Sunday, October 26, 2014

अपनी पीड़ा किसे सुनाऊँ ....


बदलाव कि शुरुआत
अपने आप से होती है
तो मैंने स्वयं को बदलने के
बड़े अथक प्रयास से
आख़िरकार इस सीढ़ी को
चढ़ कर पार कर लिया
किन्तु दूसरी सीढ़ी पर
जाने कौन कंचे उड़ेल आया
बदलाव कि इस सीढ़ी पर मैं
चढ़ती रही और गिरती रही
मेरे अपने मुझे
कल्पनाओ कि दुनियाँ का
मालिक बताते हैं
जिसका वास्तविकता से
कोई सरोकार नहीं
पता नहीं
मैंने हकीकत कि
काली ज़मीन नहीं देखी
या सर के ऊपर
लाल आसमान नहीं देखा
मेरे बदलाव के ख्याली पुलाव में
ढेर सारी मिर्च झोंक कर
उसे मीठे सत्य में
तब्दील होने से पहले
सारा स्वाद कड़वा कर देते हैं
और सारी उम्मीदो को
भट्टी में डाल कर
ख़ाक कर देते हैं
मैं लपक के तीसरी
सीढ़ी पर आती हूँ
जनता पर छा जाती हूँ
उनके हिसाब से बोलूं तो
वाह-वाह कहते हैं
ज्ञान इन्हे भी दूँ तो
गुस्सा जातें हैं
उनके बीच से
दबी हुई आवाज़ आती है
पहले घर सुधार
दुनियाँ बाद में देखना
अब इन्हे कैसे बताऊँ
घर कि मुर्गी दाल बराबर
तेरे घर में भी यही हिसाब-किताब
मेरे घर में भी कुछ ऐसा है
अब बताओ !
कहाँ जाऊं ?
अपनी पीड़ा किसे बताऊँ
कलम बोला
हाथ पकड़ के
कवि का धर्म बस
लिखती जाऊँ !!

_______________________
© परी ऍम. "श्लोक"

8 comments:

  1. बदलाव इतना धीमा आता है की खुद को भी पतानाही चल पाता ... पर अपना धर्म निभाते रहना ही अच्छा होता है ...

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  2. Digamber Sir ki baat se poorntya sahmat hoon

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  3. अपने सपनों को मरोड़ कर दूर न फेंकना , न खुला रख सको तो दिल में तहे रखना।

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  4. Thoughtful representation of thoughts churning within... very nice indeed

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  5. एक दिन....बादल छंट जाते हैं और रौशनी की किरणे लौट आती हैं ...दिल से लिखी प्रभावी रचना

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  6. मैंने हकीकत कि
    काली ज़मीन नहीं देखी
    या सर के ऊपर
    लाल आसमान नहीं देखा
    मेरे बदलाव के ख्याली पुलाव में
    ढेर सारी मिर्च झोंक कर
    उसे मीठे सत्य में
    तब्दील होने से पहले
    सारा स्वाद कड़वा कर देते हैं
    भावनाओं से ओतप्रोत सार्थक रचना

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  7. यही सत्य है ! निस्पृह भाव से अपना कर्म करते जाना चाहिए ! परिवर्तन स्वयमेव होता ही जाएगा क्योंकि यही प्रकृति का नियम है !

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