Friday, December 13, 2013

?????अपनी संस्कृति का ये क्या हश्र हो रहा है????


अपनी संस्कृति का ये क्या हश्र हो रहा है?
हर कोई इसे रोंद के बिस्तर पर सो रहा है

मानव अधिकार के नाम पर जीते हैं फुल टू सैक्स अधिकार
शादी के बाद भी एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर में दम्पति मशगूल हो रहा है

बिक रहा है यौवन खुलेआम पैसो कि खनक पर
अस्मिता लूटाने का बिज़नस यहाँ भरपूर हो रहा है,

बीमारियो कि मार्किट लगा दी है गली-गली...
भविष्य के लिए ये तो गुनाह-ए-अजीम हो रहा है

क्यूँ ये नंगाइयां आ गयी है मुल्क में
ये लत तो जैसे नशा-ए-अफीम हो रहा है

क्यूँ छोड़ दिया दामन हमने अपनी सभ्यता का
सोच मानो सब गाँव- गली का बिलायत और रंगून हो रहा है,

कौन सा चेहरा उभर के सामने आया रिश्तो का
वफाओ का वज़ूद बस खून खून हो रहा है


ग़ज़लकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 13/12/2013

 

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