Thursday, June 25, 2015

तुम्हें रूह में रख कर

तेरा 
मेरे हो जाने से ज़्यादा ज़रूरी है 
हर लम्हा मेरे पास होना 
किसी भी शक़्ल में , किसी भी सूरत में 
दिल में धड़को ,सांस में महको,
या आफ़ताब की शुआओं से छू लो मुझे 

बात ये सोचने की है लेकिन 
फिर रिश्ते का नाम क्या होगा ?
मुझे रह-रह ख़्याल आता है 
इन नामी रिश्तों का ज़माने में 
एक आख़िरी दौर भी तो आता है
कभी कोई वादा तोड़ता है यहाँ 
कभी कोई जुबां से पलट जाता है 
इस तसलसुल में हर इन्साँ 
एक दूजे का हाथ छोड़ चला जाता है  

और मुझे खौफ़ है तुझे खोने का 
इसलिए बेनाम , गुमनाम , अंजान 
सा तआलुक तुमसे जोड़ लेते हैं 
के आओ।  तुम्हें रूह में रख कर 
जिस्म की सारी बंदिश तोड़ देते हैं !!


© परी ऍम. 'श्लोक'

Tuesday, June 23, 2015

रोज़ क्यूँ मैं बेहिस सी जिए जाती हूँ

ज़िन्दगी  खोयी  खोयी  सी  रहती  है 
और  मेरे  दोनों  हाथ  खाली  होते हैं 
साँसे  एक  बोझ  सी  लगती है   मुझे 
जिस्म कुछ हल्का-हल्का सा होता है 
रूह   पे   उदासी   की  घटा  छाती है 
आँख  फिर  जम  के  बरस  जाती  है 
रात  तेरी  यादों  के रस्ते  चलकर भी 
जब  निग़ाह  तुझको  न सुबह पाती है 
ख़्वाब   सब    झूठे    मुझे   लगते  हैं 
मैं    तह     से     उधड़     जाती    हूँ 
अरमां जब धुंआ-धुंआ से होते जाते हैं 
सोचने  लगती  हूँ  मैं  तब जुर्म अपना 
फिर   मोहब्बत   को  वज़ह  पाती  हूँ 
दिल को  बस  ये मलाल रहा करता है 
न   कोई    उम्मीद   न   ख़ुशी  बाकी 
और न तू ही हो  सका  मुकम्मल मेरा

फिर आख़िर  किससे वफ़ा निभाती  हूँ  
रोज़  क्यूँ   बेहिस  सी  जिए  जाती  हूँ 


© परी ऍम. 'श्लोक'  

Sunday, June 21, 2015

आप जबसे हमारे ख़ुदा हो गए - ग़ज़ल

आप  जबसे   हमारे   ख़ुदा  हो   गए
दिल के अरमां सभी बा-सफ़ा हो गए

करके  हमसे कयामत  के वादें  सनम 
छोड़  राहों  में   ही  लापता  हो   गए

भूलकर   भी   न  लौटेंगे   तेरी   गली
अब बहुत तुम से जां हम खफ़ा हो गए

हो  मुबारक़   तुम्हें   ज़श्न  जारी   करो
इश्क़  से  मेरे   जाओ   रिहा   हो  गए

हम  वफ़ा  के  चलन  को  निभाते  रहे
और   तुम  आदतन   बेवफ़ा  हो   गए

कर    हवाले   मुझे   मौत   के   बारहा
जिंदगी   बोलकर  वो   जुदा   हो  गए

जो   बनायें   गए    थे   नियम   कायदे
आज  उनके  ही  हाथों   फना  हो  गए
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© परी ऍम. 'श्लोक'

Thursday, June 11, 2015

ये ज़रूरी तो नहीं

ये ज़रूरी तो नहीं कि 
मुझपर रोज़ मेहरबां हो ख़ुदा 
उसके दर पर भी तो लाखों सवाली होंगे 
ये ज़रूरी तो नहीं कि
रोज़ मेरे जज़्बातों को मिलते रहे लव्ज़ नए 
और हर रोज़ ख़्यालों को 
तेरी गली में आने की इज़ाज़त हो 
यूँ रोज़ दरीचे का पर्दा हटा मिल जाए 
चाँद मुझे ऐन चमकता हुआ दिख जाए

कभी ये भी तो हो सकता कि 
खाली-खाली शब-औ-सहर गुज़र जाए 
कुछ सूझे न मुझे कहने को और दिन मर जाए 

ये ज़रूरी तो नहीं कि
दिल मेरी उंगलियों का साथ दे हरदम 
कलम दिल की तमाम उलझन समझे और मैं रोज़ लिखूं
ये ज़रूरी तो नहीं !!

