जिंदगी कि चाह से बहुत दूर निकल आई हूँ
तोड़ के हर कसमे और वादे निकल आई हूँ
हूँ तो इसी ज़मीन और आस्मां के बीच टंगी
हाँ ! तेरे शहर से ज़रूर निकल आई हूँ
हसूँ न तो क्या करम करूँ अपने हालात पे
मल्लिका कि शक्ल में फ़कीर निकल आई हूँ
तुझसे जुड़ी हुई हूँ जाने अब भी कैसे मैं
तोड़ के तो हर इक ज़ंज़ीर निकल आई हूँ
उल्फत के राहो में मिले हैं जो भी जख्म मुझे
ले कर तमाम दर्द का जागीर निकल आई हूँ
छोड़ कर दिल अपना तेरे ही पास कहीं
उठा कर बस इक तेरी तस्वीर निकल आई हूँ
________परी ऍम 'श्लोक'
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