ऐसे में मैं ये बात किसी को नहीं बताना चाहती थी लेहाज़ा ये राज़ राज ही रखा ! लेकिन तलाश जारी रखी!
मेरी एक बुरी आदत थी मामा के कमरे में उनके जाने के बाद अक्सर चोरी-छिपे जाने कि वो भी इसलिए क्यूंकि उनके यहाँ पर टेप -रेकॉर्डर था मैं उसमें कैसेट बदल-बदल कर खूब गाने सुनती व डांस किया करती थी ! एक दिन मैं मामा के कमरे में गयी और कैसेट बदलने के लिए कोई कैसेट ढूंढ रही थी कि अचानक मेरी नज़र कैसेट्स के बगल कुछ किताबो पर जाती है.... मेरे दिमाग में दोबारा मेरी खोयी हुई डायरी घूम जाती है.... मैं उन्हें पलटना शुरू करती हूँ और उनके बीच रखी हुई मिलती है... मुझे मेरी डायरी !  मैं एकदम खुश हो जाती हूँ और तुरंत सब कुछ बंद करके अपने कमरे की तरफ भागती हूँ ! जाकर उसके सभी पन्ने पढ़ती हूँ... कुछ पन्ने फाड़े गए थे इसलिए आहत ज़रूर थी लेकिन अपनी डायरी को दोबारा पाकर मेरी ख़ुशी भी कुछ कम नहीं थी ! मैंने एक ठंडी आह! भरी......और फिर नहीं सोचा कि वो डायरी मामा जी के कमरे में कैसे गयी ? उसका पन्ना किसने फाड़ा ? आखिर चोर कौन था ??


______________________
© परी ऍम 'श्लोक' 

Monday, November 10, 2014

सफर ऑटो घर से ऑफिस और...... बवाल


मैं सुबह 9:00 बजे घर से ऑफिस के लिए प्रतिदिन रवाना होती हूँ सिर्फ इतवार छोड़ कर ! घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर पैदल चलने के बाद ऑटो स्टैंड पर पहुँचती हूँ और वहाँ से ऑटो करके ऑफिस पहुँचने में 15 मिनट लग जातें है ! लेकिन इन मिनटों में कुछ ऐसे बवाल भी होते रहते है थोड़े थोड़े दिनों के अंतराल में जो मैं कुछ ज़रूर बताना चाहूँगी ! 
बवाल 1. एक दिन मैं जब ऑटो में बैठी तो उस ऑटो में पहले से ही पीछे वाली सीट पे दो आदमी और एक लड़की बैठी हुई थी तो मैं सामने वाली सीट पर आराम से बैठ गयी जिस सीट पर मैं बैठी थी वो चौड़ी कम होती है तो थोड़ा दिक्कत तो हुई पर अब ऑफिस आने के लिए ऑटो तो बुक करवाने से रही! खैर..अब हम बवाल पे आते हैं तो हुआ यूँ की जो आदमी बीच में था वो थोड़ा हरकतबाज़ लग रहा था उसके बगल में बैठी लड़की को कोने की तरफ दबोचे जा रहा था और लड़की बड़े प्यार से कहती दो-दो मिनट में आप थोड़ा उधर हो जाएँ फिर वो आदमी ठीक है कहके उसी जगह पर दो बार उछलता और फिर वहीँ बैठ जाता ..यानी वो न भी नहीं कह रहा था और हट भी नहीं रहा था ! अब बिचारी मैं ये हरकत कबतक देखती आ गयी अपनी ऐड में और हड़का के बोला 'ओये थोड़ा उधर हो न एक सीट पे तीन आदमी के बैठने की जगह है इतना पसर के बैठे हो लड़की कोने में दबी जा रही है चलो सीट दो उसे तब लड़की ने भी अपनी आवाज़ थोड़ी मुकम्मल की और बोली हाँ और थोड़ा उधर हो मुझे कब से प्रॉब्लम हो रही है तब आदमी बिना उछले सीधे तरीके से अपनी औकात वाली जगह में आ गया! फिर उस आदमी ने बड़ी-बड़ी बाते करनी शुरू कर दी अरे तुम्हारे जैसी तो मेरी बेटियाँ हैं... मैं स्कूल में पढ़ाता हूँ... और नजाने क्या क्या तुम तो गलत समझ रही हो ... बस फिर मैंने साईलेन्टली बोला बायोग्राफी नहीं पूछी ... आप जो भी हैं किसी की शक्ल पे नहीं लिखा रहता आप कितने अच्छे हैं हरकत बता देती है और फिर मैंने तो बस साइड होने के लिए कहा आपसे कब कहा की शक किया है या गलत समझ रही हूँ ! मैं अपना मुहावरा "चोर की दाढ़ी में तिनका" बोल पाती की ऑटो ऑफिस क्रॉस कर गया नज़र बाहर पड़ी तो झट से ऑटो वाले को रुकवाया और उतर गयी !   
  
