सरहदें
होंगी तेरे लिए
और
तू सरहदो का पहरेदार
शायद
! कि
अभी
तू मन के पाले नहीं पड़ा
किसी
अहसास ने तुझको
शिकंजे
में नही जकड़ा
मन
भी न पागल पंछी है
नापता
नहीं ज़मीं कभी
पूरा
परवाज़ उसका है
वो
हर ओर जाता है
कहीं कुछ छोड़ आता है
तो
कुछ बटोर लाता है
फिर
अपना घर बनाताहै
जिसे
मौसम ढाहाता है
ये
पंछी जानता है
हश्र
अपनी मनमौजी का
लेकिन
फिर भी किसी
अंजाम
से ये नहीं डरता
जेहन
कितना भी पढ़ाये पाठ
मगर
ये नहीं पढ़ता
बड़ा
अनपढ़ अनाड़ी है
बेशक
काट दो पर
लड़खड़ा
के ज़मीं पर गिर जाए
मगर
मुमकिन कहाँ कि
इसकी
बुलंदी को मिटाया जाए?
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परी ऍम. 'श्लोक'
बहुत सुन्दर भाव... मन की उड़ान की सीमा क्यों
ReplyDeleteबहुत ही सुंदरता से भावों का प्रवाह बनाया है आपने
ReplyDeleteमन पंछी भी तो ऐसा ही होता है ... कहाँ किसकी मानता है ...
ReplyDeleteबहुत खूब ! पंछी बावरा होता ही इतना पागल है ! यह कोई सीमा नहीं जानता किसी बंधन को नहीं पहचानता ! बहुत सुन्दर रचना !
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ReplyDeleteसुन्दर शब्द