नवीन एहसास में लिप्त हो चली थी मटमैली वस्त्र पहने परिधि,,
एक भावना जो स्वच्छ, उत्तम और सम्पूर्णता का आभास करवाता "शुद्ध प्रेम"
कीचड़ से सनी,,भीडे सकिस्त अंधियारे से बिलख के निकलती अतीत की 'परिधि'
पश्चाताप करती, गिरती, उठती, टूटती, चलती, बेहाल कदमो से परिधि किन्तु संताप फिर स्वाश बाकी,
भय चरम सीमा पे, वियोग पीड़ा स्वाश से अटूट नाता जोड़े अदभुत 'सुनहरे प्रेम' का,
अपितु अडिग विश्वास वर्षो तक दानवी अतीत के आंच से बचा लेने का 'स्वप्न रत्न' सा "शुद्ध प्रेम"
एक गूंजती आवाज़ व निशान कदमो के, कराहता, व्यंग करता, प्रश्न करत भावुक प्रेम फिर सुलझाती पहेलिया नवीन परिधि,
लाचार मानसिक जटिलता से घुटती स्वयं में,,चीखता मस्तिष्क, समझाता मन किन्तु छोटा पड़ता पवित्र भाव "शुद्ध प्रेम"
बेहतर बेहद खास प्रेम किन्तु एक मत समाज के साथ खड़ा "शुद्ध प्रेम" दोनों हथेलिओ से मिट्ठी छोड़ता मुझपर,,
दफ़न करता स्वर्णिम पल,, नमक डालता मृत किन्तु जीवित शरीर पर,,
मूक अपराधी बनी कब्र में 'परिधि' जिसे खोदता रहा पवित्र भाव "शुद्ध प्रेम"
हर एहसास को बेधता हुआ सामने था पीड़ादेह अतीत परिधि का, ठग्मारी सी नवीन परिधि संताप फिर स्वाश बाकी,,
"अतीत बेरंग जैसे शरीर का अंश भयो हमार,
तैर-तैर निकली भवर से अब तक लगयो न पार"
रचनाकार : परी ऍम 'श्लोक'
Dated : 15/10/13,
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