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© परी ऍम. 'श्लोक'  

Tuesday, June 9, 2015

आधा-अधूरा सा

कसमें हैं , न वादें , न घंटों गुफ़्तगू का दौर 
वो सिलसिले भी नहीं हसीन मुलाकातों के दरमियान 
जुल्फों के बादल हैं और न तेरी बाहों का टेक 
हिज्र के मौसम में बेताबियों की आंधी 
न तन्हाईओं की वादी में कहीं यादों की गूँज 
जागती रातों में सितारों की गिनती नहीं 
और न उनके टूटने पर लब से निकली दुआ 
न तेरे लम्स की खुश्बूं है कहीं फ़ज़ाओं में 
न तेरे आने की मुझमें उम्मीद कोई बाकी है 
ख़्वाब सिमटे हुए हैं दिल उधड़ा हुआ है 
एक प्यार का एहसास है बहुत 
आधा-अधूरा सा। 
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© परी ऍम. 'श्लोक' 

Tuesday, June 2, 2015

दिल अज़ीज़ रिश्ता

उसके सर पर गहरे घाव हैं
वो अब कुछ कुछ मुझे भूल गया है 
हथेलियां जख्मी हैं, 
उंगलियां टूटी हुई, लब चुप चुप से   
वो दामन पकड़ के रोकता है और 
न जाने की इज़ाजत देता है 
पलकों से इशारा करके  
न ही कोई उम्मीद देता है मुझे
जब वो पहली दफ़ा मिला था मुझे 
उसकी आँखों में गज़ब ख़ुशी थी 
लेकिन आज उन्हीं आँखों में बेहोशी है 
लोगों ने इस हालत में पाकर बाख़ूब लूटा है इसे 
कोई नंगा कपड़े उतार ले गया 
किसी चोर ने बटुआ मार लिया....... 

शरीर पथराया हुआ सा है उसका 
मगर उसे छूकर महसूस किया है मैंने 
कुछ जान है जो अब भी बाकी है 
सच बहुत मारा है हालात और वक़्त ने 
अपने कटीले चाबुक से मासूम को 
कि देखो आज हमारा दिल अज़ीज़ रिश्ता 
हॉस्पिटल के आई. सी. यू. में भर्ती है। 
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© परी ऍम. 'श्लोक'  

वो कभी नहीं थकता था

वो कभी नहीं थकता था जो आज टूट गया है 
अपना साया ही ज़िस्म का खून चूस गया है 
जिसने गीले में सोकर सूखा हमें दिया बिस्तरा 
पाला हमें अभाव में भी मुस्कुरा के इस तरह 
ज़रा सा रो भी दें तो घंटो जो मनाया करते थे 
हर हाल में साथ हमारा जो निभाया करते थे 
उम्र लम्बी हो इसके खातिर माँ 
जाने कितने ही उपवास करती थी 
जो चेहरे से हमारे हर जज़्बात पढ़ती थी 
बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए 
जिस बाप ने अपनी झुलसायी जवानी 
उनके लिए जिस माँ ने भूख प्यास तक मारी  
जो बरसों उठाये फिरता रहा कांधो पे सवारी

जब बूढ़े हुए तो वो ज़िन्दगी के रोग हो गए 
माँ-बाप बच्चों के कांधों पर आज बोझ हो गए। 
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© परी ऍम. 'श्लोक'


Monday, June 1, 2015

मेरे अंदर कोई दरिया ज़रूर है।

तन्हाईयों में शोर सा मचता है
दिल  आवाज़ों से सहम जाता है
सीने में उफान सा उठता है
सब्र की चट्टान से टकराता है
बेचैन मौजें बहुत दूर तक जाती हैं
सुकूं का आशियाँ बिखेर आती हैं
रेज़ा-रेज़ा जीने का हौसला बुनती हूँ
मगर जब याद तू आता है
फिर गम बाज़ कब आता है ?
उदासियों का मुंजमिद सैलाब पिघलता है
आँखों की ढ़लानों से गिरता है
रूह की तितलियाँ भीग जाती हैं
रूमालों की कश्तियाँ डूब जाती है


मेरे अंदर कोई दरिया ज़रूर है।

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© परी ऍम. 'श्लोक'