कुछ शब्द हैं मन के कोरो में
कहूँ तो किसको कहूँ ?
कौन हैं ?
जो समझ पायेगा मेरी व्यथा
आंसू छलक गए
ये प्रश्न सामने पड़ते ही
और मैं न चाह कर भी
डूब गया पीड़ा के छोरो में
अब लगातार उसपे अवसाद
जमता ही जा रहा है
मैं हलुकाता कैसे भला ?
ये दाब तो बढ़ता ही जा रहा है
अब न मुख खोल पा रहा हूँ
मुझे इन तहो से निकालो
न ही ये बोल पा रहा हूँ
सब ठन्डे पड़े हैं अपने हित में
उबाल आज किसी में नहीं
कहूँ तो किससे कहूँ ?
उठो चलो सोचो उनके लिए
जो बेचारे हैं
मिला नहीं ढूंढे से भी
ये समझ माटी के गोलों में
जाकर फिर ठहर गयी ये बाते
जहन के गुमनाम पोरो में
मैं देख सका न प्रेम-त्याग
कभी औरो में
किससे साँझा करूँ
जो शब्द कुलबुला रहे हैं
आज भी मेरे
आकुल मन के कोरो में !!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
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