समय सामने से सरपट दौड़ गया
बिना मुड़े बगैर मलाल के..
बिना मुड़े बगैर मलाल के..
कई मौसम आये गए
सावन कितनी बार झूला झूल गए
कई बार घटा छायी
कोयल कूके..मोर नाचे
रिम-झिम बरसे बादल
शरद में चांदनी कितनो बार उतरी
नदी की लहरो पे नहाने
जाने किसे लुभाने के बहाने..
सावन कितनी बार झूला झूल गए
कई बार घटा छायी
कोयल कूके..मोर नाचे
रिम-झिम बरसे बादल
शरद में चांदनी कितनो बार उतरी
नदी की लहरो पे नहाने
जाने किसे लुभाने के बहाने..
किन्तु
मैं हर आनंद का परित्याग कर
मन की क्यारियों में
विश्वास का बीज डाले...
आशाओ की रोशनी को आँखों में भर
उसी जज़ीरे पर कर रही हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा......
मैं हर आनंद का परित्याग कर
मन की क्यारियों में
विश्वास का बीज डाले...
आशाओ की रोशनी को आँखों में भर
उसी जज़ीरे पर कर रही हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा......
नहीं निकल पायी मैं आज भी
हर तरफ से मुझे घेरे हुए
संवेदना के गहरे हरे समंदर के पार
हर तरफ से मुझे घेरे हुए
संवेदना के गहरे हरे समंदर के पार
नहीं रोप पायी मैं....
भावुक नम मिटटी में
किसी और के नाम का पौधा
तुम्हे ही टटोलती रही
बढ़ नहीं पायी मैं इक कदम भी आगे
क्यूंकि शायद ! समय नहीं थी मैं.......!!
रचनाकार : परी ऍम श्लोक
khoobsurat
ReplyDeleteवाह ! समर्पण की पराकाष्ठा ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDelete==दर्द का तराना==
शायर नहीं मैं गीत का पर कपते अधरों में प्रेम रस लेकर गीत गाने चल दिया।
उसने ली अंगड़ाई अधखुली नींद में देह गंध मदहोश वास प्रीत गाने चल दिया॥
आंधी और विकास श्रृंगार में उल्लास प्यासा मन अकेला अलवेला रम्यणीय आँगन?
उलझे बालों की लटें चाहत चातक सी आश रम्य अंचल आंगन गीत ले चल दिया॥
रिमझिम-रिमझिम रिझाती बूदें बरसात लगा मानो मधुमास मिलने की आस दिया।
तने हरे दरख्त के झरते पसीनों की बूंदें लजावती बेल सुखद नागपाश ने पास दिया॥
अमावश्या की अंधेरी रात पर गगन में रोशनी की बरसात,मंगल सौगात लिए अनोखे पन में चल दिया।
रहा सावन मास होवे ना प्रभात चादनी होवे ना उदाश बैरी होना ना आकाश यौवन में प्रकाश चल दिया॥
गगन में बिजुली की कौंध इधर स्वर्णिम आभा का प्रकाश करें ना दिल उदास प्यार पलकों पर चल दिया।
उधर बिरह बेदना से ब्याकुल नि:शब्द सा बिचलित होता मन पायलों का रुन झुन मिलन को चल दिया॥
मिलन का मौन निमंत्रण दिल में होती धड़कन विछुर कर फिर मिलन का भाव सजोए मन में चल दिया।
बिरह की रात काली चाँदनी प्रकाश, रसीला नाचता मयूरिन बिन मयूर खिला सावन मिला मै चल दिया॥
जलती हुई सूखी लकड़ी सी बिरहन, सर्द हवा में भीगे मेरा तन मन, जज्बात का आया मौसम चल दिया।
गंध हीन माटी को मंहकाता, सावन का गीत सुनाता,बेहाल हुआ 'मंगल'गीत सुनाता गुनगुनाता चल दिया॥
फिर मूक अधरों पर कंपन बजे हाथों के कंगन हौले-हौले दौड़ा मन स्पंदन की आश मन ही मन चल दिया।
मिलन का मौन समर्पण तूफानो सी ज्वाला मन झिम-झिम बरसता सावन तन घन प्यास लेकर चल दिया॥