Monday, June 30, 2014

"प्रेम और पछतावा"

पहली नज़र का
असर तो नहीं कह सकते
बातो का खिंचाव था
जिसने इस लोहे को
अपने चुंबकीय आकर्षण से
खींच लिया था
कोई अदृश्य तागा
बांधे जा रहा था संग

मेरी दिशा में उठे थे बादल
मगर उससे भीग रहे थे तुम भी
गर्जन सुना था तुमने जो
उससे बिजलियाँ चमकी थी
तुम्हारे भीतर भी...
मौन रातो के सीने पर लिख
कर रहे थे इज़हार...

किन्तु आज उन पलो से
तुम्हारे अस्वीकार ने
पछतावे के कटीले कंगन डाल दिए हैं
जो पहनु तो चुभें....
और
उतारूँ तो छील देते हैं मुझे !!


_________परी ऍम श्लोक

"बहाव"



Sunday, June 29, 2014

"बचपन कि गली से...जवानी के दहलीज़ तक"

न जाने कहाँ खो गयी है
अकारण ही आ जाने वाली
होंठो कि वो मासूम खिलखलाहट
जिसमे घंटो लोटपोट रहती थी मैं....
आज उस हसी को वजहों के बीच भी
टटोलना मुश्किल हो गया है....

जीवन कि आपाधापी से परे
बेफिक्र थी किंतनी....
प्यारे थे मुझे मिट्ठी के खिलौने भी
किन्तु आज अपने हित में टूट ही जाते हैं
शीशे से गढ़े जाने कितने
भावनाओ और उम्मीदों के महल...

मुट्ठियों में थे मेरे सपने
जिसे पूरा करने को खड़े थे मेरे अपने
किन्तु आज कदम-कदम पे बिखरे मिलते हैं
अनमोल सपनो के चिथड़े
समझौते से फांकती जाती हूँ आह अपनी
जिद्द के आगे सबको झुका देने वाली 
आज अपने आंसुओ को दफन कर लेती हूँ 
ये सोच कर कि मुझे कोई नहीं समझता..

पर सच तो ये हैं
बचपन कि गली से
जवानी कि दहलीज़ तक आते-आते
सब जुदा सा हो गया.....
बढ़ते उम्र ने मेरी मांगो को ही तब्दील कर दिया
जिसे पूरा करना किसी के बस में नहीं
सब रिश्ते वैसे ही हैं...
कुछ नए रिश्तो में मैं ही बंध गयी हूँ
किसी का दोष देना सही नहीं
क्यूंकि.....मैं ही बदल गयी हूँ !!!


________परी ऍम 'श्लोक'

Saturday, June 28, 2014

समय की धार में................



न वक़्त तुम्हारे पास है
न वक़्त हमारे पास है
माया में दुनिया रमी
माया ही सब आज है

कुछ कहे-सुने मुद्दत हुई
कहो तुम कुछ ये हसरत हुई
लेकिन रिश्तो में आ लगी
अपारदर्शिता की गाँठ है

सफर कटा मेरा तनहा
ये कैसा जन्मो का साथ है
आँखों से बरसी कितनी पीड़ा
फिर भी मन में जमा अवसाद है

प्रेम का गीत मूक हुआ
जाने कौन सा चूक हुआ
समय की धार में बह निकला
हम दोनों का उल्लास है


___________परी ऍम श्लोक

Friday, June 27, 2014

"वापिसी कि प्रतीक्षा"

जाने क्यूँ लगता है?
तुम आस-पास ही हो 
परन्तु ये वहम के उत्पात के अलावा
कुछ भी नहीं है
ज्ञात है भलीभांति मुझे.......
फिर भी
सुबह आँख खोलते ही
नज़र तुम्हे ढूँढने
खिड़कियों के पार चली जाती हैं
और न पाकर तुम्हे
अवसाद कि घटाओ को समेट कर
उल्टे पाँव वापिस लौट आती हैं
बैठ जाती हूँ पढ़ने तब
तुम्हारा सरहद से भेजा
वो आखिरी पत्र 
तुम्हारे आने का वादा
जिसका हर शब्द
स्नेह से लिबड़ा हुआ है... 

जब कभी छत पे कागा बोलता है 
तो मेरी आशा और ज़ोर पकड़ लेती है
लेकिन दिन-भर तरस के बीत जाता है
तुम्हे इक झलक छू लेने को 
कभी गलती से हवाएँ भी अगर
चौखट पे आकर
खड़ी हो दरवाज़ा खटखटाये 
तो दौड़ पड़ती हूँ
ये सोच की हो न हो
इस बार तो तुम ही होगे

जानते हो............... ?
वक़्त ने झाड़ दिया है
हर शाख से पुराना पत्ता
सब कुछ नवीन हो गया है
परन्तु इस मन के खण्डर में
कुछ साबूत रह गया है तो बस

तुम्हारी वापिसी कि प्रतीक्षा..... !!!


_______परी ऍम श्लोक

मेरे मुकद्दर की बेबसी नहीं तो क्या है....!!

जाने किस बात पे औरत बनी हूँ मैं....
ये मेरे मुकद्दर की बेबसी नहीं तो क्या है...
किश्तों में सामान सी कितनी बटी हूँ मैं...
ये मेरे वज़ूद की बेइज्जती नहीं तो क्या है...

हर कोई झुनझुना सा बजाता रहा मुझको..
ये मेरे सहन की हथकड़ी नहीं तो क्या हैं..
मेरे तन के कपड़ो को फाड़ा गया..
अस्मत को सरेआम उछाला गया...
ये इस समाज की दरिंदगी नहीं तो क्या है...

बेचा गया मुझे तो कंही खरीदा गया मुझे.
इंसानो के सोच की गन्दगी नहीं तो क्या है
जिसने भी कभी चाहा बस देह की फरमाइश कि
भावनाओ के नाम पे सौदागरी नहीं तो क्या है

करू इंकार तो तेज़ाब से जलाओ मुझे
कभी ब्लेड तो कभी चाक़ू से काट जाओ मुझे
मर्द जात की आखिर ये बुजदिली नहीं तो क्या है

पूजा जाता था जिसे आज वो बाज़ारो में मिलती है
वक़्त की आँखों की बदरंगी नहीं तो क्या हैं
सब गूंगे है.... बहरे हैं.... होकर भी मुकम्मल
लोगो के ईमान की तंगी नहीं तो क्या है

जाता हुआ वो शक्स मेरे कानो में जहर घोल गया
सुन के भी खामोश होना मेरी सितमगरी नहीं तो क्या है
हमसे नहीं संभाला गया शायद ही खुदको
हमारे हुंकार की तलवार ये जंगी नहीं तो क्या है


______परी ऍम श्लोक
 

हमको तो मुफलिसी ने मारा है दोस्तों......!!


