लगा लो पहरे तुम फिर हम भी देखते हैं
ये महक इश्क़ कि कौन सी दिवार रोक पाती है
ये हम है या हमारी पाक़ शिद्दत तुमको पाने कि
हर राह खींच कर तुम्हारे शहर तक ले जाती है
नज़ाने क्यूँ तेरा सितम भी न मिटा पाया ये जूनून
दर्द अपने लबो से तुम्हारा नाम ग़ज़ल सा गुनगुनाती हैं
हमारे सब्र का ही तो इम्तिहान चल रहा है
हम चिराग जलाते हैं हवाए आंधियां बन जाती है....
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
ये महक इश्क़ कि कौन सी दिवार रोक पाती है
ये हम है या हमारी पाक़ शिद्दत तुमको पाने कि
हर राह खींच कर तुम्हारे शहर तक ले जाती है
नज़ाने क्यूँ तेरा सितम भी न मिटा पाया ये जूनून
दर्द अपने लबो से तुम्हारा नाम ग़ज़ल सा गुनगुनाती हैं
हमारे सब्र का ही तो इम्तिहान चल रहा है
हम चिराग जलाते हैं हवाए आंधियां बन जाती है....
ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
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