उफान है जो अपनी
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
सीमाओ से भटक गया है
सतह कि रेत इसमें घुल गयी
चट्टान भी बह चला
मिश्रित होता रहा कंकर-पाथर
जज्बात का इक परत नीला था
जैसे जहर मल के धोया हो किसी ने
खला तो बहुत सोचा सोख लूँ
पर औकात थी तिनके सी
आहिस्ता-आहिस्ता खलल
गुमेच देती है निचोड़ देती है
मैं काबिल बनती इक पल
अगले पल बेकाबू हो जाती
वो जोश में था या गुस्साया था
उछलता, गिरता, सम्भलता
सब घसीटता हुआ बढ़ता रहा
मैं भी आयी तिनके सी
पढ़ना चाहती थी उसे
न वो बोला न मैं सुन सकी....
खामोशियाँ सवाल बनाती गयी
और मैं डूबती चली गयी ..
कभी न खतम होने वाले कशमकश में!!
27/12/2013… 2:32 AM
कल 27/अगस्त/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
बहुत बढ़िया
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