हमको तो मुफलिसी ने मारा है दोस्तों...
वरना शान तो हमें भी प्यारा है दोस्तों..

ठंडा पड़ा है चूल्हा...थाली भी है खाली...
पेट में जलता भूख का अंगारा है दोस्तों..

न तन पे मेरे कपड़े....न सर पे छत है...
मेरा दर्द कब किसी ने जाना है दोस्तों..

मुझको दुतकारा गया जैसे कोई कुत्ता हूँ..
कब किसी ने यहाँ प्यार से पुकारा है दोस्तों...

गाँव से निकल आया रोटी के खातिर...
फूथपाथ ही अब अपना सहारा है दोस्तों...

न सर्दियों की धूप... न सावन की बरसात
मेरे खातिर बेकार..चाँद और सितारा है दोस्तों

कुछ गुनाह कमाए मैंने भी गरीबी की बदौलत... 
धोखा दिया...तो किसी का पॉकेट मारा है दोस्तों...

गद्दार तो नहीं हूँ....मुल्क से है मोहोब्बत... 'श्लोक'
मगर इंसानियत को ज़रा सा हारा हूँ दोस्तों...

______परी ऍम श्लोक

Thursday, June 26, 2014

इतना भी नेक आज ये ज़माना नहीं है...!!

खोल के रहने लगे 'श्लोक' कोई भी इस घर में
दिल मेरा हर किसी का आशियाना नहीं है

मूँद कर करूँ आँख किसी पर भी भरोसा
इतना भी नेक आज ये ज़माना नहीं है

कहना पड़ता है हर बात चीख-चीख कर यहाँ
ख़ामोशी समझे मेरी ऐसा कोई दीवाना नहीं है

वैसे बहुत बड़ी  है दुनियाँ घूम कर है मैंने जाना
तो क्या हुआ कि अपना कोई ठिकाना नहीं है

छिपा के रख सकूँ बुरी याद किसी कोने में
अपने पास ऐसा कोई तयखाना नहीं हैं

कोशिश है अपनी हकीकत में जिया जाए
अपने बस की तो सपनो को सजाना नहीं हैं

अपनी कलम ही जाने कब तजुर्बों से भीग गयी
सोचा था किसी को भी कुछ बताना नहीं हैं


__________परी ऍम श्लोक

आज फिर खत उनका दबे जस्बात का आया है..........


हमने जिसे जलाया है... उसने हमें बुझाया है...........
आज फिर खत उनका दबे जस्बात का आया है............

इश्क़ के जंजाल में फस कर आखिर क्या पाया है..........
हर बार बे-उम्मीदी ने जाने कितना मुझे रुलाया है............

सवेरो ने बेबसी छेड़ी शाम ने धूल सा उड़ाया है...........
भूख-प्यास सब लौट गयी तेरा सुध जब आया है..............

उसको दिल कि डाली पर बिठा बाग-बाग झुलाया है
हर इक सितम उसका हमने पलकों पे उठाया हैं

कुछ तो है 'श्लोक' बात हुई रात विरह कि उदास हुई
सपनो का खिलौना देकर फिर नींदों को बहलाया है

तुम थे या वहम मेरा हवा के संग कुछ आया है
बड़े प्यार से जख्मो कि किन्ही हाथो ने सहलाया है

लगता है कुछ खोया सा ढूँढू लाख पर न मिले
बताओ न कि मुझमें से तुमने आखिर क्या चुराया है


              _______परी ऍम श्लोक

सच बोलने कि आदतन बीमार रही हूँ...!!

दिन-दिन पहर-पहर मैं हार रही हूँ
मुझमें तू जिन्दा है तुझे मार रही हूँ

हसरत किसे हैं यहाँ पर जनाब जीने कि
मैं सज़ा कि चंद घड़ियां गुज़ार रही हूँ

खुद को छोड़ कर किसी गुमनाम गली में
आज होश आया है तो मुझको पुकार रही हूँ

ख्वाब चढ़ बैठे थे जो भरम के शज़र पे
नीचे उतारने को उनको पुचकार रही हूँ

शातिर ज़माने में भी इंसान मिलेगा मुझको
ताउम्र इसी ग़लतफ़हमी कि शिकार रही हूँ

मिलता नहीं इन नज़रो से 'श्लोक' अपना नजरिया
ये झूठ के साथी और
मैं सच बोलने कि आदतन बीमार रही हूँ


______परी ऍम 'श्लोक'

बहुत दूर निकल आई हूँ.....


















जिंदगी कि चाह से बहुत दूर निकल आई हूँ
तोड़ के हर कसमे और वादे निकल आई हूँ

हूँ तो इसी ज़मीन और आस्मां के बीच टंगी
हाँ ! तेरे शहर से ज़रूर निकल आई हूँ

हसूँ न तो क्या करम करूँ अपने हालात पे
मल्लिका कि शक्ल में फ़कीर निकल आई हूँ

तुझसे जुड़ी हुई हूँ जाने अब भी कैसे मैं
तोड़ के तो हर इक ज़ंज़ीर निकल आई हूँ

उल्फत के राहो में मिले हैं जो भी जख्म मुझे
ले कर तमाम दर्द का जागीर निकल आई हूँ

छोड़ कर दिल अपना तेरे ही पास कहीं
उठा कर बस इक तेरी तस्वीर निकल आई हूँ


________परी ऍम 'श्लोक'
 

Wednesday, June 25, 2014

वासना के शहर में प्रेम अधमरा मिला...!!

चेहरा तो नहीं होता आइना किसी का......
मगर चहरे पे मरने वालो का तांता लगा मिला.....

मन की ज़मीन पर लगाया था गुलिस्तां.......
मगर देह के कीचड़ से मन में कांटा चुभा मिला.....

प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ने को ज्यो मैं बैठी......
वासना के शहर में प्रेम अधमरा मिला......


_______परी ऍम श्लोक

दुनिया बदरंग बहुत लगने लगी......!!

दुनिया बदरंग बहुत लगने लगी......
मेरी परछाइयाँ भी मुझे ठगने लगी.....

छाले नहीं मिटे पैरो के अभी और......
रास्तो में नागफनी उगने लगी है.......

जलाया था चराग अंधेरो के लिए......
रात कायम है मगर रोशनी बुझने लगी......

चैन मुझको आता भला कैसे यहाँ.......
बदलते माहौल की सूरत मुझे चुभने लगी.....

सादा चोला और भेड़ियो सी नियत.......
ऐसी आबादी भी बहुत बढ़ने लगी......

