Sunday, June 29, 2014

"बचपन कि गली से...जवानी के दहलीज़ तक"

न जाने कहाँ खो गयी है
अकारण ही आ जाने वाली
होंठो कि वो मासूम खिलखलाहट
जिसमे घंटो लोटपोट रहती थी मैं....
आज उस हसी को वजहों के बीच भी
टटोलना मुश्किल हो गया है....

जीवन कि आपाधापी से परे
बेफिक्र थी किंतनी....
प्यारे थे मुझे मिट्ठी के खिलौने भी
किन्तु आज अपने हित में टूट ही जाते हैं
शीशे से गढ़े जाने कितने
भावनाओ और उम्मीदों के महल...

मुट्ठियों में थे मेरे सपने
जिसे पूरा करने को खड़े थे मेरे अपने
किन्तु आज कदम-कदम पे बिखरे मिलते हैं
अनमोल सपनो के चिथड़े
समझौते से फांकती जाती हूँ आह अपनी
जिद्द के आगे सबको झुका देने वाली 
आज अपने आंसुओ को दफन कर लेती हूँ 
ये सोच कर कि मुझे कोई नहीं समझता..

पर सच तो ये हैं
बचपन कि गली से
जवानी कि दहलीज़ तक आते-आते
सब जुदा सा हो गया.....
बढ़ते उम्र ने मेरी मांगो को ही तब्दील कर दिया
जिसे पूरा करना किसी के बस में नहीं
सब रिश्ते वैसे ही हैं...
कुछ नए रिश्तो में मैं ही बंध गयी हूँ
किसी का दोष देना सही नहीं
क्यूंकि.....मैं ही बदल गयी हूँ !!!


________परी ऍम 'श्लोक'

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