हसीं लम्हों की अनकही सी दास्तान
अपना चेहरा आहिस्ता से बदल रहा था
मुझे लगा की सुबह चल के आई है
रोशनी की सूरत में मगर सूरज जल रहा था
उसकी आँखों में इक प्यास अलग सी थी
जो मेरे दिल पे हुकूमत कर रहा था
अब तक मैं बेखबर रहा इससे
कोई तो आग थी जिसमे वो पिघल रहा था
मैंने भी कहाँ कोई दर छोड़ी
हर जगह उसके लिए ही दुआ कर रहा था
मैंने उसके ख्वाइशों को रास्ता दिया
खुद सारे अरमां अपने कुचल रहा था
मैं पागल गम से हाथ मिला लिया
और समझने लगा की मैं संभल रहा था
मैंने अपनी मुट्ठियाँ तो नहीं खोली
मगर वो रेत सा फिसल रहा है
मैं बेबस था कैसे रोकता उसे
वो झोंका मुझे छूकर निकल रहा था
मैंने तो बेवजह ही ख्वाब देखे
मैं वो रहा ही नहीं जो कल रहा था
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
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