जिन्हे पूजते थे देवी और दुर्गा की तरह......
वो ही औरत बाज़ारो में दामो पे बिकने लगी.....

जवानी कटती देखी मैंने शोहरतो के पीछे.....
बचपन पोर्न साइट के पन्नो पे कटने लगी

बाप-बेटी का रिश्ता भी मिला जब रौंदा हुआ
पूछो न की दिल की नस कितनी दुखने लगी

माँओ की हाथो में जब मैंने कटोरा देखा
औलादो की कारीगरी ज़हन को खटने लगी 

खा गया सारी नेकी कलयुग का दानव
बदी हर किसी के सर पर चढ़ने लगी


_____परी ऍम श्लोक

Tuesday, June 24, 2014

रोज़ देते हैं इक नया ज़हर मुझे ...

रोज़ देते हैं इक नया ज़हर मुझे ...
लगता है जंगल अब ये घर मुझे...

मुरादे मांगती रही मैं जिनके वास्ते...
वो मार रहे हैं तानो का पत्थर मुझे...

ये दीवारे घोंटती हैं अब दम मेरा..
बाहर वहशी लगे पूरा शहर मुझे ....

न निकल सकी मैं जब मोह जाल से ....
फरेबी लगे तब ये हौसलों के पर मुझे .....

ले जाएगा मौत के दरवाजे तक 'श्लोक'
रूह तक छल्ली करके ये सबर मुझे ...


_________परी ऍम श्लोक

वो शक्स....!!


 

"मिड्ल क्लास लड़की...." (लघु कथा)

उस मिड्ल क्लास लड़की को शायद ज्यादा समझ मे आती होगी जिंदगी क्या है? जो मैं समझने की कोशिश करूं तो समझ भले ही लूँ लेकिन महसूस करने मे चूक जौउँगी ! सुबह से ही शुरू हो जाती है उसकी मेहनत तब तक तो सूरज भी अपनी आंखे नहीं खोलता की वो अहम काम निपटा लेती हैं ! घर कि रसोई से बाजार कि मंडी तक और ऑफीस कि फाइल मे उलझी फसी उसकी दिनचर्या और किताबो में गश्त खाती और अगले दिन का टाइम टेबल बनाते बीत जाती है उसकी रात..... !

ऐसी ही है मेरे ऑफीस मे क्लर्क का काम करने वाली 'सुलेखा' जीवन की तमाम मुश्किलो के बाद भी अपनी पढ़ाई ज़ारी किये हुए हैं साथ ही पूरे घर की जिम्मेदारी अपने काँधे पे उठाये हुए बिना किसी शिकन किसी अफ़सोस के जीवन की उतार-चढ़ाव का सामना करती है ! पिता का साया बचपन में ही सर से उठ गया था शायद वो कैंसर की ग्रसित थे अब घर मे तीन छोटी बहने और बूढी माँ है ! जिनकी देखभाल सुलेखा ही है.… उसे कोई पीज़ा..बर्गर..का शौक नहीं कहीं घूमने की कोई बात नहीं..कोई शॉपिंग का ख्याल नहीं जब भी करती है तो बस मेरी बहन को ये डिग्री करवानी है उसको ज्यादा पढ़ाना है घर मे ये करना है वो करना है माँ को दवाई दिलवानी है कुछ ऐसी ही बाते !

कितना सोचती है वो इतने कामो उलझनो के बीच भी नहीं डगमगाते उसके कदम ! बेशक वो बहुत मज़बूत है ! मात्र तीन सूट है उसके पास लेकिन वो भी उसकी खूबसूरती को चार चाँद लगा देते हैं ! सैलरी आने से पहले कितनी प्लानिंग करती है फिर सॅलरी आते ही सोचने लगती है की छोटी बहन का इस बार अड्मिशन करवाना है..... राशन भरवाना है..... कमरे का किराया देना है..... बिजली का बिल भरना है..... किताबे लानी है ऐसे कई काम और फिर से रह जाती है धरी की धरी उसकी प्लानिंग ! महीना खतम नहीं होता की उसकी सॅलरी खतम हो जाती है बाकी १० दिन महीने के बिना पैसे कैसे काटती होगी वो लड़की उससे बेहतर कौन जानेगा ? 

उसके चहरे पर फैली मुस्कान कभी जाहिर नहीं होने देती उसकी दशा और वो अपनी इसी क्षमता से परास्त कर देती हैं उसके रास्ते मे आने वाली तमाम मुश्किलात ! शायद बहुत करीब से देख पा रही है वो जिंदगी हर तजुर्बा कमाती जा रही बीतते वक़्त के साथ अपनी उम्र से ज्यादा सीख पा रही है और मैं देखती रह जाती हूँ उसके जीने के तरीके को फिर मन कहता है जाकर कह दूँ मिडिल क्लास लड़की के हौसले को मेरा सलाम !!

________लेखिका : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, June 23, 2014

"तुमसे जुड़कर"


"हमारे मुकाम"


"कोई वापिसी है क्या??"


उन लम्हों में
इतनी तेज़ी थी
जैसे बयार बह कर 
कहीं गुमशुदा हो गयी हो....

जिन्हे थामने की कोशिश में
मैं खुद पत्तो की तरह
सफर में दूर निकल आई हूँ....

कहो !
कोई वापिसी है क्या ?
अब मेरे लिए !!!

 रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"

Sunday, June 22, 2014

संवर जाने दो.....!!


कोरे पन्नो पे लव्ज़ों को... बिखर जाने दो
मुझे तेरी पनाहों में.... संवर जाने दो

 
जिंदगी से ज्यादा है...आरज़ू मुझे तेरी
गर ये इश्क़ है तो...मुझे इस दर्द से भर जाने दो

 
करो वादा की उम्रभर साथ दोगे.....
फिर मुझे दीवानगी कि हर हद से..... गुज़र जाने दो
 

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

तेरे ख्यालो का शुमार सा रहा....!!


Friday, June 13, 2014

'ए' मेरे सनम मिलेंगे.....!!

इस जनम नहीं तो फिर उस जनम मिलेंगे
इक बार तुझसे हम....'ए' मेरे सनम मिलेंगे

मिटायेंगे खामियां अपनी वक़्त की रबड़ से 
किसी दौर में तुझको मुकम्मल से हम मिलेंगे

कब तक करेगी तकदीर यूँ रुस्वाइयां हमसे
कभी न कभी तो तेरी लकीरो में हम मिलेंगे

मायूस न होना अगर शहर में न नज़र आये
हकीकत से दूर कहीं तुझे ख्वाबो में हम मिलेंगे

इतना कहाँ आसान हमको मिटा पाना भी है  
तेरी ग़ज़ल..तेरी नज़म,,तेरी कविता में हम मिलेंगे

कब तक करेगा इंकार खुदा मेरी दुवाओं से
कभी तो उस के भी हमें रहम-ओ-करम मिलेंगे 


____ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'

"प्रेम चक्रव्हुव"


प्रेम के
चक्रव्हुव ने
घेर
लिया है  मुझे
अब
जो चाहो
मेरा हश्र करदो.......... !!!


