जान छूट गयी है पत्थर की मीनारों में
आगे बढ़ चली 'श्लोक' वक़्त की धारो में
लौट न पाउंगी मैं अब उन गलियारों में
टाँग देना तस्वीर मेरी रंगीन दीवारो में
मौसम ने मेरे हक़ में पतझड़ को सौपा है
अब सूखे पत्ते सा जलती हूँ अंगारो में
हसरत मेरी थी सूरज-चाँद सी चमकू
आसमान से टूटती हूँ हर रोज़ सितारों में
बड़ी मुश्किल से उल्फत का दरिया पार होती हूँ
आकर डूब जाती हूँ फिर ग़मगीन किनारो पे
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
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