बवाल 2. मैं ऑटो पर बैठी की ऑटो दो कदम आगे बढ़ी वहाँ एक औरत ने ऑटो रुकवाया ... आमने सामने वाली दोनों की सीट पर ३-३ लोग बैठे थे जिसमे से एक मैं भी थी ऑटो वाला मेरी पीठ पे हाथ लगाता है और कहता है मैडम आप सामने बैठ जाओ चार लोग एडजस्ट करलो..जी एडजस्ट तो कर लेती क्यूंकि उसमे सब लड़कियाँ थी अगर उसने जुबान से कहा होता लेकिन उसके तरीके ने तो मेरा खून खोला दिया था जो उसका तरीका था वो मुझे बेहूदा लगा मैं झट से नीचे उतरी और बोला ऐसा कर तू इन्हे बिठा मैं दूसरा ऑटो कर लेती हूँ ! बस इतना कहते ही नीचे उतर कर दूसरा ऑटो देखने लगी ! जब दूसरा ऑटो आया तो सफर तय किया !
 नोट : आय दिन जो भी लड़कियाँ सफर करती हैं कृपया दम बनाये रखें ! कोई आपसे बतमीजी पर उतर आये तो वो आप कहने के काबिल नहीं होता उसका विरोध करें ! विरोध करने से कुछ नहीं होता बस आप किसी गलत नियत का शिकार होने से बच जाती हैं !
बवाल 3 . मुझे धूम्रपान करने वालो से सख्त एलर्जी है ! अक्सर ऑटो में आस-पास जब भी किसी को धूम्रपान करते देखती हूँ तो सीधा बोलती हूँ बीड़ी या सिगरेट जो भी है  फेंक दें.... मैं अपनी आवाज़ में अक्सर एक तेज़ रखती हूँ यानी आवाज़ कभी बिल्ली की तरह नहीं निकली शेर की तरह बाहर आती है ...तो लोग डर के फेंक देते हैं धूम्रपान का आइटम ! एक दिन हुआ यूँ की धूम्रपान ऑटो वाला ही करने लगा वो भी जब रास्ते में पहुँचा तो मैंने उसे बोला की वो सिगरेट फेंक दे और बाद में पी ले उसने नहीं सुना पीता गया मैंने एक बार फिर कहा उसने नहीं सुना ! मुझे गुस्सा आया मैंने बोला ऑटो रोक अभी थोड़ा आगे लेजाकर उसने ऑटो रोक दिया मैं नीचे उतरी उसने बोला पैसे ...मैंने कहा मैंने कहाँ उतारने के लिए कहा था उसने बोला जी अल. एंड टी. (उसने मेरी कंपनी का नाम बोला ) तो आपने कहाँ उतारा उसने कहा रास्ते में...मैंने बोला तो पैसे काहे के ...इतना कहके दूसरे ऑटो को हाथ देकर रुकवाया बैठी और चल दी... सकून से अपने ऑफिस पहुँची !
 नोट : धूम्रपान से सिर्फ पीने वाले को हानि नहीं होती बल्कि उसके धुएँ से भी न पीने वाले को नुक्सान होता है !
बवाल 4. एक दिन ऑटो वाला इतनी तेज़ी से ऑटो लेकर चल पड़ा की उसे एक दो बार मैंने मना किया बोला आराम से चला..लेकिन वो अपने धुन में तेज़ी से बढ़ा जा रहा था ! आखिरकार बाई तरफ के रोड से एक ट्रक वाला आ रहा था उसने तेज़ी में ब्रेक लगायी और बाल-बाल हम बच गए .. हालांकि जान माल की हानि नहीं हुई दिल में दहशत एक पल के लिए बैठ गयी थी ऑफिस उतर कर मैंने उसे नसीहत में काफी कुछ कहा और बोला ऑटो में तुम कई जिंदगी लेकर चलते हो रक्षक बनो राक्षस नहीं ! आइन्दा ऑटो धीरे चलाना! उस दिन कुछ भी हो सकता था सारा दिन यह एक्सीडेंट मेरे दिमाग में घूमता रहा और सोचती रही ज़रूर माँ ने आज दुआ में मेरी सलामती माँगी होगी !
नोट : देर भली दुर्घटना से ..जिंदगी इतनी सस्ती नहीं की तेजी में गवा दें  !!   
_______________________
© परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, November 9, 2014

और मेरे ख्वाब झुलस जातें है .....