_____परी ऍम "श्लोक"

"भय लगता है उस पल भी.... "


भय लगता है.... 
उस पल भी
जब कोई गली से गुजरता राही
बहन कहके पुकारता है मुझे....
कोई बूढ़ा व्यक्ति
अपनी मदद को...
बेटी कहके सम्बोधित करता है...
उस वक़्त मैं झांकती हूँ ...
उसके चहरे की ओर..  
उसके भावो को पढ़ने का
प्रयास करने लगती हूँ....
किन्तु असफल रहती हूँ
इतनी बड़ी ज्ञाता नहीं मैं...
कि मुख पढ़
किसी मन में चल रहे
विचारो को जान सकूँ....
अच्छा था...
जिस पल नादान थी मैं...
जबसे देखने लगी हूँ समाचार..
पढ़ने लगी हूँ अख़बार...
सामना करने लगी हूँ...
ऐसे असहनीय माहौल का..
तबसे उठते हैं कई सवाल
किसी के एक सवाल पे....

 नहीं मैं कमज़ोर नहीं हूँ 
लेकिन फिर भी
मुझमे बैठी ये औरत.......
कमज़ोर बना देती है मुझे !!!!

रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"

मुझे हर खाई हर मझधार से गुजरना पड़ा..!!

मुझे हर खाई...हर मझधार... से गुजरना पड़ा...
ए जिंदगी! तेरे लिए... जाने क्या-क्या करना पड़ा....

भूख भी न मिटी.......प्यास भी बाकी रही...
नोन-रोटी खाकर भी... मुझको चुप रहना पड़ा....

धूप में जला..बारिश में भीगा..पतझड़ों में झड़ा...
हर मौसम से होकर.... इस सफर में गुजरना पड़ा.... 

ऐसा करूँगा वैसा करूँगा...मगर ये न होगा मुझसे...
जो कभी न करना चाहा.... फिर वही करना पड़ा...

दिल में कुछ और था.......मगर सामने कुछ और....
यही लिखा था भाग्य में...कह ख्वाब खत्म करना पड़ा...

कभी अमीरी भटक के... गलती से भी घर में न घुसी...
तमाम उम्र बस अभावो में.... गुजर-बसर करना पड़ा....


Written By : Pari M "Shlok"

Thursday, June 12, 2014

"औरत पर सितम की कहानी बांचता इतिहास है.."



















औरत पर सितम की कहानी... बांचता इतिहास है......
कभी द्रोपदी चीर हरण..कभी सीता का वनवास है......

कैसे न घुटे दम देखकर कर... ऐसी ये दागी दशा......
देश के हर कोने में... नारी अस्मत का सत्यानाश है......

सोचा निकल के घर से बाहर.. खुली हवा में सांस लूँ.....
पर अंदर है रावण का ढेरा... बाहर दरिंदो का निवास है......

मैं ही जननी..मैं ही अर्धांगिनी..मैं ही बहन..बेटी मैं ही...
फिर मेरी जात का हो रहा....क्यूँ इतना उपहास है ?.....

डर के साये में दफ़न हूँ.....जीने पर अफ़सोस हैं
मुझको कैद करके मत कहो... की तू भी तो आज़ाद है....

कल जली थी जिसमें निशा....आज आशा उसी में बर रही...
तसल्लियाँ देने वालो तुम्हे... क्या उस पीड़ा का आभास है?....

कुंठित और सड़ती मानसिकता.... इंसानियत बदहवास है.... 
सुनो ! ये सब सुरक्षा की व्यवस्था... मेरे लिए बकवास है....!!! 


______परी ऍम '"श्लोक"

मेरी तस्वीरो से भरी फिर क्यूँ तेरी किताब है?...!!

तू हो या मैं हूँ हर किसी को इक तलाश है......
मछलियो से कभी पूछेंगे क्या उसे भी प्यास है?.....

बह रही है हवा....बहारो का आग़ाज़ है........
फिर भी क्यूँ दिन जला..रात क्यूँ उदास है?....
 
कोई भी तो नहीं पूरा इस जहाँ में जान लो......
मोर झूम रोया पाँव देख..चाँद पर भी दाग है......

गर तेरे दिल में मैं नहीं मेरे दिल में तू नहीं.....
मेरी तस्वीरो से भरी फिर क्यूँ तेरी किताब है ?......



ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'

"बच्चा-बच्चा आँखों में धूल झोंक रहा...."

दुश्मनो से नहीं हमें अपनों से खौफ रहा ....
नींदों में उतर के कोई सपनो को नोच रहा...
 
मिला के हाथ....दिल में अज़ाब रखते है...
इसी बात का अक्सर हमें अफ़सोस रहा...
 
वक़्त ने तब्दील कर दिया हर आदमी को ...
मैं न बदला मुझमें बस यही खोट रहा...
 
किसी का दिल दुःखा सब कैसे मुस्कुराते हैं?...
दर्द को थामे मैं लगातार यही सोच रहा...
 
करूँ ऐतबार किसपे फिरंगी इस दुनिया में ...
यहाँ का बच्चा-बच्चा आँखों में धूल झोंक रहा...
 
किसी कोने में पड़ा बिलखता है हसरतो का टोकरा...
जो कभी पूरी ही न हो हमें भी तो वही शौक रहा...
 
 
ग़ज़लकार : परी ऍम श्लोक 

"बाट जोहता घर"

कबूतरो ने बयालो में
खर-पतवार एकत्र करके
बना लिया था नया ठौर-ठिकाना
अपना घोसला.....
सांपो ने डेरा डाल लिया था
रात की रानी की जड़ो में...
तो कुछ इधर-उधर
बेखौफ टहलते दिखे...
हाँडियो का लटका मिला
रोशनदान के ऊपरी हिस्से पर छत्ता
बुद-बुद चू रहा था
करवन के पेड़ से करवन..
नीम्बू पीले हो गए थे
तो कुछ सूख गए थे
गाँठ तक उगी थी दूब-घास
मिट्टी के आँगन में...
चढ़ा हुआ था दीवारो पे सीलन...
ज़मा था छत पे पानी
दरवाजे की जंजीर जंगा गयी थी
कमरे में पड़े सामानो पर
धूल की चादर डली हुई थी
प्रतीत हो रहा था मेरा घर
मानो किसी खण्डर में प्रवेश किया हो
जबसे परदेश कमाने निकली
वहां के फ्लैट के सफ़ेद फर्श को
रगड़-रगड़ के साफ़ करते हुए
भूल गयी थी
मेरे गांव में मिट्टी का घर है
जो कबसे तरस रहा है
कोई आये
और उसका तन भी झाड़े-पोछे....!!!


