औरत हूँ मैं,, और आहत हूँ मैं!!
ये गुमान का विषय है या अपमान का
सोचा मैंने न कहूं क्या बितती है हमपर
क्या मेरे चुप रहने से वास्तविकता छिप सकती है?
क्या अश्लीश फब्तियां हवाई हो सकती हैं? जो मन में घाव न करे!
हमें सम्मान कि नज़र से क्या कभी देखा जायेगा?
राह चलते अगर हमें न छेड़ा जाए तो हम भी सांस लेने लगेंगे!
क्यूँ हमारे जीने का हक़ मारा जा रहा है?
क्यूँ खुद के अंदर घृणा पैदा कर दी गयी है कि हम स्त्री हैं?
बेटिओ को पैदा करना एक गर्व का विषय कब होगा?
जो एक औरत के लिए गुनाह है वो पुरुषो के लिए कब होगा?
क्या ये फर्क मेरी शरीर कि बनावट कि वजह से है?
तो फिर बेहतर होगा इसे छील डाला जाए,
क्या मुझे कठोर बनना होगा?
सब भाव, भावना त्याग देना होगा?
ताकि मुझपे असर न हो कुंठित मानसिकता का!
मेरा इतिहास सीता, द्रोपदी, अहल्या इन सबसे अलग कब होगा?
कब तक हम सम्भोग का पात्र बने रहेंगे?
कब तक बांसुरी कि तरह कोई भी बजायेगा?
क्या मुझे देखने से पहले मेरे विचार आंकना सही नही है?
या सीना देख कर खूबसूरती बताया जायेगा?
मेरी विद्वानता तब सिद्ध होगी जब पुरुष जो सुनना चाहे वो कहूं?
या तब जब मैं खुद कुछ कहूं और सब सुने?
हमें बराबर का हक़ केवल किताबो में क्यूँ ?
जहन में कब ये अधिकार दिया जायेगा?
मुझे पंक्ति में आगे खड़े होने का शौक नहीं,,
किन्तु इतना अधिकार अवश्य मांगती हूँ
मुझे बराबर में खड़ा होने दिया जाए और कूल्हे पे हाथ न मारा जाए
या मेरा दुपट्टा न खींचा जाए,,
गन्दी नज़र से न देखा जाए,,,
क्या इस शब्द में बदलाव कोई ला सकता है ?
कि औरत हूँ मैं,,और आहत हूँ मैं!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 30/10/2013
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