Sunday, December 15, 2013

मेरी कलम से - परी ऍम 'श्लोक'

बहुत दिन हुए पतझड़ तेरा सितम सहते-सहते..
अब लौट जाओ तुम.. बहारे शिरकत ले आयीं हैं
27/07/2013

"दिल कि बस्ती में आ बैठा है मुल्क उस पार का पंछी,
मोहोब्बत... किसी सरहद कि मोहोताज़ नहीं होती"
22/02/2013

अंधेरो के गुम गलियो में मैं महफूज़ नहीं
पैरो कि धमक भाप लेते हैं दरिंदे
इस देश में मैं तो नहीं हूँ आज़ाद
तू ही सुना क्या मिज़ाज़ है तेरे परिंदे??
18/12/2013 

"ये व्यवस्था ले डूबेगी पूरे 'हिंदुस्तान' को,
अदल- बदल कि नीतियो पर चल रही सरकार लो,
कोई ऐसा राजनीतिक गुट नहीं जो पूरा बहुमत ले पाये,
फिर भी इच्छा नहीं होती कि छोड़ दे मैदान को"
14/12/2013

कागज़ कि कश्तियों का लगना ना पार है
शीशे के महल पर पत्थर का वार है
खौफनाक है हकीकत झूठ जाँनिसार है
कलयुग कि बस्तियों का नंगा सा प्यार है"
14/12/2013
 
जैसे पंछी का पंख होये
वैसे औरत कि अस्मिता
पंछी बिन पंख उड़ न पाये
औरत बिन मान सिकुड़ती जाए...........
07/12/2013
 
 
"नजाने कितना खाता है पश्चिमी सभ्यता का चूहा,
हर दिन तन के कपड़ो के सूत क़तर जाता है,, "
28/11/2013
 
कल मेरे ऐतबार ने सदमा दिया मुझे,,
उम्मीद ने धड़कनो कि नस काट दी,,
रिसता रहा खून लगातार आँखों से,
मैंने हाथ जोड़ जिंदगी से मौत मांग ली,,
28/11/2013
 
आग से खेलना नादानों का काम नहीं है,
चिंगारी गिरकर रेशमी दामन जला देती है,
इक रौनकी ओंदे से ज्यादा फिर कुछ नसीब नहीं होता
औरत जब जहन से खुद कि मर्यादा भुला देती है
28/11/2013
 
है तूफ़ान उठा आलम- -रंजिश जैसी है,,ये मत पूछ की आज फिजा कैसी है,,
टूट के गिर गए मेरे बगीचे के कई नाज़ुक पौधे,,,हवा जिंदगी से हुई खफा जैसी है,,,

 


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