रचनकार : परी ऍम "श्लोक"

Wednesday, June 11, 2014

हर नशे का नुक्सान लिखूंगी जाते जाते.....

सुनो ! इक पैगाम लिखूंगी जाते जाते.....
उसमें दुआ सलाम लिखूंगी जाते जाते....

दरिया कि प्यास.....सेहरा कि तलाश....
कई तजुर्बा इक साथ लिखूंगी जाते जाते....

चाँद का फीकापन...रात का गूढ़ापन....
शहद में नीम का अवसाद लिखूंगी जाते जाते....

आस्मां के दिल पे..सूरज के माथे पे.....
लहर पे अपना नाम लिखूंगी जाते जाते.....

आधी कहानी..कमाई हुई ठोकरे..तोहमते.... 
अपने दिल कि हर जुबान लिखूंगी जाते जाते....
 
आँगन..छत..कमरा...रोशनदान लिखूंगी जाते जाते....
टूटे घर कि ईंट और दीवार लिखूंगी जाते जाते.....

शहर..गली..चोराही कि चर्चा.. इंतज़ार में बीते वो दिन.. 
मोहोब्बत कि आग़ोश में ढली वो शाम लिखूंगी जाते जाते....

पड़े जो आबले सीने में मोतबर कि ख्वाइश के सफर में...
जिंदगी का हर हाल-ए-बयान लिखूंगी जाते जाते....

वफ़ा का इनाम..प्यार का अंजाम..गुल-ए-गुल्फ़ाम...
हर नशे का नुक्सान लिखूंगी जाते जाते....... 


____ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक' ___

तेरी खता.....न मेरी खता....

वो ही कर गए किनारा हमसे..
जो कहते थे गम के साथी हैं...
मैं अगर हूँ चिराग अंधेरो का...
वो भी इस दिए भी बाती हैं....

मुझे न देखे तो उसे उलझन...
न मिले तो फिर बेताबी है...
वो जो कहता था मेरी गैरहाजिरी से...
उसकी जान निकल जाती है...

कैसे रोकूँ मैं अपने आंसू अब...
जो उसके नाम पे चली आती है...
ऐसे बेहिसाब वादो कि घटाओ पे...
मुझे कभी-कभी तो हसी आती है...

इस मोहोब्बत का सिला क्या है....
सवालो से तन्हाई गूँज जाती है.... 
भवर से पार लगती इक पल कश्ती....
दूसरे लम्हे में ही डूब जाती हैं.....

उठते हैं जब ये बुलबुले शिकवे के....
'श्लोक' फूक-फूक कर बुझाती हैं....
तेरी खता.....न मेरी खता....
तोहमत तकदीर को दे आती हैं !!!

______ग़ज़लकार: परी ऍम 'श्लोक'_______

Tuesday, June 10, 2014

"इतना ही काफी है"


इस ज़माने को
जलने के लिए...
आग कि क्या ज़रूरत है?
ईर्ष्या ही काफी है....

वैसे यूँ मरने के लिए...
खंज़र कि क्या ज़रूरत है?
धोका ही काफी है....

जिंदगी क्या चीज़ है....
ए दोस्त...
ये समझने के लिए...
इश्क़ का इक...
मौका ही काफी है

रिश्तो कि
नींव हिलाने को ....
कुछ ज्यादा नहीं....
बस शक का हल्का 
झोका ही काफी है....


________परी ऍम श्लोक

"चिड़िया का संघर्ष"

उठती है चिड़िया...
ची-ची कर देती है
सुबह का अलार्म....

निकल पड़ती है फिर
दाना चुगने इधर-उधर...

नहीं घबराती वो
दिन दोपहरी से...
चिरराते धूप से..
लूक बयार से....
ओला..पाथर..
बरसात से... 

लाकर भरती है....
जाने किस-किस जुगाड़ से..
चोंच में दाना ढोकर
अपने बच्चो का पेट...

यही दिनचर्या है उसकी  
ऐसे ही दिन भर फिरना
किसी तलाश में....

और शाम होते ही
लौट आना
अपने घोसले में.....

यही है उसके जीवन के
प्रयासों की कहानी...

वास्तव में....
जीवन के किसी भी पहलु पर
अध्यन किये जाने पर
निष्कर्ष निकल कर यही सामने आता है........

कि ये जीवन एक संघर्ष है !!!

 रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"जीना चाहूंगी...पूरी शशकता के साथ"

चलूँ मैं और
पाँव तले हो
जलती हुई दूब..

सर पे लदा हो पाथर
अनचाहे हादसे
सुई चोभये...

पीड़ा के धागे सिल दे देह...
 
जो चाहूँ बिसर जाए
सफलता मुट्ठी से फिसल जाए

हर बार चोट जख्म दुःखाये
मुरझा जाए सपनो कि बेल 
गर्म हवाओ के थपेड़ो से...

हर लम्हा बागी हो
आती-जाती साँसे फांसी हो जाए
खंडर हो जाए मुस्कान
 
लेकिन
उस पल भी मैं जीना चाहूंगी...
और पूरी शशकता के साथ

देखना चाहूंगी
अपने हौसले के सामने
मुश्किलो को अपने कदमो पे
नाक रगड़ता हुआ !!!


रचनाकार: परी ऍम 'श्लोक'

"टीचर का रुमाल"

याद आई अचानक
उस महकते हुए
सफ़ेद सूती कपड़े कि...

बचपन के भोलेपन में
जान नहीं पायी थी
कि वो महक आई कहाँ से ?
कौन से फूल का
रस निचोड़ा है इसमें..

हर रोज़ प्रयत्न के बाद भी
नहीं आती थी
मेरे हिस्से में वो महक
जाने कितनी बार रगड़ के
धोया करती थी मैं
अपना गुलाबी रुमाल...

उस पल खुश हुई थी मैं
जान गयी थी मैं उसका राज
जब लगी वो शीशी मेरे हाथ .....

ऐसे ही किसी
परफ्यूम में सना था
मेरे टीचर का रुमाल...... !!!!!


Written By : Pari M "Shlok

Monday, June 9, 2014

"औरत के नाम पर असहजता...."


"रास नहीं आया"


"मन का मौसम ठहरा रहा"

समय सामने से सरपट दौड़ गया
बिना मुड़े बगैर मलाल के..
 
