Wednesday, January 8, 2014

"जब लिखी मैंने पहली कविता"

ख़त्म ही नहीं हो रहा था
जैसे सागर सा विशाल स्वरुप ले लिया हो
सूझ ने मस्तिष्क के निम्न पटल पर
बादल सा छटता
तो कभी फिर घेर लेता
इक थक्का सा जमता जा रहा था
अनमानी पीड़ा गुमच के गोलियाती जा रही थी
जो ज़रा सी आंच से कभी भी फट जाती
वो छटपटाती हुई रात
न रुक रही थी, न ही बढ़ रही थी
कुछ विषय तो इतने पैने होते जा रहे थे
कि खोदने लगते नींदो में भी...
निसंदेह असहनीय होता जा रही थी
स्थिति धीरे-धीरे
किसको शामिल करती मैं
इस उठक-पटक में
सब व्यस्तता कि चरम सीमा पर थे
कोई सुन भी लेता तो भी अनसुना कर
हास्य के रंगमंच पर
समूहो के लिए प्रकरण
प्रस्तुत नहीं करना था मुझे
मेरे सामने इस विवशता का
और कोई तोड़ नहीं बचा था
सिवाय उन्हें पृष्ठों पर बो देने के
शांति कि खाद डाल थपथपा देने के
मैंने बिलकुल यही किया 
और लिख डाली अपनी पहली कविता
जिसका शीर्षक आज भी खोज रहा है
श्रृंगार किये वर्णो के पास अपना नाम
मेरी उस पल कि व्याकुलता से अनजान हो !!!


रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 08/01/2014

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