Thursday, June 26, 2014

सच बोलने कि आदतन बीमार रही हूँ...!!

दिन-दिन पहर-पहर मैं हार रही हूँ
मुझमें तू जिन्दा है तुझे मार रही हूँ

हसरत किसे हैं यहाँ पर जनाब जीने कि
मैं सज़ा कि चंद घड़ियां गुज़ार रही हूँ

खुद को छोड़ कर किसी गुमनाम गली में
आज होश आया है तो मुझको पुकार रही हूँ

ख्वाब चढ़ बैठे थे जो भरम के शज़र पे
नीचे उतारने को उनको पुचकार रही हूँ

शातिर ज़माने में भी इंसान मिलेगा मुझको
ताउम्र इसी ग़लतफ़हमी कि शिकार रही हूँ

मिलता नहीं इन नज़रो से 'श्लोक' अपना नजरिया
ये झूठ के साथी और
मैं सच बोलने कि आदतन बीमार रही हूँ


______परी ऍम 'श्लोक'

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