कई मौसम आये गए
सावन कितनी बार झूला झूल गए
कई बार घटा छायी
कोयल कूके..मोर नाचे
रिम-झिम बरसे बादल
शरद में चांदनी कितनो बार उतरी
नदी की लहरो पे नहाने
जाने किसे लुभाने के बहाने..
 
किन्तु
मैं हर आनंद का परित्याग कर
मन की क्यारियों में
विश्वास का बीज डाले...
आशाओ की रोशनी को आँखों में भर
उसी जज़ीरे पर कर रही हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा......
नहीं निकल पायी मैं आज भी
हर तरफ से मुझे घेरे हुए
संवेदना के गहरे हरे समंदर के पार

नहीं रोप पायी मैं....
भावुक नम मिटटी में
किसी और के नाम का पौधा
तुम्हे ही टटोलती रही
बढ़ नहीं पायी मैं इक कदम भी आगे

क्यूंकि शायद ! समय नहीं थी मैं.......!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक

Saturday, June 7, 2014

"विरह का भार"

  
 

विरह का भार
कभी कभी अपने कांधो पर
ढोते हुए झुक जाती है
कमर मेरी हिम्मत कि.....
तुम्हारी प्रतीक्षा में
टूटी हुई उम्मीद कि माटी
आँखों में झुंक कर
मोतियाबिन का पर्दा डाल देती है
आंसुओ से सिंचता हुआ जख्म
और हरा होता जाता है
जिंदगी कि पेंसिल
तुम्हारे लिए खत लिखते हुए
घिसती चली जा रही है
किन्तु तुम्हारे पते के अभाव में
संजोते जा रही हूँ ये खत दराजों में
जब संजोग का डांकिया मिलेगा
तो वो सारे रास्ते
खुद बा खुद खुल जाएंगे
जो अब तक तलाश कि
मानचित्र पर बना ही नहीं है
तो आकर पढ़ लेना
जो कब से मैं तुम्हे
कहने कि कोशिश कर रही हूँ
किन्तु बीच में विरह कि दीवार
मेरी आवाज़......
तुम तक जाने से रोके हुए हैं !!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

अगर मैं कहूँ...............


Friday, June 6, 2014

"मिलो न...फिर उस झील पर"

मिलना उस झील किनारे
तुम्हे पल दो पल
निगाह भर देखने का मन है
बहुत दिन गुजरे....
उन खूबसूरत मुलाकातों को
तुम्हारे गद्देदार हाथो को लिए हुए
अपने कोमल हाथो में
तुम्हारी हैरान कर देने वाली
शरारतो को जिए हुए...
पता नही ?
तुम अब दिखते कैसे होगे ?
झुरियाओ ने कहीं
खींच तो नहीं लिया
तुम्हारा रोबीलापन.....
बताओ !
यही तो तुम भी चाहते हो
मिल जाऊं मैं तुम्हे
अकेले किसी वीराने में
और तुम मुझे सुनाओ
अपनी तन्हाईयो के किस्से
जिसे मेरी यादो से
तुमने हमेशा सजाया हुआ था
पोछते रहते थे
उसपे जमी घूल को
हमेशा गीले रुमाल से...
कहो !
क्या मिलोगे मुझसे?
उसी झील पर
जहाँ के पत्थरो पर बनाया करते थे
हम एक दूसरे का चेहरा
जिसके गोद में उतरता देखते थे
सिन्दूरी सूरज......
जो साक्ष्य है हमारे मिलन कि
कहो !
क्या मिलोगे मुझसे.....
आज फिर उस झील पर ?


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

!! वक़्त की धारो में !!


जान छूट गयी है पत्थर की मीनारों में
आगे बढ़ चली 'श्लोक' वक़्त की धारो में

लौट न पाउंगी मैं अब उन गलियारों में
टाँग देना तस्वीर मेरी रंगीन दीवारो में

मौसम ने मेरे हक़ में पतझड़ को सौपा है
अब सूखे पत्ते सा जलती हूँ अंगारो में

हसरत मेरी थी सूरज-चाँद सी चमकू
आसमान से टूटती हूँ हर रोज़ सितारों में

बड़ी मुश्किल से उल्फत का दरिया पार होती हूँ
आकर डूब जाती हूँ फिर ग़मगीन किनारो पे


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
 

"आरज़ू"

लिखते लिखते जिंदगी की शाम करना चाहती हूँ
हर सदी के कवि को सलाम करना चाहती हूँ

ग़ज़लों...कविताओ का दिल में मंदिर बनाकर
यहाँ पूजा... तो कभी आज़ान.. करना चाहती हूँ

शब्दों से सज़ा कर सत्य..अहिंसा..प्रेम का गीत
इंसानियत का बेझिझक सम्मान करना चाहती हूँ

इस मिट्टी का मुझपे क़र्ज़ है मेरा जो भी फ़र्ज़ है
नेकी की बोली पे कर्म को नीलाम करना चाहती हूँ

हो सके पाक़ आब-ओ-हवा मेरे मुल्क की इसलिए 
कोशिश का अंश फ़ज़ा को प्रदान करना चाहती हूँ

बस इतनी सी आरज़ू 'श्लोक' के साथ में चलती है
मैं जीते जी कई बेहतरीन काम करना चाहती हूँ
 
अपने लिए नहीं मकसद मेरा औरो के लिए जीना है
मैं अपनी हर सांस अच्छाइयों के नाम करना चाहती हूँ


Written By : Pari M ‘Shlok’

Thursday, June 5, 2014

"प्रेम वन में"

पाजेब में मोरे घुंघरू हज़ार
मगर बाजे न बाजे न
कलाई में चूड़ी कांच
मगर बाजे न बाजे न
ये सोलह श्रृंगार तन पे
मोरे साजे न साजे न
न रात सोये चैन से
दिन मोरा जागे न जागे न
मन को दूँ लाख तिलासा
मगर पागल माने न माने न
दूजा चेहरा सिवा तोहरे कोई 
पहचाने न जाने न......
लगन लागि जबसे मोहे तेरी
हर गली-कूंचे मा तोहका हेरी
बरखा सावन बीते विरह में
भाये न बिन तोहरे पाख उजेरी
फूल-पात..झरना..पर्वत..
कोई नज़ारा नयन को
मोह पाये न पाये न
तोहरा सुध दिमाग के ताखा से
निकल कहीं भी जाए न जाए न
अइसन फिरू मैं बन दीवानी
छलके नयन का पियूं पानी
पर तोहरे अमल से
बाहर निकल पाऊ न पाऊ न
प्रेम वन में भटक गयी मैं
रास्ता बोले घर अब जाऊं न जाऊं न !!