हम साहिल पर बने
घर की तरह ......
हर दफा ढहते हैं
हर दफा बन जातें है
 
किसी पल झूम कर मिलते हैं
आईने से हम.....
कभी कोने में दुबक जाते हैं

हम कभी रात से डरते हैं
तो कभी इन अंधरो से
सुबह निकाल लातें हैं
 
हम उस किनारे से मिलने की आरज़ू में
उम्र की धार में ख़ामोशी से बहे जाते हैं
कभी धुंधला सा अक्स पकड़ते हैं
कभी खुद से ही छूट जाते हैं
कोई पर्वत कभी बनते हैं तो..
कभी रेत सा बिखर जाते हैं
 
कभी शाखों पे खिलकर महकते हैं 
कभी ज़मीं पे तिनका-तिनका सा गिर जाते हैं     
 
हम बड़ी मशक्कत से ढूँढा करते हैं
जरिया किसी वहम में जीने का
बस फिर
इक हकीकत की आग जलती है
और मेरे ख्वाब झुलस जातें है

 
____________________
© परी ऍम 'श्लोक' 

विश्वास.....


प्रेम के देसी घी में
कितनो ही
क्यूँ न तड़का जाए..

किन्तु
विश्वास की कमी
रिश्तो के पकवान में
नमक की तरह होता है
जिसकी मात्रा कम होने पर
या फिर न होने पर
रिश्तो का स्वाद
अक्सर
बिगड़ जाया करता है !!

 
____________________
© परी ऍम 'श्लोक' 

Saturday, November 8, 2014

हम स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं

अजब है न
हम स्त्रियां ऐसी ही होती हैं

भावनाओं में
बह जाने की  आदि
सरलता से
विश्वास करने में माहिर
हर रिश्ते को
संभाल के रखने की  शौकीन
फिर चाहें
इन्हे संभालते-संभालते
खुद ही को खो जाना पड़े


कच्ची मिटटी के
बर्तन की तरह

आकार लेती
हर परिस्थिति में
खुद को ढाल लेती
रात चाँद बन जाती
सुबह सूरज की किरणें

अपनों की मुस्कराहट में
अपनी ख़ुशी तलाशने में जुटी
सम्मान से खिल उठती
चंद इल्जामों से मैली होती

हम स्त्रियाँ ऐसी ही होती हैं !!

____________________
© परी ऍम 'श्लोक'

Friday, November 7, 2014

तुम गए तो…कुछ यूँ हुआ!!


तुम गए तो…कुछ यूँ हुआ
लम्हा-लम्हा बेनूर हुआ
काटने लगे दिन-रात मुझे
दहशत में मेरा सुकूं हुआ
जज़्बातों ने आत्महत्या की
मेरे ख्वाबो का भी खूं हुआ
तुम गए तो....कुछ यूँ हुआ ....

यादों ने छालों से भर दिया जेहन   
खूब तमाशा-ए-आरज़ू हुआ
हमें हर शक्स ही धोखा लगा
वफाओं का जबसे हाल यूँ हुआ
झुलस ही गयी रौनकें सारी
हवायें भी गर्म लू हुई
तुम गए तो....कुछ यूँ हुआ

बेबस हम तमाशाबीन से रहे 
दिल की दुनियाँ जब धूं-धूं हुआ
तेवर फ़ज़ाओं ने बदला
तेजाब बारिश का हर बूँ हुआ
पतझड़ ने सुखाया इतना
सावन में भी न इक फूल हुआ
हम न जी सके और न मर सके
सजा मुकर्रर ही यूँ हुआ
तुम गए तो...कुछ यूँ हुआ
दर्द श्लोक-ए-पहलु हुआ 

 
 
 तुम गए तो...कुछ यूँ हुआ........!!

____________________
© परी ऍम. ‘श्लोक’

एक बार फिर ......!!


जिंदगी
उन ढाई फुट चौड़ी
सीढ़ियों पर बलखाने लगी
उसने पास बैठ कर
मेरा हाथ थामा
और
मैंने उसे उम्र भर का
वादा समझ लिया

कहाँ फ़िक्र थी फिर
लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे ?
वक़्त सीखने वालो को
तालीम दे रहा था
और हम
वक़्त को मुट्ठियों में भर
किसी के साये की
नरम छाँव में बैठ
आने वाले लम्हों में
जीने के लिए
कुछ यादे समेट रहे थे

कश्तियाँ छोड़ दी थी हमने
कहीं साहिलों पर
उसकी आँखों के सागर में
डूबकर फ़ना होना चाहते थे
 
जाने कितनी मेट्रो आई
और चली गयी
मगर मेरा सफर तो बस
ख़त्म हो गया था उनपर
उस रोज़ मंज़िल बगल में बैठ
अपनी साँसों से
गर्म हवा दे रही थी
और अनगिनत हसरतो के
फूल खिला रही थी

दिल की पटरियों पर
बेलगाम दौड़ रहा था 
इक मीठा-मीठा सा अहसास…

उन चंद लम्हों में
मेरी संवेदनाओ की मेट्रो पर
उसका कब्ज़ा हो चला था  

सिलसिला कुछ आगे बढ़ता
मैं उनका नाम पूछती
मगर
वही हुआ जो न होना था
एक बार फिर..

