वक़्त
के पास
हर
मर्ज कि दवा है
फिर
वक़्त कि ये धोखेबाज़ी
आखिर
मुझसे ही क्यूँ ?
बीतते
लम्हों ने
सिर्फ
मेरे जख्मों को गलाया है
हर
दिन उम्मीद कि लड़ी से
इक
मोती टूट कर गिर जाता
सुबह
कि किरणे
तलवार
कि तरह आती रही
और
रात
भर बच्चे कि तरह
कलेजे
से लगाये हुए
सपने
कि हत्या कर जाती रही
हर
शब मेरा विश्वास
दम
तोड़ता रहा
लेकिन
फिर
भी मैंने
हार
स्वीकार नहीं कि
बेशर्म
होकर
अपनी
साँसों के चरखे पर
कातती
रही
इंतज़ार
कि शाल
कि
शायद !
कभी
जाग जाए तुममे साहस
लौट
कर आने कि
कभी
तो तुम अपनी हथेली बढ़ा कर
मेरे
सामने झुक कर
प्यार
का दम भरके
मेरा
हाथ मांगोगे
बेशक
ये
जानते हुए भी कि
मरा
हुआ सम्मान और
इंसान
दोनों ही जिन्दा नहीं हुआ करते
फिर
कैसे पा लेती वापस मैं
वो
जो खो चुकी थी
खता...
मेरी ही थी
अरमानो
का बीज डालने से पहले
मैंने
ही नहीं सोचा
कि
इसका हश्र इक वज़ूद होगा
या
फिर यह नीस्त-ओ-नाबूद होगा !!
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© परी ऍम. 'श्लोक'
7th Oct..2014
सुंदर । थोड़ा फोंट बड़ा रखेंगी तो कैसा रहेगा?
ReplyDeleteखता... मेरी ही थी
ReplyDeleteअरमानो का बीज डालने से पहले
मैंने ही नहीं सोचा
कि इसका हश्र इक वज़ूद होगा
या फिर यह नीस्त-ओ-नाबूद होगा !!
बहुत बढ़िया ! अक्सर मन में उठने वाले ऐसे सवाल ताउम्र अनुत्तरित ही रह जाते हैं ! सुन्दर रचना !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वर्णन एक व्यथा का! दुख की गहराई बिलकुल दिल तक पहुँच जाती है! आप का अभिनन्दन
ReplyDeleteवक़्त हर ज़ख्म की दवा रखता है
ReplyDeleteपर वक़्त से पहले कोई मर्ज़ ठीक होता भी नहीं
सुन्दर प्रस्तुति
आभार