Tuesday, June 3, 2014

"सिर्फ कल्पनाओ में जिन्दा है मेरी आज़ादियाँ"

कल्पनाओ की कलम में 
आशाओ की श्याही भर
उंकेर रही हूँ आज पन्नो पर
इक नवीन संसार.....
और चाहती हूँ 
हकीकत को भनक भी न हो की मैं
अलग सी खोज करती हुई
मनचाही गलियो में चली आई हूँ ...

हाँ सच! मैं यहाँ आराम में हूँ
अपनी बाहें फैलाएं हुए
हर ओर से आज़ादियो को
अपनी तरफ आता हुआ देख रही हूँ
यहाँ का हर मौसम सुहावना है
इस बस्ती के पुरुषो के
नज़र में बहुत अदब है
वो अपनी आँखे मेरे सीने में नहीं गाड़ते
बोल में प्यार और सम्मान फूटता है
मेरी दशा यहाँ सामान जैसे नहीं
यहाँ बेटियो को पूजा तो नहीं जाता
मगर उनके पैरो में बेड़ियां भी नहीं है
उन्हें बोझ नहीं समझा जाता
और वो अश्लीश शब्द
जो मन का गला घोटते हैं
यहाँ कभी सुनाई नहीं देती  
राते मेरे लिए चिंता का विषय नहीं
बल्कि सुनहरे सपने सजाने का
माध्यम बन गया है
दादी जिस राजकुमार की कहानियाँ
हमेशा सुनाया करती हैं 
मुझे लगता है वो यहीं मिलेगा....

हकीकत को कहो अब की मैं
उसके साथ रिश्ता तोड़ रही हूँ
मेरा आँचल खींच के न बुलाये मुझे
नहीं रहना मुझे ऐसे स्थान पे
जहाँ होते हैं
कभी दिल्ली तो कभी बदायूं
तो कई ऐसे अनगिनत कांड
जिसके इतिहासिक ब्यौरे में
मेरी उम्र घिस जायेगी.....
कलम थक के चुरखुना हो जाएगी.....
स्याही सूख जायेगी....
किन्तु ब्यौरा ख़त्म नहीं होगा !!!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'

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