अचानक असलियत कि कुँडी में
अटक कर टूट जाते हैं  
वहम के धागे में पिरोये
बेबाक़ आरज़ू के मोती
और
मन मार के रह जाती हूँ मैं .......
एक बार फिर !!!

________________________
© परी ऍम. 'श्लोक'

Tuesday, November 4, 2014

ऐसा क्यूँ है ?


ऐसा क्यूँ है ?
हम एक कोख से जन्मे
इक आँगन में खेले
इक जैसे सुख-सुविधा का भोग किया
इक तराजू के बराबर बाँट थे हम
लेकिन फिर नियति ने
हमारे बीच
कबड्डी के मैदान की तरह
लम्बी लाइन खींच दी
और तुम्हे नए रिश्तो के
ऐसे पहले में
ढकेल दिया गया
जहाँ तुम्हे बार-बार
हार स्वीकार करते हुए देखती हूँ
तुम्हारे शब्दकोष में जैसे
विरोध शब्द है ही नहीं
तुम सही हो या गलत
पर गलत ही होती हो
क्या इतना डर भर दिया है
समाज ने तुममें
कि तुम सही को सही
साबित करने से हिचकिचाती हो...
या फिर यह तुम्हारा इस रिश्ते के प्रति सम्मान है
 जिसे तुम अपने आतमसम्मान को
हार कर जीतती हो
तुम्हारा त्याद मेरे समझ में नहीं आता
संस्कार या तो तुममें हद से ज्यादा है
और मुझमे हद से ज्यादा कम
जो भी हो पर 
मुझे कभी-कभी अति लगती है
जब भी कोई ऐसा आलम बनता है
तो फिर सवाल
ज्वालामुखी कि तरह फूट पड़ते हैं
क्या सच में
इस बंधन के बाद
कोई विकल्प नहीं होता
वापिस लौटने का
क्या उस धधकती हुई अग्निकुंड में
स्त्री के अधिकार को डाला जाता है
क्या उस सिन्दूर में
केवल कर्तव्य भरा जाता है
जानती हूँ इनका जवाब
अनुभवों के हिसाब से होगा
और
मेरा अनुभव सदैव बुरा रहा
मैंने जितनी स्त्रियों को करीब से देखा
उन्हें लुढ़कता लौटा बना हुआ पाया
या फिर मैं कभी अच्छे अनुभव को
महसूस नहीं कर पायी
क्या ऐसी कोई दवाई नहीं
जिसका छिड़काव करने से
स्त्री को साधन समझने वाली
सोच का नाश हो जाए
जब ये डेंगू मच्छर हमें नहीं काटेंगे
तब कितना सकून हो जाएगा तुम्हे
और नजाने कितनो को
फिर तुम्हारे चहरे पर जो
लम्बी मुस्कान आएगी
मैं उसे हमेशा के लिए कैद कर लूँगी
तुम मुझे हँसती हुई न
 मेरी जान लगती हो !!

 ____________________
© परी ऍम श्लोक

ख्वाब और फिर ख्वाब

सोचा था
अब कोई ख्वाब नहीं सजाऊँगी
जब भी ये टूटते हैं तो
जिंदगी में गमो का
सैलाब आ जाता है
ख़्वाब के रंगदार परिंदे
जब भी पलकों पर बैठते
मैं उन्हें उड़ा देती
इसी जुगत में एक दिन
ख्वाब का सुनेहरा परिंदा  
मेरे आँगन में गिर गया
उसे चोट लग गयी
मैंने उसकी मरहम पट्टी की
और पूछा क्यूँ आते हो
जब जानते हो की
बुरी हूँ मैं
संभाल न पाऊँगी तुम्हे
ख्वाबो ने मुझे चूमते हुए कहा 
मुझे तुम्हारी आँखों में पलना
अच्छा लगता है 
और फिर टूट कर
बिखरना अच्छा लगता है
जानती हो
तुम्हारी इन गहरी
आँखों से प्रेम है मुझे
और 
प्रेम कभी परिणाम नहीं सोचता !!
 
____________________
© परी ऍम 'श्लोक'