Saturday, June 7, 2014

"विरह का भार"

  
 

विरह का भार
कभी कभी अपने कांधो पर
ढोते हुए झुक जाती है
कमर मेरी हिम्मत कि.....
तुम्हारी प्रतीक्षा में
टूटी हुई उम्मीद कि माटी
आँखों में झुंक कर
मोतियाबिन का पर्दा डाल देती है
आंसुओ से सिंचता हुआ जख्म
और हरा होता जाता है
जिंदगी कि पेंसिल
तुम्हारे लिए खत लिखते हुए
घिसती चली जा रही है
किन्तु तुम्हारे पते के अभाव में
संजोते जा रही हूँ ये खत दराजों में
जब संजोग का डांकिया मिलेगा
तो वो सारे रास्ते
खुद बा खुद खुल जाएंगे
जो अब तक तलाश कि
मानचित्र पर बना ही नहीं है
तो आकर पढ़ लेना
जो कब से मैं तुम्हे
कहने कि कोशिश कर रही हूँ
किन्तु बीच में विरह कि दीवार
मेरी आवाज़......
तुम तक जाने से रोके हुए हैं !!!

रचनाकार : परी ऍम श्लोक
 

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