Friday, June 27, 2014

मेरे मुकद्दर की बेबसी नहीं तो क्या है....!!

जाने किस बात पे औरत बनी हूँ मैं....
ये मेरे मुकद्दर की बेबसी नहीं तो क्या है...
किश्तों में सामान सी कितनी बटी हूँ मैं...
ये मेरे वज़ूद की बेइज्जती नहीं तो क्या है...

हर कोई झुनझुना सा बजाता रहा मुझको..
ये मेरे सहन की हथकड़ी नहीं तो क्या हैं..
मेरे तन के कपड़ो को फाड़ा गया..
अस्मत को सरेआम उछाला गया...
ये इस समाज की दरिंदगी नहीं तो क्या है...

बेचा गया मुझे तो कंही खरीदा गया मुझे.
इंसानो के सोच की गन्दगी नहीं तो क्या है
जिसने भी कभी चाहा बस देह की फरमाइश कि
भावनाओ के नाम पे सौदागरी नहीं तो क्या है

करू इंकार तो तेज़ाब से जलाओ मुझे
कभी ब्लेड तो कभी चाक़ू से काट जाओ मुझे
मर्द जात की आखिर ये बुजदिली नहीं तो क्या है

पूजा जाता था जिसे आज वो बाज़ारो में मिलती है
वक़्त की आँखों की बदरंगी नहीं तो क्या हैं
सब गूंगे है.... बहरे हैं.... होकर भी मुकम्मल
लोगो के ईमान की तंगी नहीं तो क्या है

जाता हुआ वो शक्स मेरे कानो में जहर घोल गया
सुन के भी खामोश होना मेरी सितमगरी नहीं तो क्या है
हमसे नहीं संभाला गया शायद ही खुदको
हमारे हुंकार की तलवार ये जंगी नहीं तो क्या है


______परी ऍम श्लोक
 

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