आबनूसी उदासियाँ है
पसरी हुई
गाढ़े बेताब से पहर में..
अटकती हुई साँसे
बेलगाम घुटन में..
तुम्हे तलाशो तो केवल
तन्हाई मिलती है
कुछ सोचूं तो याद के अतिरिक्त
कुछ नहीं आवारा मस्तिष्क के जंगल में
आहट डराती हुई सर से निकल जाती है
दीवार पर लटकी
तुम्हारी तस्वीर आहों से हिलती हैं
बोलती कुछ भी नहीं परन्तु...
कैसी विडंबना है ये
मिटाते-मिटाते इक वक़्त के बाद भी
यूँ के यूँ हो तुम अंतरंग में
नाच रही है जिंदगी
मिथ्याभास के डफली पर...
ऐसे में क्या लिखूं मैं??
अपनी बौराई कलम से
सिवाय बेतहाशा दर्द के !!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
दर्द को शब्द देना आसान नहीं होता।
ReplyDeleteसादर