गीतिकाव्य लेखन By: परी ऍम 'श्लोक'

रोज़ कसमे खाता हूँ.....

रोज़ कसमे खाता हूँ
जब-जब ठोकर पाता हूँ

कहता हूँ....
नहीं करूँगा कुछ बुरा
नहीं बोलूंगा झूठ कभी
चुँगली-चाई ठीक नहीं है
चाल-चलन ये नीक नहीं है
किसी का मन दुखाना पाप है
इतना मुझको भी विश्वास है 
फिर किस्सा वही दोहराता हूँ
उसी दुर्लभ दशा में स्वयं को पाता हूँ
रोज मैं कसमे खाता हूँ .....

फिर सोचता हूँ
करलु बुरी आदत से तौबा
अलसुबह उठ लूंगा प्रभु का नाम
नेक करूँगा सारे काम
मुझमे जिन्दा है स्वाभिमान
लड़ जाता हूँ बुराई से इक पल  
दूसरे पल हो जाता हूँ निष्काम
फिर उसी राह से उल्टा आता हूँ
रोज मैं कसमे खाता हूँ .....

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

"करनी"

मिटे न बीत का चित्रण
कल से आज गढ़ा न जाए
आज के हाथ कल की रचना
सोच समझ कय लिखते जाए 
समय के पैर लागे पहिये
बांध के घुंघरू दौड़ा जाए
समय का पंछी इक बार उड़ा जो
लाख जतन पर लाउट न पाय
आपन करनी आपन साथे
किसी की पीड़ा न कोई बाटें
यही रीत और नियम यही है
जइसन बीज बोये वइसन फल काटे
काम वही करियो 'श्लोक'
हाथ मसल न बादे पछताय
जीवन जियो बन के उजेरा
फिर कोई अँधेरा काट न पाय

 
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक' 

Wednesday, June 4, 2014

"दूरियाँ"

पास है तू मेरे
मैं भी तेरे समीप हूँ
किन्तु फिर भी हम अलग
मिटेंगी नहीं ये दूरियाँ
इक दूसरे को रस्सी से
गतर के बांधने पर भी...

कितना बोलूं कुछ भी कहूँ
चाहे तन भी साँझा करलूँ
वो शब्द कहूँ तुम्हे
जो तुम सुनो और शायद झूम उठो...
किन्तु कैसे पाटू मैं ?
तेरे मेरे बीच की गहरी खायी
मुट्ठी भर भी नहीं है वो प्रणय भाव
बस आदत है मुझे तेरी...तुझे मेरी...
 
हम रिश्तो की नदी के
दो छोरो पे खड़े रह सकते हैं
मिलन तब तक संभव नहीं होगा
मन का सेतु....
जब तक नहीं बांधा जाएगा !!


रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"

Tuesday, June 3, 2014

"बावरा मन"

मन का मांझी
डूबे न पार हो
मुझसे तोड़े से भी न टूटे
मानो लोहे की दीवार हो
बादल छटे न बौछार हो
प्रतिदिन इक नया अध्याय तैयार हो
दिया न रोशनी दे न बुझे
मछली बन तड़पु पड़ी
झील के मटमैले किनारे पे 
हृदय में रखूं तो चुभे साँझ-सवेर
कहाँ ढो-ढो फेंकू यादो का ढेर
करूँ कितनो जतन हजार
भीतर से निकले न प्यार 
मिले न तो पीड़ा हो
आ मिले तो खेद जताऊं
कितना भी प्रयास करूँ
फिर भी तुझको भूल न पाऊँ



रचनाकार : परी ऍम "श्लोक"

"सुन्दर अनुभूति या सदमा"

क्या माँगा था ?
मैंने पूछा उससे
वो फफक बोली...
सिवाय प्रेम और कुछ नहीं
किन्तु मिला उसे क्या ?
खूबसूरत अहसास का सदमा
ऐसा दाग जिसको उभारा सबने
मिले उसे इस जंगल के
हर दो कदम पे खड़े वो लोग
जिनके जिह्वा की उंगली पे
घूमता है आकर्षक माला मोती
जिसकी चमक से चौंधिया जाता है मन
वश में कर देता है
मीठे शाब्दिक मंत्रो से
सोच-विचार अच्छा बुरा सब कुछ..

ये प्रेम भी कलयुग के चौखट से
प्रवेश करते ही
अपने औचित्य को त्याग बैठा 
कब इतना आगे निकल गया
पता न चला कि
बाज़ारो में कब बेचा जाने लगा प्रेम ?
कब खरीदा जाने लगा देह?
कब नंगा हो गया प्रेम ? !!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"सिर्फ कल्पनाओ में जिन्दा है मेरी आज़ादियाँ"

कल्पनाओ की कलम में 
आशाओ की श्याही भर
उंकेर रही हूँ आज पन्नो पर
इक नवीन संसार.....
और चाहती हूँ 
हकीकत को भनक भी न हो की मैं
अलग सी खोज करती हुई
मनचाही गलियो में चली आई हूँ ...

हाँ सच! मैं यहाँ आराम में हूँ
अपनी बाहें फैलाएं हुए
हर ओर से आज़ादियो को
अपनी तरफ आता हुआ देख रही हूँ
यहाँ का हर मौसम सुहावना है
इस बस्ती के पुरुषो के
नज़र में बहुत अदब है
वो अपनी आँखे मेरे सीने में नहीं गाड़ते
बोल में प्यार और सम्मान फूटता है
मेरी दशा यहाँ सामान जैसे नहीं
यहाँ बेटियो को पूजा तो नहीं जाता
मगर उनके पैरो में बेड़ियां भी नहीं है
उन्हें बोझ नहीं समझा जाता
और वो अश्लीश शब्द
जो मन का गला घोटते हैं
यहाँ कभी सुनाई नहीं देती  
राते मेरे लिए चिंता का विषय नहीं
बल्कि सुनहरे सपने सजाने का
माध्यम बन गया है
दादी जिस राजकुमार की कहानियाँ
हमेशा सुनाया करती हैं 
मुझे लगता है वो यहीं मिलेगा....

हकीकत को कहो अब की मैं
उसके साथ रिश्ता तोड़ रही हूँ
मेरा आँचल खींच के न बुलाये मुझे
नहीं रहना मुझे ऐसे स्थान पे
जहाँ होते हैं
कभी दिल्ली तो कभी बदायूं
तो कई ऐसे अनगिनत कांड
जिसके इतिहासिक ब्यौरे में
मेरी उम्र घिस जायेगी.....
कलम थक के चुरखुना हो जाएगी.....
स्याही सूख जायेगी....
किन्तु ब्यौरा ख़त्म नहीं होगा !!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Monday, June 2, 2014

"ख्वाइश"

आकर थम जाती हैं
हर तमन्ना मेरी
जब उसके मुँह से सुनती हूँ 
तमाम ख्वाइशें उसकी....

