मैं
जब भी
दुनियाँ
के अजब दस्तूर को
अंजाम
देते हुए
कहीं दूर किसी
कहीं दूर किसी
अज़नबी
जज़ीरे को अपना समझ
वहाँ
कि ऊँचाइओ पर बैठ
किसी
की आँखों से
हसीन
मंज़र को देखने की सोचती हूँ
तब
बाबा की विवश पनीली आँखें
मेरे
सामने घूमने लगती हैं
कम
उम्र में चढ़ता बुढ़ापा
चिन्ताओ
की अनगिनत झुर्रियाँ
जिसके
माथे की हर लकीर कहती है
कि
वो इक बेटी के पिता है
बेशक
उन्हें व्यथित करे या न करे
किन्तु
अफ़सोस का बीज
मेरे
भीतर अवश्य डाल जाती हैं
कि
मैं इक बेटी हूँ
और
फिर मेरी हर आरज़ू
गहरे
संताप में परिवर्तित हो जाती हैं
लोग
तो कहते हैं
बेटियाँ..
पराया धन होती है
अपने
भाग्य का लाती है
और
ले जाती हैं
समाज
का यह रवैया
कितना
पराया कर देता है हमें
क्या
है भाग्य का लेखा ?
कौन
सा देश ?
कैसे
लोगो से है वास्ता ?
वहाँ
कोई अपना समझें या
समझौते
का गढ़ बन जाऊँगी मैं
ये
उथल-पुथल तो
मेरे
मन में चल ही रही थी
कि
अचानक
माँ
के गालो से ढुलकता हुआ आँसू
मेरे
गालो पर गिर जाता है
और
वेदना से भीग जाती हूँ मैं
सच
.....
इससे
पहले तो कभी नहीं
आज
पहली बार बहुत बुरा लगा
अपनी
बेटी बनकर जन्म लेने पर
मेरा
गुमान कहीं कन्नी काट गया
सोचती
हूँ कि
काश
! अपने माता-पिता की
सेवा
का सौभाग्य प्राप्त कर पाती
काश
! मैं उनके
बुढ़ापे का सहारा होती
काश
! कि मैं इक बेटा होती !!!!
©
परी ऍम. 'श्लोक'
सोचती हूँ कि
ReplyDeleteकाश ! अपने माता-पिता की
सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर पाती
काश ! मैं उनके बुढ़ापे का सहारा होती
काश ! कि मैं इक बेटा होती !!!!
आपके शब्दों की तारीफ करूँगा किन्तु ऐसा नही है की एक बेटा बनकर ही माँ बाप की सेवा करी जा सकती है !
Aapki baat se sahmt hun ki keval bete hi nhi betiyaan bhi maa-pita ki sewa kar sakti hain... Kintu aksar nirbhar karta hai ladki ka agla ghar kaisa hai... Kyunki apne ghar sansaar ke chakr me fas kar rah jaate hain hum.. Fir maata-pita bhi yahi kahte hain apne ghar me sukhi raho bas... Hum apni jindagi dekh lenge... Ladko ko adhikaar rahta hai jo bhi wo karte hain isliye :)
ReplyDeleteबेटी पराया नहीं बल्कि असली धन होती हैं
ReplyDeleteजो दूर रहकर भी हर सुख दुःख में माता पिता के लिए मंगलकामना करती हैं
बहुत सुंदर मुझे भी लगता है कभी कभी काश मैं एक बेटी होता :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार- 31/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 42 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
ये व्यथा एक बड़ी सामजिक सच्चाई है
ReplyDeleteकी आज भी अपनी बेटियां तक पराई हैं
लक्ष्मी साथ लाने पर भी समझते नहीं लोग
के घर में उनके स्वयं लक्ष्मी चल के आई हैं
इतना ही समझे ये जमाना काफी होगा
जो आज की बेटी है कल किसी की माई है
आप की लेखनी का इतना असर होता है की कुछ लिखने का मन होता है
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
मुबारकबाद
आप बहुत अच्छा लिखती हैं लेकिन आज मैं आपसे सहमत नहीं हूँ ! बेटियाँ भी इतनी समर्थ और सक्षम स्वयं को बना सकती हैं कि अपने माता पिता की सेवा का दायित्व उठा सकें ! आपकी भावनाओं का मैं सम्मान करती हूँ ! आप ऐसा सोचती हैं ऐसा चाहती हैं तो ज़रूर कर भी पाएंगी !
ReplyDeleteAap sabhi ke tippani ka swagaat va aabhar... Sadhana ji aapki asahmati bhi hame kabool hai aap aati hain to mera din ban jata hai :) :) iss sneh va aashirwad ka behad aadar karti hun.. Aur maanti hun ek aurat bebas nhi wo kuch b kar sakti hai.. Aur main to pakka sb namumkin ko mumkin kar sakti hun... Itna sneh jo mil raha hai :) :)
ReplyDeleteShiv raj ji aapne hame iss kabil smjha hum aabhaari hain.. Koshish karenge yah kabiliyat barkaraar rakh sakein aur nikhar sakein.. Issi koshish ke saaath subh ratri !!
ReplyDeleteunnhuu....bhavpurn prntu betiyan to betiyan hoti hai....or betiyon ki..jgh chhinna klpnapurn
ReplyDeleteगहरे भाव आज के समाज की दशा बयां करते हुए... समाज को बदलने में देर हो सकती है मगर बदलेगा जरूर नयी पीढ़ी के साथ
ReplyDelete