आओ मित्रो! सबको
एक कहानी सुनाऊ प्यार की,,
मादा कोयल के बदलाव की,,
हंस के अलगाव की,,
आओ मित्रो! सबको
एक कहानी सुनाऊ प्यार की,,
एक कोयल थी जंगल में,,
बैठ पेड़-पेड़ गुनगुनाती थी,
उसकी आवाज़ कि नक़ल करे कोई तो,,
आगबबूला हो जाती थी,,
उसके जैसा कोई नही,
ये कोयल को यकीन था,,
और दिल आया एक हंस पे,
ये किस्सा थोड़ा नवीन था,
हंस दूध सी सफ़ेद थी,,
कोयल का रंग जैसे अँधियारा था,
जितना कोयल को हंस अज़ीज़,,
हंस को कोयल उठाना ही प्यारा था,,
आरम्भ हुआ था जंगल में,,
प्रेम का एक युग उज्जवल,,
हवाए गीत गाती थी,,
झरने बहने लगे थे कलकल,
'कोयल' 'हंस' को सुनती थी
जो भी हंस को भाता था,
बस अगले ही पल मित्रो,
कोयल वैसी ही बन जाती थी,
धीरे-धीरे समय बीता,
अब कोयल का रूप गवाचा था,
वो उसी भाव में रंग गयी,,
जो हंस को समझ में आता था,
अब कैसे होती श्वेत कोयल?,
विचार, भाव, कर्म सब कुछ तो बदल डाला था,,
जो उसके बस में था मित्रो,
उसने बहुत प्यार से उसे संभाला था,,
एक दिन ऐसा भयानक आया,,
चारो तरफ थी जंगल में आग लगी,,
कोयल लगी ढूंढने हंस को पीड़ा लिए,,
आह! ये समस्या कैसी आन पड़ी,,
हंस मिला न कोयल को,,
फिर एक मैना कि आवाज़ सुनी,
क्या ढूंढ रही है इधर उधर,,
जा उड़ जा.. इधर है मात्र राख पड़ी,,
रोकर कोयल बोली मेरे हंस को क्या तुमने देखा?
उसके बिन जाऊं कैसे मेरा जीवन उसमे हैं मैना,
हसने लगी ज़ोर-ज़ोर से ज़मीन पर पड़ी मैना,
हंस तेरा उड़ गया था तब ही जैसे आग लगते देखा,
कोयल बोली झूठ न बोल देख तेरा अंत समय आया है,
मैना कहने लगी सच यही है 'कोयल' जो मैंने तुझे बताया है,
है मुझको मालूम कि छूट रही काया है,
मेरे लिए तो बेकार अब दुनिया कि हर माया है,
कोयल सुनते ही चीख पड़ी,
कहाँ चला गया तू प्रियतम ,,
मेरी सुध न आयी तुझको,,
जो मेरे अंत से पहले कर गया ख़तम,
आ पड़ी है एक चिंगारी मुझपे,,
अब पंख मेरे जल जायेंगे,,
रोयेंगे आप बहुत जब मेरा प्रेम न पाएंगे,,
तुम हमको पुकारते रहना फिर भी,
हम न लौट के आयेंगे,,अब हम न लौट के आयेंगे!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
एक कहानी सुनाऊ प्यार की,,
मादा कोयल के बदलाव की,,
हंस के अलगाव की,,
आओ मित्रो! सबको
एक कहानी सुनाऊ प्यार की,,
एक कोयल थी जंगल में,,
बैठ पेड़-पेड़ गुनगुनाती थी,
उसकी आवाज़ कि नक़ल करे कोई तो,,
आगबबूला हो जाती थी,,
उसके जैसा कोई नही,
ये कोयल को यकीन था,,
और दिल आया एक हंस पे,
ये किस्सा थोड़ा नवीन था,
हंस दूध सी सफ़ेद थी,,
कोयल का रंग जैसे अँधियारा था,
जितना कोयल को हंस अज़ीज़,,
हंस को कोयल उठाना ही प्यारा था,,
आरम्भ हुआ था जंगल में,,
प्रेम का एक युग उज्जवल,,
हवाए गीत गाती थी,,
झरने बहने लगे थे कलकल,
'कोयल' 'हंस' को सुनती थी
जो भी हंस को भाता था,
बस अगले ही पल मित्रो,
कोयल वैसी ही बन जाती थी,
धीरे-धीरे समय बीता,
अब कोयल का रूप गवाचा था,
वो उसी भाव में रंग गयी,,
जो हंस को समझ में आता था,
अब कैसे होती श्वेत कोयल?,
विचार, भाव, कर्म सब कुछ तो बदल डाला था,,
जो उसके बस में था मित्रो,
उसने बहुत प्यार से उसे संभाला था,,
एक दिन ऐसा भयानक आया,,
चारो तरफ थी जंगल में आग लगी,,
कोयल लगी ढूंढने हंस को पीड़ा लिए,,
आह! ये समस्या कैसी आन पड़ी,,
हंस मिला न कोयल को,,
फिर एक मैना कि आवाज़ सुनी,
क्या ढूंढ रही है इधर उधर,,
जा उड़ जा.. इधर है मात्र राख पड़ी,,
रोकर कोयल बोली मेरे हंस को क्या तुमने देखा?
उसके बिन जाऊं कैसे मेरा जीवन उसमे हैं मैना,
हसने लगी ज़ोर-ज़ोर से ज़मीन पर पड़ी मैना,
हंस तेरा उड़ गया था तब ही जैसे आग लगते देखा,
कोयल बोली झूठ न बोल देख तेरा अंत समय आया है,
मैना कहने लगी सच यही है 'कोयल' जो मैंने तुझे बताया है,
है मुझको मालूम कि छूट रही काया है,
मेरे लिए तो बेकार अब दुनिया कि हर माया है,
कोयल सुनते ही चीख पड़ी,
कहाँ चला गया तू प्रियतम ,,
मेरी सुध न आयी तुझको,,
जो मेरे अंत से पहले कर गया ख़तम,
आ पड़ी है एक चिंगारी मुझपे,,
अब पंख मेरे जल जायेंगे,,
रोयेंगे आप बहुत जब मेरा प्रेम न पाएंगे,,
तुम हमको पुकारते रहना फिर भी,
हम न लौट के आयेंगे,,अब हम न लौट के आयेंगे!!
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
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