क्या न लाकर दे दूँ उसे मैं ?

उसके रास्तो से बीन लूँ
सब चुभते कंकर-पत्थर
उसकी तकलीफो को
अपने घर का पता देदूँ
और
उसके गले में डाल दूँ ताबीज़
कि बुरा वक़्त कण मात्र भी
उसे स्पर्श न कर सके....
खरीदकर ला दूँ
खुशियाँ सभी उसके लिए 
हर दफा देखूं उसे झूमता हुआ
अपनी जीत का जश्न मनाते हुए
हार उसके करीब जाने से पहले
टूट के बिखर जाए
उसके ताब से राख हो जाए नाकामियां
नृत्य करता देखूं उसके आँगन में
प्रेम..संस्कार..सम्मान कि अप्सराएं
रचता रहे वो अपनी कोशिशो से
अक्सर.....
 इक नया इतिहास !!!!


रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

"लगन लागी"

तुम्हे पाकर अच्छा लगा
कि तुम मेरी हुई
अगर किसी और को मिल जाती
तो जाने मेरा क्या होता ?
लेकिन सोचा तो ये भी न था
और शायद अगर तुम न आती
तो कभी इसकी
कल्पना भी न कर पाती
कि जीवन के इक मोड़ पर मुझे
यूँ तुम मिल जाओगी
मुझे जिन्दा कर दोगी
हर मुमकिन तरीके से
सच !
अब कभी महसूस नहीं होता
कि मैं अकेली हूँ
उसपल भी नहीं
जब अँधेरा साये तक को पी जाता हैं
सन्नाटे में उठती आवाज़
दबाने लगती हैं साहस
तब खुद को
पन्नो के ह्रदय पे पा कर
भावुक हो उठती हैं
और मेरी दोस्त बन जाती हैं
तुम्हारी बदौलत पाये हैं मैंने
इतने सारे मित्रमंडल
जिनकी मूक भाषाओ को
पढ़ पाने का गुण भर दिया हैं तुमने मुझमे
इतना सब मुझे भेट करने के एवज़ में
छोटा तो हैं किंतु फिर भी 
सुनो ! तुम्हारा शुक्रिया !!!

रचनाकार: परी ऍम श्लोक

(""परी ऍम श्लोक कि तारुफ़ में जो मुझमें रची हैं मुझमें बसी हैं"" )

"मिलन..."

अभिव्यक्ति में तुम्हारी
वो असर जीवित नहीं होगा
जब तक मैं....
कथनी के जिस्म में सांस न भर दूँ ....
मिलेंगे नहीं तुम्हे बोल के आलोक
जब तक मैं....
तुम्हारे मन कि देहरी में नहीं जलूँगी..

मेरी समाप्ति तुममे
तुम्हारे अस्तित्व का अंत कर देगा
मुझे सम्भालो तुम आदर सहित
क्यूंकि मैं सबके पास नहीं
केवल तुम तक चल के आई हूँ
तुम्हारा सोच मुझे निखारेगा
मेरा निखार तुम्हे चमका देगा
कलम से निकला तीर हूँ
भेदूंगी ह्रदय समय-समय पर
आवाज़ का आकर्षण हूँ
खींच लूंगी सबको...

किसी छल-कपट के बिना
अपनी निष्ठां और सत्य के दम पर !!!!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

"बहने"

यूँ तो नहीं हैं
मेरे शब्दकोष में वो शब्द
जिससे उजागर कर सकूँ मैं
महता उनकी मेरे संसार में...
और चित्रकारता में निपुर्ण भी नहीं
कि रंगो को भर के दर्शा सकूँ
कितना गूढ़ा हैं उनके रंगो का असर
जीवन के ब्लैक-इन-वाइट तस्वीर पर 
कहूँ उनको कि वो हैं ऐसे जैसे
सूरज की पहली किरण की निर्मल रोशनी
गर्म आलम के बीच बहती सर्द मीठी हवाएं
मरुस्थल के रेत में जन्मा कोई विशाल सागर
श्याह आशाओ के आसमान पर
बिखरा हुआ सतरंगी इन्द्रधनुष
जलती धरती पे वर्षा की चंचल बूंदे 
गहराइयो में बीच अदृश्य गगनचुंभी मीनार
जिनके कांधो पर बैठ
पूरी कायनात अपने से नीचे दिखाई देती हैं
समुन्दर की लहरो को लपेटे
नीला सिल्की आँचल हो मानो
पतझड़ों में भी खिलखिलाती फूलो सी
बंज़र ज़मीन में भी हरियाई पौधे सी लहराती
और क्या कहूँ उनकी तारीफ में कि
कैसी हैं मेरी बहने ?
थकी धूप में खूबसूरत छाँव सी...
सबसे नायाब दुवाओं सी
महकती..घर..आँगन..और गाँव सी
ऐसी हैं मेरी बहने !!

रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

Sunday, June 1, 2014

बाँटा सा क्यूँ हूँ ??

यहाँ महफ़िल वहां पर शोर मगर तनहा सा क्यूँ हूँ ?
वजह तू है..मैं हूँ या फिर कुछ और इतना खफा सा क्यूँ हूँ ?

नहीं आया नज़र मैं खुदको भी इतना धुंधला सा क्यूँ हूँ ?
तेरा चेहरा तेरी तस्वीर तेरा आईना सा क्यूँ हूँ ?

हज़ारो किस्से हैं सीने में मगर बेजुबां सा क्यूँ हूँ
तुझसे रिश्ता न तुझसे वाकिफ फिर तुझमे खोया सा क्यूँ हूँ ?

बेखुदी में करे होश में तोड़े वही वादा सा क्यूँ हूँ ?
कोई पढ़े कोई फाड़े ऐसा कायदा सा क्यूँ हूँ ?

बिन सरगम बिना एहसास कोई नगमा सा क्यूँ हूँ ?
अपनी चाहत और ख्वाबो से इतना जुदा सा क्यूँ हूँ ?

तू नही मेरा गर जो 'श्लोक' फिर मैं आधा सा क्यूँ हूँ ?
तुझी में हसीन दुनियाँ अक्सर पाता सा क्यूँ हूँ ?

अगर मैं हूँ मुकम्मल तो बता मुझको 'श्लोक'
मैं कुछ मुझमे.. कुछ तुझमे.... बाँटा सा क्यूँ हूँ ?

ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'