प्रेम! हाँ, यही वो शब्द है
किस्से-कहानियो में जब भी सुनती हूँ
बहुत सम्मान के योग्य
मालूम पड़ता है तब
परन्तु क्या ये वही है भाव है?
जो मिलता है आज-कल
इंसानी मंडियो में धड़ल्ले से
किन्तु बिलकुल अधूरा सा
कहूं तो अंश मात्र ही..
लिबड़ा हुआ अनगिनत मंशाओं से
प्राप्ति के इच्छाओ से गंधाया सा
लच्छेदार बातो में उलझा
गिरगिट कि तरह पहाड़ पर चढ़ा हुआ
ऐयाशी कि चक्की में पिसता हुआ
इंसान के द्वारा तैयार तालिका
बन गया है इसका आधार
ये अनुभूति पनपता है तेज़ी से
किन्तु हो गया है बहुत ही कम उम्री
दोष-निर्दोष कि अदालती कारवाही में
फस के रह जाता है इक दिन
कटघरे में खड़े होते ही
बदल जाता है इसका स्वरुप भी
फिर तेज़ाब बन जाता है ये एहसास
घृणा का धारधार हथियार बन जाता है
बदनामियों के जंगल में गुम हो जाता है
घड़ल्ले से आया प्रेम...
फूंक से कण कि तरह उड़ जाता है
कलयुगी प्रेम का लाल से काला रंग
कुछ ही समय के अंतराल में बदलता है
जाने ये प्रेम है
या
फिर कोई कोरी कल्पना मेरी
जिसका हकीकत से शायद! कोई वास्ता ही नहीं!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 20/01/2014
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